सोमवार, 9 नवंबर 2020

बच्चियां जो कभी बच्चियां और किशोरी नहीं होती -
हमारे शहरों में हमारी ही नाक के नीचे कितने ही बाल विवाह हो जाते है कितनी ही किशोरवय बच्चियां माँ भी बन जाती है और हमारा ध्यान इस ओर जाता ही नहीं - हमारे मोहल्ले की धोबन कमला की बेटी मौलीनि जैसी कई बार अभागी 18 वर्ष में तीन बच्चो की विधवा माँ भी हो जाती हैं -कभी हमने इनके घरों में झाँकने की भी कोशिश नहीं करते -इनकी बच्चियां माँ के साथ साथ घरों में काम करते करते बड़ी हो जाती हैं और आठ साल की आयु में घरों में काम करने लगती है 99 प्रतिशत यौन उत्पीडन का शिकार होती है -(वक्त से पहले जवान हो जाती है -शारीरिक नहीं मानसिक रूप से )बड़ो की तरह व्यवहार करने लगती हैं -13-14 साल की लड़की खुद अपने लिए वर मांग लेती है नहीं तो किसी के भी संग भाग जाने की धमकी भी देती हैं -ये वो बच्चिय है जो बचपन से सीधे जवानी और अधेड़ अवस्था में प्रवेश करती हैं -किशोरवय जैसी कोई उहापोह की स्थिती तो आती ही नहीं
हमारे जीवन में हमने धन, बल ,प्रतिष्ठा से अधिक महत्त्व रिश्तों को दिया -जानते हुए की सामने वाला हमें धोखा दे रहा है कई बार उसका भी मन रखने केलिए उसकी बात मान ली सोच लिया की एक दिन जब उसका विवेक जागेगा तो उसे अपनी गलती का एहसास हो जायेगा अभी उसे ही खुश हो लेने दो
किसी को बुरा न लग जाये इसख्याल से खुद को जो भी बुरा लगा उसे पी गए,कभी अपनी व्यक्तिगत ज़रूरत को सर्वोपरि नहीं माना , रिश्ते, भाईचारे, मित्र बचाने को अपने हक़ छोड़ते चले गए -
जीवन भर इंसान ही कमाए और कुछ नहीं और सिर्फ ये वाकय कमाया की" ये परिवार बहुत अच्छा है -"अब बच्चे भी वैसे ही होते जा रहें हैं-संवेदनशील और रिश्ते कमाने वाले -कभी कभी मैं चाहती भी हूँ कि वह समय के मुताबिक व्यवहारिक हो जाएँ और अपना अपना सोचे स्वयं पर ही केन्द्रित नहीं पर वह ऐसा नहीं कर पा रहें हैं क्युकी उन्होंने सीखा ही नहीं -न कभी खुद की मार्केटिंग की न ही खुद के लिए भौतिक सफलता ही जुटा पाएंगे वे भी कभी हमारी तरह
हाँ बस शांत औरस्थिर जीवन तो रहेगा और घर में ही छोटी छोटी खुशियाँ ढून्ढ कर खुश भी रहेंगे मेरे बच्चे

व्यवहार

दस बीस वर्ष पहले जो व्यक्ति आपका जूनियर हो या आपसे कम क्षमता रखता हो या आप का मातहत हो और वही आपको अरसे बाद मिले तो यह ज़रूरी नहीं कि आज भी उसकी या आपकी स्तिथि या परिस्तिथि पहले वाली होगी और आप उसे उसी तरह व्यवहार करे जैसे बरसो पहले करते होंगे तो आप निश्चित ही वह नया बन सकने लायक सम्बन्ध खो देगें ।यदि तब भी आप उन्हें प्यार से व्यवहार करते थे और आज भी उतना ही करें तो समझ आता है लेकिन यदि आप उसका पुराने समय में उपहास करते आ रहें हो और आज भी वैसा ही करें बिना उसकी आज की सामाजिक स्थिति जाने तो हानि आप की ही होगी और एक सम्बन्ध बनते बनते बिगड़ जायेगा
अगर आप ने इतने अरसे में तरक्की कर ली है तो स्वाभाविक है उसने भी की होगी आप किसी को भी अपने पुराने चश्मे से देखेंगे तो गलती करेंगे ।पूर्वधारणा बनाना व उसके अनुसार आचरण करना अपरिपक्वता प्रदर्शित होती है

हम आत्म मुग्ध हैं और दुसरो को को दिखाना चाहते हैं कि हम आत्म मुग्ध है

वैसे हम अपनी फोटो क्यों शेयर करते हैं अभी अभी दिमाग मे प्रश्न कौंधा ।ऐसे ही टाइम पास कर रहे है - कि कुछ भी पोस्ट दे मारा बिना सोचे समझे ।या कि हम आत्म मुग्ध हैं और दुसरो को को दिखाना चाहते हैं कि हम आत्म मुग्ध है ।हम प्रसंशा पाना चाहते हैं पर क्यों ।बिना उद्देश्य तय किये हम क्यों अभिव्यक्त करते रहते है यह गलत बात है ।हमें पहले यह तय करना चाहिए कि हम क्यों ऐसा करना चाहते हैं फिर कोई सम्वाद करना चहिए ।खुद से भी और अन्य से और समाज से ।आज फोटो पोस्ट करने के बाद यह ख्याल आया एकाएक तो स्वयं पर शर्मिन्दगी सी हुई ।
हम क्यों इतने उत्साहित होते हैं स्वयं को दिखाने के लिए
यह भावना क्यों हैं ।कई बार कोई उद्देश्य नही होता फिर भी पोस्ट करते रहते हैं तसवीरें जिन से किसी अन्य को कुछ लेना देना नही होता ।
अपनी चेतना को जागृत रख कर ही सोशल मीडिया का उपयोग करना चाहिए यह मेरा मुझ को ही परामर्श है ।आपको कुछ नही कहा है ।स्वयं को ही चेताया है कि सिर्फ काम की ही बात करो जिस से किसी अन्य का फायदा होता हो किसी को वैचारिक या आर्थिक लाभ हो वही बात की जाए ।या खुद की कोई कृति या रचना या काम बताना हो । बेवजह स्वयं की कोई भी तस्वीर शेयर करना गलत बात एकदम गलत बात समझी सुनीता रानी ☺️आज से खुद की कोई भी फ़ोटो शेयर करना बंद ।सिर्फ काम की बात ,काम की ही पोस्ट ,या फिर ज्ञान झाड़ने की भड़ास या लेखन की भड़ास बस

बना बनाया मंच नही देगा

अनुभव
बना बनाया मंच नही देगा कोई स्वयं लकड़ी इक्कठी करो। कील लगाओ जोड़ो काँधे पर उठाओ ।लोगो को जोड़ो ।मदद लो न मिले तो भी अकेले लगे रहो । फिर बार बार खुद की सहनशीलता टेस्ट करो ।मंच गिरेगा तो नही । गिराने वालों से भी बचाओ ।आलोचना करने वालों से भी दो चार गाली सुनो । सालों साल मंच को कंधे पर उठा कर रखो ।फिर जब आप स्वयं इतने सक्षम हो जाएंगे कि किसी अन्य के मंच की आपको जरूरत ही न पड़े तभी सारे मंच आपके लिए खुल जाएंगे ।तुम मुझे मंच दो मैं तुम्हे अपना मंच दूंगा ।
कोई भी आपको मंच या अवसर इसलिए नही देता कि आपको उस अवसर की उस मंच की बहुत जरूरत है इसलिए देंगे कि अब आप उनके भी बहुत काम आ सकते हो ।आपकी उपयोगिता आपके सम्मान की मात्रा निर्धारित करती है ।समाज का सच यही है ।संतोष यह रहेगा जीवन भर कि हम ने जुनून रखा तो बहुत से साधनहीन प्रतिभाशाली लोगो को मंच दिया अवसर दिए ।जितने में मेरे सामर्थ्य में उतने ही कर पाई ।आजकल सोशल मीडिया में जो भी आप करते हैं तब दिख जाता है ।जब हम काम कर रहे थे दीन दुनिया भूल कर तब सिर्फ अखबार होते थे उनकी खबर भी स्थानीय पन्ने तक रह जाती थी ।और दूसरे जिले तक मे ज्यादा खबर नही होती थी ।कभी कभी कोई राज्य के पेज पर खबर छपती थी तो सब को पता चलता था कि कुछ कार्यक्रम हुआ ।अब तो सम्वाद व प्रचार की बहुत आसानी है । लिखने की भी स्वतंत्रता है स्वयं की भी

करवा चौथ

करवा चौथ पर्व श्रद्धा और विश्वास से कोई कर रहा है तो उत्तम है यदि संशय है और फिर भी मजबूरी या दबाव में या मात्र प्रदर्शन के लिए कर रहा है या फिर भीड़ जो कर रही है वह मुझे भी करना चाहिए यह सोच कर आप व्रत रख रहें तो इस से अच्छा न रखें ।व्रत के दिन पति पर उपहार का दवाब भी गलत है कि सब दे रहें हैं तुम कुछ नही दे रहे यह भी गलत है ।हर त्योहार के पीछे एक बाजार होता है जो किसी वर्ग को लाभ देता है और वह वर्ग उस त्योहार को बनाए रखने में पूरी ताकत लगा देता है ।कब श्रद्धा के नाम पर आप बाजार के क्रूर हाथो में खेलने लगते हो पता नही चलता

क्या जितना भद्दा औरतो के लिए बोला जाता है उतना लिखा भी जा सकता है

क्या जितना भद्दा औरतो के लिए बोला जाता है उतना लिखा भी जा सकता है मेरे लिए यह प्रश्न है जब कहने वाले को शर्म नहीं आती तो और वो सुन रही होती है तो हमें लिखने में क्यूँ आये -एक बार मैंने यूँ का यूँ लिख दिया इतनी आलोचना हुई की मैं सस्ती लोकप्रियता और बिकने वाला माल लिखना चाहती हूँ - पर जब मेरी आँखों के आगे उस जबरन कपडे उतरे महिला की और गया और उस पर बरसती गालियाँ की और मर्दानगी के लात घूसों की और गया तो मुझे लगा की मैंने जो भी सुना था उस से तो कम ही लिखा था पर पर मुझ पर जो सभ्य लोगो के सभ्य शब्दों की बरसात हुई की मैं महफ़िल में ही गैर जरुरी सी यानि तिरस्कृत सी हो गई -यहाँ तक की महिलाएं मुझे नसीहत देने लगी की पुरुषो की शब्द् भाषा हमें नहीं उन्हें याद करवानी चाहिए -
हर प्रकार कीअसफलता का ठीकरा फोड़ने या गुस्सा उतरने के लिए औरत है है जिसे उसकी सम्पति समझा कर दिया जाताहै
हर किसी औरत के यदि अन्तरंग यातनाओं पर लिखना चाहू तो एक नावेल बन जाये-क्यूंकी वाही एक वक्त होता है जब कोई और उसकी यातनाओं का गवाह नहीं होता -न सारी उसे पानी में खड़ा रखना हो या टाँगे खूंटी से बाँध कर मनचाहा करना हो जैसे कई किस्से हर दूसरी औरत के पास होंगे -हाँ उस पर थूकने के भी
कभी समय मिले तो फाइटर की डायरी किताब पढना पुष्पा मैत्रयी जी की कुछउधाहरण तो उसी में भी मिल जायेंगे-
जमाना कितना भी बदल जाये कितना भी उन्नति हो औरतो का पीटना लूटना तबतक चलेगा जब तक वह खुद उस नरक से छुट कर भागें नहीं
जहाँ प्रेम व् सम्मान है और दिमागों की समतल भूमि है वहां इस से खूबसूरत कोई रिश्ता नहीं -पता नहीं क्या होता है पुरुष में की हम औरते सबसे ज्यादा खुश भी उन्ही के साथ रहती है

#PINKROOF CAMPAIGN


एक गुलाबी सी छत का सपना लो बेटियो .....सपनो के राजकुमार के सपने से पहले ..तुम्हारा अपना घर ...सिर्फ तुम्हारा ..जहां से कोई तुम्हे न निकाल सके कभी भी
#pinkroof campagin
जिन्हें यह विचार सार्थक लगे वह इसे जरूर कॉपी कर के अपनी वाल पर शेयर करें

कम लोगो से मिलें

मुझे लगता है हम जीवन मे जितने कम लोगो से मिलें वह ठीक है या चाहे ज्यादा लोगों से भी मिलें पर अनासक्ति से मिले यही ठीक है । हमारे इर्द गिर्द सब आत्माएं व शरीर अपने अपने प्रारब्ध से और इस जन्म के अपने अपने कर्मो से फलित ऊर्जाओं से लदे हुए हैं अपने आसपास ज्यादा आत्मिक ऊर्जाएं हमारे शरीर मे बेचैनियां बढाती है हम उनकी नेगेटिव पॉजिटिव सब ऊर्जाओं को खुद में प्रवाहित होने देते है सम्वाद के माध्यम से , स्पर्श के माध्यम से ,नजरों के माध्यम से हम उनकी ऊर्जा को स्वयं में प्रवेश दिलवा देते हैं जो हमारे शरीर में भी उथल पुथल पैदा करती है । हमारे स्वयं की क्रिएट की गई ऊर्जा में अचानक नई ऊर्जा का प्रवेश हो जाता है ।हम उक्त ऊर्जा की हम को शायद जरूरत नही होती इसलिए वे हम में बेचैनी पैदा करते है ।भय भ्रम असुरक्षा सब चला आता है ।क्या पता उस शरीर मे किस तरह की ऊर्जा प्रवाहित हो रही थी जो हम ने ले ली ।
हां अगर हम योगी है और निरंतर अध्यात्म में मेडिटेशन से अपनी स्वयं की ऊर्जा को इतना प्रबल कर लेते हैं कि उस के तेज से सब नकारात्मक ऊर्जाएं नष्ट होंने लगे तब तो हमें खुल कर अधिक से अधिक ऊर्जाओं के संपर्क में आना हो जाये तो कोई बात नही ।यदि हम स्वयं अपनी ही ऊर्जा से परिचित नही है सहज नही है बेचैन है अपने कर्म गति से उतपन्न ऊर्जाओं से ही सामंजस्य नही बैठा पा रहे हैं तो हमें स्वयं अपने भीतर ही उतरने की खुद पर ही काम करने की जरूरत है।योगियों के एकांत वास में जाना । प्राकृतिक ऊर्जा में साधना करना इसलिए जरूरी था कि वे अपनी ऊर्जा को समझ सके व उस को बैलेंस कर सकें ।यही बात हम पर भी लागू होती है कि हम चेतन हो कर अपने भीतर सूक्ष्म को महसूस कर सकें
हमारे भीतर की निराशा अवसाद बेचैनियां असुरक्षाये आखिर हमारे कर्म फल की ऊर्जाएं है जो सदैव हमारे साथ चिपकी हुई है क्योंकि हमारे शरीर की जेनेटिक मेमोरी उन को डिलीट नही होने दे रही ।और वो कभी डिलीट होगीं भी नही ।( डीएनए सैंकड़ो वर्ष की पीढ़ी दर पीढ़ी स्मृति रखता है ।यह भी सम्भव है हमारी इस चेन में ही अपने दादा पड़दादा की बात चीत तक की स्टोरेज मिल जाए ।)
घबराहट ,बेचैनियों, निराशा ,अवसाद की अनुभूतियां कर्म के फल का सूक्ष्म प्रसाद है इसलिए हमें कर्म करते समय जागना है कि हम यह क्यों कर रहे हैं इसका फल क्या होगा ।क्यों हम किसी से मिल रहे हैं क्यों हम यह काम कर रहे हैं । क्यों हम यह रिश्ता बना रहे है क्यों हम किसी से बात कर रहे हैं ।यदि हम यह सब जागते हुए करेंगे तो कर्म अपनी सीमाएं खींच कर आपको अपनी हद दिखा देगा ।अगर हम बस यूँ ही कर्म करेंगे ।किसी की देखा देखी करेंगे या फिर मोह या काम के वशीभूत हो कर करेंगे या फिर चित्त की किसी भी प्रवृति काम क्रोध लोभ मोह अंहकार के अधीन हो कर करेंगे तो कर्म फल बेचैनी पैदा करेगा ।और यदि हम सजग हो कर करेंगे तो कर्म फल शांति और तृप्ति देने वाला होगा।अब सवाल यह है कि आज जितनी समझ है यह समझ न तो तीस वर्ष पहले थी न चालीस वर्ष इतनी आध्यात्मिक उन्नति तब नही थी कि हम कर्म को जागृत अवस्था मे कर पाते ।अब जो पूर्व में किया गया कर्म फल संग्रहण हो गया है वह तो जाएगा नही ।बल्कि कॉन्शियसनेस ऊपरी परत पर बार बार चल कर आएगा ।तो अब कर्म फल की ऊर्जाओं को कैसे अपने ऊपर हावी होने से बचा जाए उसके लिए बहुत आध्यात्मिक अभ्यास की जरूरत है ।
जीवन में जाने अनजाने में बहुत से काम हम गलत करते है क्योंकि चैतन्य नही था । जैसे किसी गलत आदमी की मदद कर के पछताते है ।दिमाग ने एक दिन बताया कि गलत हो गया मुझ से तो नेगेटिव ऊर्जा का एक फोल्डर में एक स्टोरी शामिल हो गई ।गलत लोगों से मदद ले ली ।गलत लोगो को अपने जीवन मे शामिल कर लिया मित्र बना लिया प्रेम कर लिया यह सब के रिजल्ट अनुभव बाद में पता चलते हैं जब हो चुके हैं ।कर्म फल का फोल्डर दिमाग और शरीर मे सेव होता जाता है ।यही सताता है सब को ही ।हमारा स्वास्थ्य भी हमारे कर्म फल का ही आईना है ।पर समझ देर से आती है ।या तो कोई समझाने वाला नही होता यदि होता भी है तब वो हमारे समझ जाने के तरीके से हमें समझा नही पाता ।
और हम दुनिया के रंगों के दास हो जाते हैं भीतरी दुनिया से पूरी तरह अनभिज्ञ ।
सुनीता धारीवाल
9888741311

बुधवार, 7 अक्तूबर 2020

हर स्त्री को हर लड़की को लगता है कि उसका पति हर उस आदमी से भिड़ जाए तो उस को छेड़े जो उसके साथ जबरदस्ती करे उस से भिड़ जाए किसी हीरो की तरह ।पर वो भिड़ा नही उस ने पत्नी को पीटा और गाली दी माँ बहन की ।।रंडी बह..चो... तू ही ऐसी है तूने ही पीछे लगाया होगा ..वह पहला दिन था जब उसके मर्द होने का भरम निकलने का एक हिस्सा निकल गया .

लड़कियों और औरतो लिखती रहो मेरा इनबॉक्स तुम्हारे लिए है
राजनीति का सच यह भी है - भाई लोगो सियासत में छुटभैयों की दुकानदारी राजनेताओं की गलतियो एवं असुरक्षा पर चल निकलती है । जरा सी  भनक लग जाऐ या गलती का कोई महीन सुराग  मिल जाऐ तो सही- वहीं परजीवी की तरह पनपने लगते है।नई दिल्ली में इनकी भरमार है -trap लगाने का थोक में धन्धा करते है- कभी honey trap तो कभी  money trap और खूब माल लूटते है।चुनाव आते ही छत्तो से निकल गलियों में भिनभिनाते है।ईनकी PROFILE  ये है कि या तो ये केन्द्रीय नेताओं के बेटे ,भतीजे,भानजे ,साले इत्यिादी होते हैं या फिर वें जो  कभी एक बार भाग्य के तुक्के से MLA /MPबन जाते है -दुबारा कभी कुछ हाथ नही आया होता। वो भी छुटभैयों से भी छोटी छुटभैयागिरी करते है।इस कवायद में नीचता तो है ही पर हाथ काले धन पर सही जा लगता है।और हां उन्हे पुलिस से, हम से, तुम से, मीडीया से यहां तक की उस नेता से भी पहले खबर होती है  वो कहां फंसेगा ।कौन ,कहां किस नेता के साथ कब क्या  घटने वाला है।यूं ही दिल्ली को दिल्ली नही कहते  मिंया।यहां  अपने- अपने सूबे  में कोइ नेता कितना दहाड़ ले  TRAP REPORT CARD तो उनके पास होते  है और ये वहां मिमिया रहे होते हैं और  उन संग प्रतिशत का बटंवारा करते करते  भाई लोगों की अपनी TERM पूरी ----------- आज यूं ही सियासती दिनो का आखों देखा हाल याद आ गया जैसे जैसे चुनावी बंसत आने लगेगा मुझे  बड़े नेता लोगों के भीतरी आत्माओं के  पतझड़ स्मरण हो आऐंगे ।कह देना मेरी नैसर्गिक मजबूरी है शब्द अपने आप चले आऐंगे और आप तक पहुंच ही जाऐंगें--
!!चुप रहते तो क्या न होता !!कह कह कर पसीना खो दिया

सब लड़कियां जिन्होंने प्रेम किया

सब वे लड़कियां जिन्होंने प्रेम किया 
उन में से प्रेमी संग भागी लड़कियों की  बस कुछ की लाशें बरामद हुई है बाकी सब "मंगलसूत्र पर झूल रही हैं ''
इति की पोस्ट पढ़ का सारांश यही है
यह वीडियो लगभग सब घरों का नजारा होता था और आज भी है -लड़की वही नादान है बाप लड़की के भाग जाने से उतना नही डरता या लज्जित होता जितना समाज का उपहास ,ताने व बहिष्कार उसे डराता है ।समाज के उपहास का  डर  इतना घिनौना है कि पिछले दिनों बेटी के भाग कर शादी करने की खबर से ही माता पिता ने फांसी लगा ली ।आप सोचो ।लड़की और मां बाप कैसे उस समाज के कठोर घिनौने अत्याचार के मासूम मुजरिम है और उस समाज के जिसने अपने जात भीतर कबीले भीतर लड़कियों की उपलब्धता सुनिश्चित करनी है।न समाज का यह दबाव हो न बाप को पगड़ी उतारनी पड़े कदमो में ...
पोस्ट पढ़ने के इति शर्मा की वाल पर पढ़ लीजिये 
इति शर्मा
जो हम करते हैं वैसा बहुत से लोग पहले से करते हैं और बहुत से कर सकते हैं-और बहुत से वैसा  ही करने वाले भी हैं-फर्क सिर्फ इतना ही होता है कि  हम  कैसे करते हैं किस नीयत से करते है और किस के लिए करते हैं -हर मुश्किल के बावजूद करते हैं हर मुश्किल घडी में भी करते है कर्म योग और कर्म ही जब हमारा अध्यात्म हो जाता है तो चिंता हमें नहीं उस इश्वर को ही करनी होती है और नियति स्वीकार करना भी  हमारा ही कर्तव्य है

सुनो लड़कियों

सुनो तुम सब ....किसी को बनाने में जिंदगी मत झोंक देना ..सफलता अपने फाटक (बैरिकेड्स) साथ रखती है ..उसके सफल होते ही फाटक  तुम्हारी ओर की तरफ  बन्द हो जाएंगे...और तुम्हारा कद फाटक के दूसरी तरफ रोज घटेगा ... 
दूसरे को सिर्फ सहारा देना उसकी काबलियत अनुसार ...झोंकने पर आओ तो सारी ताकत खुद पर झोंकना ...इतनी मेहनत खुद पर कर लेना ...
बीच सड़क... अकेले नही रह जाओगे ...खुद पर काम किया होगा तो ...छोटा या बड़ा कोई मुकाम तो होगा ..थोड़ी घनी कुछ तो छाया होगी विश्राम हेतु ..बस चलते जाना रे ..
Sd
Kiran Ravinder Malik

सुनो लड़कियों

सुनो लड़कियो समाज सेवी बनना सामाजिक कार्यकर्ता बनना भी आसान नही है ।भावाआवेश में आ कर
हिसंक प्रवृति के  लोगों से अकेले नही भिड़ना होता जा के ...पहले आस पास के लोगो को कन्विंस करो अपना उद्देश्य बताओ साथ ले कर चलो और सब के सहयोग से भिड़ो ।न कि अकेले ही समाज सेविका बनने के चक्कर मे संकट में पड़ो ..अकेले हम तभी भिड़ते है जा खड़े होते हैं किसी भी समस्या में जब हमें विश्वास होता है हमारे भीतर यह साहस होता है कि मेरे साथ जनता की ताकत है ।जनता को विश्वास है कि अगर तुम वहां जा ख़ड़ी हुई हो तो कोई जरूर सही बात होगी ..इस विश्वास को बनाने में सालों साल लगते है कम से कम दस पंद्रह साल लगते है सामाजिक कार्यकर्ता की भी स्थापना होते होते ..इतने लंबे अरसे तक लोग आपको observe करते हैं आपके क्रियाकलापों को देखते रहते है। शुरू में लोग साथ भी चलते हैं शंका भी करते हैं धीरे धीरे सब बदलता है ।एक ही रात में तुम समाज नही बदल पाओगी ।सामाजिक परिवर्तन धीरे धीरे आता है ।क्रांति ही एकदम आती और वह भी किसी विचार से ही आती है सही समय पर सही जगह सही विचार और उसका सही एक्शन प्रस्तुत करने से

सुनो लड़कियों

सुनो लड़कियों ।लाखों फॉलोवर्स में फूलो मत बल्कि और चौकन्ना रहो जितना ज्यादा आप सार्वजनिक मंचों पर दिखते हैं उतने ही प्रतिस्पर्धी व ईर्ष्यालु और विरोधी भी पैदा होते हैं ।
और हाँ लाखो फॉलोवर्स और ताली बजाने वालों की  लाइफ एक अंगुली या अंगूठे से अगले पेज तक  स्क्रोल करने तक ही है ।उन के भरोसे सींग मत फंसाना कहीं ।खुद का बल हो अकेले सहन करने का तभी आगे कदम बढ़ाना । झूठे मुक़्क़द्दमे में जेल होगी तो यकीन करो जेल में बस परिवार ही मिलने आएगा ।अपवाद स्वरूप कुछ गिनती के लोग जिक्र करेंगे और एक आध ही मिलेगा जो आएगा सब ताक पर रख के ।
सामाजिक यात्रा दुरूह होती हमेशा ।

चल हट ए काग़ज़ सी जिंदगी

चल हट ऐ कागजी सी ज़िन्दगी 
बस दो कागज़ -
जन्म प्रमाण पत्र मृत्यु प्रमाण पत्र 
और उस अवधि बीच 
अनेक कागज और
 उन्हें हम  कहें जिंदगी 
कक्षा दर कक्षा चढ़ते उतरते कागज 
प्रसंशा के  और प्रताड़न के कागज़ 
प्रेम पत्र के कागज 
कोर्ट कचहरी के कागज 
सम्पति के कागज 
शारीर जांच के और  दवाई के कागज 
घर के हर बिल के कागज 
किस्तो के ऋण के कागज़ 
सब ओर कागज ही कागज 
बिखरे होते हैं सब ओर 
जाने कितने कागज ही कागज 
हर साल  होती है 
दीवाली की सफाई 
और फेंक देती हूँ 
कितने ही कागज 
हाँ बस हर बार 
बस एक बैग में रख लेती हूँ 
उसके सब कागज 
जन्म और मृत्यु के प्रमाण पत्र 
और उनके बीच  उसके द्वारा 
हासिल की गयी  उन सब उपलब्धियों के कागज 
जिन्हें हासिल कर लाने के लिए 
कितनी बार लतियाया था तुम्हे 
जितना चिल्लाई थी तुम पर 
बिन कागज जीने नहीं देगा जमाना
बेटा  जीना  छोड़ हासिल करना सिर्फ कागज 
ज़माना न मुँह देखता है न हुनर न ही देखेगा दिल पगले 
हर जगह मांग लेगा तेरे कागज 
तुझे छोड़ देखेगा तो सिर्फ तेरे कागज 
अब हर साल निकल आता है 
बक्सों में रखा एक बैग 
जिसमे भरे है तेरे सब  कागज
 जन्मना बताते हैं तेरा मर जाना बताते है 
और बाकि भरे पड़े  उपलब्धियों के सर्टिफिकेट 
धिक्कारते हुए मुझे मुँह चिढ़ाते हैं 
रोती बिलखती मैं साल दर साल उन्हें घूप दिखा ।
रख देती हूँ फिर उन्हें उसी बैग में
ताकती हूँ  तेरी ज़िन्दगी के कागज 
जानती हूँ अगली पीढ़ी कहेगी 
क्यूँ रखने है ये कीट लगे पीले कागज 
इस बैग को वास्तु दोष बताएंगे 
मेरे सामने ही मेरी एक जिंदगी को हटाएंगे 
और दीवाली की किसी सफाई में 
इस बैग में भरे आंसू भी
 घर से निकाले जायेंगे और दिए जलाएंगे 
सब दीवाली मनाएंगे 

सुनीता धारीवाल

सोमवार, 17 अगस्त 2020

छपना चाहा मैने भी



छपना छपाना 
कुछ नहीं होना जाना
खुद उठा के अपनी किताब 
बाँट कर आना 
लायब्ररी दर लाइब्रेरी 
छोड़ कर आना
किसी रजिस्टर के क्रमांक में
किसी अलमारी के कोने में
धूल से मिलने के लिए
किसी गत्ते में काले कागज़
चुपचाप छोड़ आना
थोड़ी चर्चा पा जाना
एक चायपान का दौर
और लोकार्पण का ढमढमा
अति विशिस्ट का रहना
और बधाई का थोडा शो
पत्रकारो की फ़ौज

कर लेंगे थोड़ी मौज
फिर समीक्षा को कहना
संपादक से मिल आना
साक्षात्कार छपवा लेना
थोडा नाम भी हो जायेगा
मिली जब एक नामवर लेखिका सखी
आँखों ही आँखों में जैसे
कह रही थी मुझे
जो ऊपर पंक्तियों में मैंने कहा
बिन बोले उसके जान गयी
उस तन की तरंगे जान गयी
बस इतना ही कह पायी मैं
हाँ लिखना भी चाहती हूँ
छपना भी चाहती हूँ
ताकि जिन्दा रह सकूँ
काले अमर अक्षरो में
और उस आती पीढ़ी के लिए भी
जो 200 वर्ष बाद भी इन गत्तो
में कीड़े खाये कागजो और अक्षरो में
ढूंढने की कोशिश करेंगे
की इतने वर्ष पूर्व महिलाएं
कया सोचती थी
इन काले गहरे अक्षरो में
समाज को क्या परोसती थी
मेरी किताब अलमारी में हो भी जाये
पर मैं खुद बंद अलमारी कहाँ
मैं तो गली गाँव सब फिरती हूँ
कहती हूँ उनकी सुनती हूँ
कितनो की पीड़ा हरती हूँ
ज्ञान की सेवा झोली में डाल
फिर अगले गाँव निकलती हूँ
मैं कहाँ रूकती हूँ कहाँ टिकती हूँ
ज्ञान को व्यवहार में लाना
मैं ये ही पाठ पढ़ाती हूँ
भीतर मेरे जो औरत है
बाहर जो औरते मैंने देखी है
बस उसको ही कह डाला है
न लेखक हूँ मेरा न गुरु कोई
बस मन का सुना रच डाला है
 
सुनीता  धारीवाल जांगिड

लेख जो प्रकशित हुआ

हे औरतो शोना बेबी

हे औरतो 
तुम्हारे सम्बोधन 
डार्लिंग ,बेबी ,शोना शोना 
गर हैं तो 
तुम नहीं जान पाओगी 
उन कानो की पीड़ा 
जिन्हे उबलते  सीसे से 
शब्दों से भरा जाता है 
सुबह शाम 
सुनती हैं जो 
ऐ हरामजादी 
बोलती है चिल्लाती है 
जुबान लड़ाती है
खूब जानता हूँ मैं 
तुम जैसी तिरिया 
औरतो का मुँह 
नीचे से बंद होता है
चल भीतर 

सुनीता धारीवाल जांगिड़
समाज को जैसा देखा वही लिखा है ।जैसा स्त्रियों ने सुना वही लिखा है हमेशा  ।तुम बहनो इनबॉक्स में  मुझ से कही मैंने जग से कही कविता के रूप में ।
हर कोई मुझ सी  सौभाग्यशाली नही होता ।जिसे केवल और केवल सम्मान और लाड़ प्यार मिले परिवार से ।

यात्राएं

यात्राएं 
हम अपने मन की अनेक परतों की यात्रा करते है जिसमे सबसे अधिक वक्त बितातें है हम  इस मायावी दुनिया के  विचरण में जैसे दुनियादारी, सेल्फी वैल्फ़ी, सोशल मीडिया, तीज त्योहार ,सेलिब्रेशन ,उत्सव ,ब्याह शादी, जन्मदिन ,पार्टी ,धंधे, काम, रोजगार, लेन देन, इन सब मे हम आत्म  मुग्ध और पर मुग्ध होते है उदास होते है ख़ुश होते है गुस्सा होते है शान्त होते है इत्यादि इत्यादि इस परत में सब है जो दुनिया को अच्छा लगता है यह हमें दुनिया से जोड़े रखती है यह परत हमें दुनियाई संभावनाओं से रूबरू करवाती है ।
फिर कभी हम यात्रा करते है थोड़े नीचे उतर कर जहां हमारे जहन में वे सब स्मृतियाँ चलचित्र सी  चलती है जहां हमें सबसे अधिक पीड़ा हुई,छले गए ,मूर्ख बनाये गए ,उपहास के भागी बने ,जिनके कारण बने ,जिनं परिस्तिथयो में बने ,यह वह storage box है जहां इन  सब स्मृतियों ने पक्का ठिकाना किया हुआ है हम अकेले में सोचते है खुद से लड़ते है कहाँ कहाँ किस निरादर से बचा जा सकता है यानी सांप के जाने पर लकीर पीट का खुद को शांत करते है अपनी गलतियों की खुद से ही क्षमा याचना करते हैं वहीं इसी तह में उतर कर अपनी क्षमताओं पर अपनी उपलब्धियों पर एकांत में सेलिब्रेट भी करते है जो कभी किसी से न किया वह संवाद खुद से करते है ।अपनी अपनी व्यक्त अव्यक्त भावनाओ से रूबरू होते है।पीड़ाओं को महसूस करते है। रोते है हंसते है चीखते चिल्लाते है मौन रह कर शांत रह कर यात्रा करते है 

फिर एक कल्पना लोक में उतरते है जहां हम जो भी करना चाहें कहना चाहें बनना चाहें होना चाहें उन सब कल्पनाओं के संसार मे यात्रा करते है काल्पनिक आदर्श स्तिथि का निर्माण करते हैं और कल्पना शक्ति से उसे होते देखते हैं और जीते हैं 

फिर एक परत और उतर जाते है जहां न कोई कल्पना है न कोई चिंतन न कोई स्मृति न कोई ज्ञान अज्ञान कुछ भी नही बस सब खत्म है वहां सिर्फ रौशनी है सम रौशनी है न दुख है न सुख है न वजूद है न अंत है न जीवन है न मौत है कुछ भी नही सिर्फ सन्नाटा है गंभीर सा 

फिर एक और परत है जहां पर कुछ भी नही है न कोई चित्र न स्मृति न कोई अंधेरा न प्रकाश न आवाज न शोर न कोई वजूद न कुछ एहसास वहां सिर्फ आनंद है वह बहुत हल्का हो जाने की स्तिथि है ।फिर  आगे किसी और यात्रा का कोई द्वार नही है न ही कोई जिज्ञासा न हसरत।
दरअसल हम अनेक यात्राएं करते है ।असल मे मैं अनेक यात्राएं करती रहती हूं दिन में कई बार कई कई परतों में घूमती रहती हुँ चेतन अवचेतन से भिड़ती रहती हूं तभी तो कुछ भी कुछ भी लिखती रहती हूं कुछ सेकण्ड्स के लिए भी यदि मन चेतन होता है तो उसी परत का भाव कलम उतार देती है पन्ने पर ।अक्सर मेरा लिखा कुछ  भी कोई न कोई सान्दर्भिक अभिव्यक्ति होती है या किसी कल्पना का संदर्भ होगा 

दिक्कत वहां आती है जब एक साथ पल पल में कई परतों में टहल आते है और  कह देने की विवशता व संवाद के वशीभूत कुछ भी कह देते है जिसका आंकलन यहां पर दुनिया दारी समझने वाले नही कर सकते ।
मेरी ही नही यात्रा सभी की ऐसी होती है ।जितना मन निर्मल होता जाता है हम उतना नीचे उतरते रहते है अपनी गहन परतों में 
यात्रा अनवरत जारी रहे सभी की सभी परतों में 
ज्यादा समय नीचे बिता ले यह सब से अच्छा है पर उस परत में अपनी उपस्तिथि का होना भी अच्छा है

रविवार, 19 जुलाई 2020

आई तीज बो गई बीज

      
     



कोविड  महामारी आपदा की घड़ी में सावन ने अपने चिर परिचित रूप में दस्तक दे दी है ।

धरती पर गीली माटी की भीनी भीनी  सुगंध जैसे हवा में घुल कर मल्हार सुना  रही है  मन्त्र मुग्ध कर रही है ।सावन के महीने में घरती पर उमड़ घुमड़ कर आते बादलों से बरसती रिमझिम बूँदों  की झंकार ऐसे प्रतीत होती हैं जैसे प्रकृति ने घुंघरू बांध लिए हों ,सारी घरती हरे रंगों से अट जाती है सारी वनस्पति  धुल कर खिल खिल जाती, मुस्काती प्रतीत होती है ।फूलों के रंग चटख दिखने लगते हैं । भीषण गर्मी से राहत पा कर सहचरों और मानव का  मन  उल्लास से भर जाता है। मनुष्य इस  उल्लास को अभिव्यक्त करने के  गीत संगीत  रचता है ।यह  संगीत  स्वर लहरीयां प्रकति के इस रूप को और भी आकर्षक व  मोहक बना देते हैं ।


आज जब पूरा विश्व ही महामारी की चपेट में हैं । बचाव के लिए मनुष्य के विचरण की  सीमाएं तय कर दी गई है।मनुष्य सार्वजनिक स्थानों पर इक्कठा हो कर प्रकृति के इस मौसम की ताल में ताल नही मिला पा रहा।परंतु मन की कहाँ  सीमाएं है वह तो हर सीमा लांघ  ठंडी फुहार के हल्के से स्पर्श से भी उत्सव अनुभव कर लेता  है । 

कोविड महामारी के इस समय मे मेले और सामूहिक सार्वजनिक आयोजन सब हाशिये पर हैं। पर उमंग का कोई हाशिया नही होता ।जिजीविषा औरत का नैसर्गिक  गुण है विपरीत परिस्थितियों में भी जीवन के लिए संघर्ष करना, स्त्री कोशिकाओं का अद्भुत नर्तन है ।ऐसे समय मे हम सब महिलाएं मिल संचार के लिए  उपलब्ध इंटरनेट तकनीक का सहारा ले कर  गा रही हैं । जी हां इस मौसम को भला स्त्रियों के गीतों की लहरियों के बिना कैसे जाने दिया जा सकता था ।हम ने ऑनलाइन सावन के गीतों की बैठको की श्रृंखला शुरु की हुई है तो सावन के पहली तिथि को शुरू हुई और यह तीज के त्यौहार तक चलेगी ।इस प्रयास के कई महत्वपूर्ण  लाभ हो रहें हैं ।महिलाएं डिजिटल होने लगी हैं  उनकी रुचि इस माध्यम को आजमा लेने में जगी है ।उत्तर भारत के दूर दराज जिलों , शहरों गांव से महिलाएं आपस मे जुड़ रही है सामाजिक संबंध बन रहे हैं  जो शायद बिना तकनीक के  सम्भव न होता । महिलाओं की प्रतिभा को मंच मिल रहा है वह एक दूसरे प्रदेश के गीतों को सुन रही हैं सीख रही है । उत्तर भारत मे  सावन महीने में महिलाओं द्वारा गीत गाये जाने की परंपरा को आगे बढ़ाने का कार्य सिद्ध हो रहा है  । सबसे बड़ा लाभ यह हो रहा है कि महिलाओं के  प्रतिदिन आपस में  हो रहे सहज सम्वाद से यह भी ज्ञात हुआ है किस राज्य के  किस अंचल में किस तरह से तीज  मनाई जाती है और सामाजिक उत्सवों को मनाने के  संदर्भ में अलग अलग राज्यों के  ग्रामीण व शहरी समाज में कितना परिवर्तन आ गया है ।

हमारा गीत गाओ तीज मनाओ का सार्थक संदेश तेजी से फैल रहा है ।बहुत सी महिलाएं आपको हर दिन सोशल मीडिया पर सावन के गीत गाती सुनाई देंगी ।अभी इस प्रयास में वह महिलाएं जुड़ी हैं जो  इंटरनेट तक अपनी पँहुच बना चुकी हैं या बनाने की ओर अग्रसर हैं  । उत्सव चाहे  आभासीय ही क्यों न हो उत्सव होता है  उत्सव का अर्थ यही  प्रतीत होता है कि स्वयं  में उत्साह का संचार होना ।स्वतः ही आनन्द से भर जाना है ।निसंदेह यह प्रयोजन सभी प्रतिभागियों को   आनन्दित कर रहा है ।

सावन का महीना  जेठ आषाढ़ की भीषण गर्मी से राहत ले कर आता है  सहचरों और मानव का मन उल्लास से भर जाता है । सावन में इन दिनों हरियाणा में चटख  लाल रंग का मखमली  कीट विचरता दिखाई देता है जैसे घरती पर लाल मोती लुढ़क रहे हों ।जो भी इन्हें देखता है उनके मुख  से बरबस निकलता है लो आ गई तीज ।लोक जन इस खूबसूरत कीट  को आज भी  तीज   कह सम्बोधित करते हैं ।

।lहरियाणा में लोक कहावत है आ गई तीज बो गई यानि तीज ने त्यौहारो के बीज बो दिए और राजस्थान में भी मिलती जुलती बड़ी ही प्यारी लोक कहावत प्रचलित है। तीज तीवारां बावड़ी, ले डूबी गणगौर...यानी सावन की तीज से आरंभ होने वाली  पर्वों की यह रंग भरी मोहक  श्रृंखला गणगौर के विसर्जन तक चलने वाली है। सभी  बड़े त्योहार तीज के बाद ही आते हैं। रक्षाबंधन, जन्माष्टमी, श्राद्ध-पर्व, नवरात्रि, दशहरा, दीपावली सब आने के लिए पंक्तिबद्ध दिखाई पड़ते हैं ।

 तीज श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाया जाने वाला महिलाओं का लोकप्रिय त्योहार है जो भारत  में समस्त  हरियाणा ,पंजाब ,राजस्थान , उत्तरप्रदेश और बिहार के मिथिलांचल और बुन्देलखण्ड अंचल में मनाया जाता है  इस त्यौहार को कज्जली तीज, सावनी तीज , हरियाली तीज,  मधु श्रावणी तीज भी कहा जाता है ।

हिन्दू धर्म मे इस त्यौहार का बड़ा महत्व है शिव पुराण की कथा अनुसार देवी  पार्वती ने भगवान शिव को पति के रूप में पाने के लिए 107 जन्म तक तपस्या की परंतु उनकी मनोकामना पूरी न हुई ।  एक सौ आठवें जन्म में देवी पार्वती ने  तीज का व्रत किया जिस से प्रसन्न हो कर भगवान शिव ने उनका पत्नी के रूप में वरण किया। ।हरियाली तीज के दिन भगवान शिव से माता पार्वती का मिलन हुआ था इसीलिए उन्हें यह तिथि प्रिय है।इसी मान्यता का  अनुसरण कर  युवतियां ऐच्छिक वर प्राप्ति की कामना हेतु व ब्याहता महिलाएं सुख-सौभाग्य व उत्तम संतान व पति की दीर्घ आयु के  लिए तीज का व्रत  रखती हैं।

हरियाणा पंजाब में अमूमन व्रत की कठोर परंपरा नही है बल्कि इस दिन  खीर मालपूए, गुड़ के पूड़े , गुड़ के गुलगुले सुहाली पकवान बनाये, खाये ,खिलाये  और बांटे जाते हैं ।परंतु कुछ स्त्रियां जो सनातन परंपरा का अनुसरण करती हैं इस दिन  व्रत भी रखती हैं ।

व्रती महिलाएं सज-धजकर, सोलह-श्रृंगार करके माता पार्वती की पूजा करती हैं।उन्हें श्रृंगार की वस्तुएं चढ़ाती हैं। यह कठोर व्रत होता है जो निर्जल होता है अगले दिन सुबह व्रत खोला जाता है ।मान्यता है कि माता पार्वती इस पूजा से प्रसन्न होती है और इनको सुख-सौभाग्य का वरदान देती है। सभी स्त्रियां एक दिन पहले हाथों पर  मेंहदी लगाती हैं । पंजाब और हरियाणा और उत्तर प्रदेश तीनों  प्रदेशो में इस त्योहार पर नव ब्याहता बेटियो के मायके आ जाने की प्रथा  है ।यदि लड़की ससुराल में है तो लड़की का  भाई सिंधारा ले कर बहन के ससुराल जाता है और लड़की यदि मायके में हैं ससुराल वाले अपनी  बहू  के लिए सिंधारा ले कर उसके  मायके  घर आते  हैं ।

इन दिनों गांव में लड़कियों की रौनक होती है ।गांव की ब्याही गई लड़कियां जब मायके में आती है तो वह अपने बचपन की सखियों से मिल फूली नही समाती ।बागों में झूला झूलने जाना ,गीत गाना और जी भर गिद्दे में नाचना उन्हें अलौकिक आनंद की अनुभूति करवाता  है । बीते वर्षों गांवों  में लोक मेले लगते थे जहां हाट बाजार गीत संगीत और झूला  झूलने की व्यवस्था होती थी जहां सब लोग मिल कर हर्ष मनाते थे ।

हरियाणा प्रदेश में इस  लोक त्यौहार को बड़े हर्ष उल्लास से मनाया जाता है ।सावन माह के शुरू होते ही सभी स्त्रियां प्रतिदन इक्कट्ठे हो कर गीत गाती है और नाचती हैं ।सावन में तीज के त्यौहार से पहले भाई अपने बहन के घर कोथली अथवा  सिंधारा ले कर जाता है जिस में बहन के लिए रेशमी कपड़े  श्रृंगार का सामान  ,घेवर सुहाली ,मिठाई बंधी होती  है । स्त्रियां ससुराल में  अपने भाई का इंतजार करती है व चाव से भाई का अभिनन्दन करती है और पीहर का हाल पूछती है लोक गीतों में ऐसे सम्वादों की बहुतायत मिलती है ।

हरियाणा के लोकगीतों में  सावन ऋतु का वर्णन , तीज के त्योहार का उल्लास ,पीहर और सासरे का वर्णन ,मां-बेटी, और सास -बहु के आपसी रिश्तों को दर्शाते सम्वादों का जिक्र मिलता है ।

लोक जन जीवन को दर्शाते  लोक गीतों में सावन ऋतु को बहुत स्थान मिला  है - 


सामण की रुत हे माँ मेरी आ गई री हे री कोई चाल्लै बादल की लोस झूलण जांगी हे माँ मेरी बाग मेह री 

नान्हीं नन्हीं बुंदिया हे माँ मेरी पड़ रही री हे री आया तीजां का त्यौहार झूलण जांगी हे माँ मेरी बाग मैंह जी ।


इस गीत में बेटी अपनी मां से गुहार लगाती है कि मैं बागों में झूला झूलने जाउंगी बागों में झूले पड़ गए हैं और नन्ही नन्ही बूंदे भी बरस रही हैं ।


निम्बां के निम्बौली लागी सामणिया कद आवैगा ,मरियो ए बसन्ता नाई कोथली कद ल्यावेगा ।


इस गीत में विवाहित बेटी ससुराल में बैठी सावन में अपनी कोथली आने का इंतजार करते हुए कह रही है नीम के पेड़ो को निम्बौली बसन्ता नामक नाई उसकी कोथली  न जाने कब लाएगा ।गांव में बेटियो की सावन की  कोथली नाई द्वारा ले जाने की परंपरा भी  है ।


मीठी तो कर दे हे  मां कोथली 

जाणा सै बाहण के देस पपैया बोल्या पीपली 


इस गीत में भाई अपनी मां से कहता है पीपल के पेड़ पर पपीहा बोल रहा है सावन आ गया है ।हे माँ मेरी  बहन के लिए कोथली तैयार कर दो मै बहन के घर जाऊंगा । 


पी पी पपैया बोल्या बाग मह 

तेरा पिया कैसा बोल रे 

पपैया बैरी न्यू मत बोले रे जुल्मी बाग में 


इस गीत में बिरहन अपने पति को याद कर रही है और पपीहे से कहती है कि  हे पपीहे तुम यहाँ बाग में मत बोलो तुम्हारी आवाज मेरे पिया के जैसी है तुम बोलते हो तो मुझे पिया की बहुत याद आती है।


इसी प्रकार के अनेक गीत आज भी  प्रचलित में  है जो सावन के महीने में गाये जाते हैं ।


पंजाब में भी बरसों  तीज के मेले प्रचलित रहें है ।जिस में ग्रामीण शिल्प व चूड़ियां बिन्दी मेहन्दी व अन्य शृंगार के सामान झूले मेलों  की रौनक हुआ करते थे । महिलाएं गिद्धे में बोलियां गा कर  धमक पैदा करती थी  ।रंग बिरंगे परिधानों में ,हाथ की ताली से ताल देती और उत्साह से लबरेज  समूह में गाती नाचती औरतें मदमस्त सावन  को रंगीला सावन बना देती थी ।

पंजाब के पारंपरिक  लोकगीतों में ,गिद्दे की बोलियों में सावन का जिक्र खूब  हुआ है हंसी ठिठोली के भाव भी पिरोये गए हैं ।

पंजाब में गिद्दे की बोलियों और गीतो की बानगी प्रस्तुत है 


1 सौण महीने पिपली पींगा खिड़ पइयाँ गुलज़ारां 

संतो बन्तो कठियाँ हो के बण कुंजा दियां  डारां

नच्च लै मोरणिये पंज पतासे वारां ..नच्च लै मोरणिये 


इस बोली में हर्ष मग्न युवितयां अन्य युवतियों को नाचने के के लिए प्रोत्साहित कर रही है 


2 सौंण दा महीना बागां विच बोलण मोर नी 

मैं नही सौरे जणा गड्डी नु खाली टोर नी 


इस गीत में सावन के महीने के रँगीले समय में लड़की अपने ससुराल जाने से इनकार कर रही है कि गाड़ी को वापिस भेज दिया जाए मैं नही जाउंगी ससुराल 



3- देवीं हौली हौली पींग नु हुलारा 

सौरेयाँ दा पिंड आ गया

कोई पुछे बिल्लो तेरा की हाल चाल है 

कोई पूछे बिल्लो तेरा किन्ने दा रुमाल है 

मैं देवां किहदी किहदी गल्ल दा हूँगारा

सौरियाँ दा पिंड आ गया 


इस गीत में जब लड़की सावन में अपने ससुराल जाती है तो सब उस से उसका हालचाल पूछते हैं उसे घेर लेते है उसके रुमाल के बारे में पूछते है वह कहती है मैं किस किस को जवाब दूं साथ ही वह झूला धीरे से झूलाने का भी आग्रह करती है ।



4 जदों किण मिण पैण फ़ुहारां 

खिड़ खिड़ पैंदिया  गुलजारां

हरी भरी होई धरती फुल्ल वरगी 

कि सौण दा महीना आ गया 

इस गीत में सावन के महीने में धरती का वर्णन है कि रिमझिम बूंदों में धरती फूल की भाँती  खिल गई है ।


 रंगीला राजस्थान हमेशा से ही तीज-त्योहार, रंग-बिरंगे परिधान, उत्सव और लोकगीत व रीति रिवाजों के लिए प्रसिद्ध है। तीज का पर्व राजस्थान के लिए एक अलग ही उमंग लेकर आता है जब महीनों से तपती हुई मरुभूमि में रिमझिम करता सावन आता है तो निश्चित ही किसी महा उत्सव से कम नहीं होता। राजस्थान में भी सावन की तीज को मनाया जाता है ।सावन मास की तीज को छोटी तीज कहा जाता है व भादों  मास की तीज को बड़ी तीज ।इस दिन गांव की सब कुँवारी लड़कियां व नव ब्याहताएँ गांव निकट तालाब पर इक्कट्ठा हो कर गीत गाती नाचती  है झूले झूलती है । 


राजस्थानी लोक -गीतों की बानगी देखिए -

तालरिया मगरिया रे म्हारो भाई आय रियो आयो आयो तीजां रो त्युंहार ,बीरो बिणजारो रे

इस गीत में ब्याहता स्त्री बता रही है  कि मेरा बंजारा भाई ताल तालाब ऊंचे टीलों से होते हुए तीज के त्यौहार पर मेरे घर आ रहा है ।


बन्ना रे बागां मेह झूला घाल्या ।म्हारी बन्नी ने झूलण दे न महारो छैल बनड़ा 

इस गीत में नव ब्याहता  के पति को कहा जा रहा है कि  बन्नी के लिए बागों में झूला डाल दिया गया  अब वह बन्नी झूला झूलने के लिए हमारे संग भेज दे ।


सावण लाग्यो भादवो जी यो तो बरसण लाग्यो मेघ बन्नी का मोरिया से झट चौमासा लाग्यो रे ।


इस गीत में सावन बादलों के बरसने और मोर के नाचने का वर्णन है 


खड़ी खड़ी जोऊँली थारी बाट कदी आओला सजन 

इस गीत में बिरहन सावन में अपने पिया की बाट जोहती है उसे पुकारती है ।ऐसी अनेक लोक गीतों की रचनाएं उपलब्ध है जो इस खास मौसम में प्रदेश भर में गाई जाती है ।


उत्तर प्रदेश में भी तीज का त्योहार मनाया जाता है और सावन में महिलाओं द्वारा गीत संगीत के सामुहिक आयोजनों की परंपरा रही है उत्तर प्रदेश में सभी   अंचलों में व बिहार के मिथिला अंचल में भी तीज मनाने की परंपरा है ।यहां की महिलाएं और कुंआरी युवतियां व्रत रखती है सावन के पूरे महीने में सभी स्त्रियां झूलने और गीत गाती नाचती हैं यहां पर पुरषो द्वारा गायन का भी चलन है जिस में वे सावन में ताल ढोलक नगाड़े की थाप पर ऊंची हेक के गीत गाते और नाचते हैं।

उत्तर प्रदेश में सावन में कजरी गाने की परंपरा है यह उप शास्त्रीय गायन विधा है ।लोक रंग के इन सुरों को गायन शास्त्रों में शामिल किया गया ।कजरी के बोलों की बानगी इस प्रकार है - 


दादुर मोर पपीहरा बोले 

सुनि -सुनि जियरा डोले रामा,

हरे रामा बहे  बसंती बयार, बदरिया घिर घिर आई ना

सब सखियां मिली झूला झूले ,

ले साजन के संग हो रामा,

 हरे रामा झूमे ला मनवा हमार,

 बदरिया घिर घिर आए ना 

इस गीत में सावन में मोर पपीहा दादुर के बोलने का ,मेघ बरसने ,ठंडी हवा,व पति संग झूला झूलने  से मन मे  उठे आनन्द को वर्णित किया गया ।



सखी हो श्याम गए मधुबन को,

सुन करि मोरा भवनवा ना ।

आषाढ़ मास घनघेरी बदरिया, 

सावन रिमझिम बरसे ना ।

भादो मास बिजुरिया चमके 

मोहि डर लागे भवनवा ना ।।


 राधा सखियों को  सम्बोधित करके कह रही है कि श्याम मधुबन चले गए है और इस भवन में अब मेरा जी नही लगता है । बिजली चमकने से मुझे अकेले इस भवन में  डर लगता है 



2 गोरे कंचन गात पर अंगिया रंग अनार।

लैंगो सोहे लचकतो, लहरियो लफ्फादार।।

इस मे शृंगार का वर्णन है कि गोरे रंग पर  अनार रंग की चोली और घुमेरदार लहंगे पर लहरिया चूनर  बहुत सुंदर लग रही है ।



3 नन्हीं - नन्हीं बुदियाँ सावन का मेरा झूलना  जी।

पहला झूला -झूला मैनें बाबुल जी के राज्य में,

यह गीत भी बहुत लोकप्रिय गीत है और स्त्रियो के बरबस ही थिरक उठते है ।लड़की अपने झूला झूलने के अनुभवों को याद कर रही है 





उत्तर प्रदेश के मथुरा और वृंदावन में और हरियाणा की ब्रज भूमि फरीदाबाद में इस त्योहार की छटा राधा कृष्ण मयी होती है गीत संगीत के सरपट्टे लगते हैं । वृंदावन में श्री बांकेबिहारी जी को स्वर्ण-रजत हिंडोले में बिठाया जाता है। उन्हें देखने श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ती है। कथा अनुसार  ऐसा माना जाता इस  दिन  राधारानी अपनी ससुराल नंदगांव से बरसाने आती हैं। मथुरा और ब्रज का विश्व प्रसिद्ध हरियाली तीज पर्व प्रत्येक समुदाय के लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र है। वहां के सभी मंदिरों में होने वाला झूलन उत्सव भी हरियाली तीज से ही आरंभ हो जाता है, जो कार्तिक पूर्णिमा को संपन्न होता है। झूले पर ठाकुरजी के साथ श्रीराधारानी का विग्रह भी स्थापित किया जाता है।यहाँ भी   स्त्रियां सज-धजकर प्रकृति के इस सुंदर रूप का स्वागत करती हैं नाचती गाती है  


अरी बहना छाई घटा घनघोर 

बिजुरी तो चमके जोर से 

अरी बहना मोर मचाए शोर 


हे री सखी झूला तो पड़ गयो आम्बुआ की डार पै जी 

हे जी कोई राधा को गोपाला बिन राधा को झुलाए कौन झूलना जी ।


मथुरा वृंदावन में गाये जाने गीतों को सावन की मल्हार कहा जाता है जिसे स्त्री पुरुष दोनों ही गाते हैं और नाचते हैं 



बिहार के मिथिलांचल में भी सुहागन स्त्रियां अपने पति की लंबी आयु के लिए हरियाली तीज का व्रत रखती हैं, जिसे वहां मधुश्रावणी के नाम से जाना जाता है।  यहां पर भी जो लोक गीत गाये जाते हैं उन में धरती की सुंदरता का सावन के मदमस्त मौसम का जिक्र होता है ।झूलने और गीत संगीत नृत्य यहां पर भी लोक रंजन में शामिल है 

लोक गीतों  की कुछ पंक्तियां प्रस्तुत है - 


आओ सावन अधिक सुहावन 

मन मे बोलन  लागे मोर 

रूम झूम के आई बदरिया 

बरसत है चहुं ओर सखी री  

इस गीत में वर्षा ऋतु का ही वर्णन किया गया है 


कोयल बिन बगिया न सोहे राजा 

भाई भतीजा बिन पिहरो न सोभे 


पिया रे बिन सेजिया न शोभे राजा ।

इस गीत में सभी का महत्व बताया जा रहा है कोयल के बिना बाग की शोभा नही होती और भाई भतीजे बिन पीहर की शोभा नही होती और ससुराल 


बुंदेलखंड में इस त्योहार को बड़े चाव से मनाया जाता है । घर के पूजा स्थल पर भगवान के लिए छोटा झूला स्थापित करके उसे आम या अशोक के पल्लव और रंग-बिरंगे फूलों से सजाया जाता है। फिर स्त्रियां भगवान श्रीकृष्ण के विग्रह को झूले पर रखकर श्रद्धा से झुलाते हुए मधुर स्वर में लोकगीत गाती हैं। इस अवसर पर श्रावण मास की सुंदरता से जुडे खास तरह के लोकगीत गाए जाते हैं जिन्हें इस क्षेत्र में भी कजरी कहा जाता है 


 गीत संगीत श्रृंगार  से लकदक यह त्यौहार की लोक जीवन मे  आज भी प्रिय है ।पूरे उत्तर भारत मे यह अपना विशेष स्थान रखता है ।गौर करने लायक बात है कि  बीते 30 वर्ष पूर्व तक  से आज तक समाज मे बहुत तेजी से बदलाव आ गया है । शहरी करण ,भूमण्डलीकरण के विकास के ढांचे में हम अपनी विरासत को भूलने लगे हैं । घटते संयुक्त परिवार और एकल परिवार की चुनौतियों से जूझ रहे परिवारों के पास अब इतना समय नही बचा है कि वे महीनों उत्सव मना पाएं ।त्यौहार मात्र एक ही दिन के रह गए हैं ।

जितने आधुनिक और विकसित हो रहे उतना ही जड़ो से दूर हो रहें हैं । अपनी परम्पराओं से पूर्ण मोह भंग तो नही हुआ है  बस त्यौहार मनाने के ढंग बदल गए हैं ।आज जो लोग 70   वर्ष से ऊपर आयु के है  वह  शायद आखिरी पीढ़ी है जिस ने गांव में इन त्यौहारों  का उत्साह अपनी आंखों से देख लिया है ।इनके बचपन व युवा अवस्था मे मोबाइल जैसी  तकनीक ने घुसपैठ नही की थी । तब न मोबाइल  था न ही रिकॉर्ड किए हुए गाने बजाने की सुविधा थी न ही कोई पसंद करता था । 

। वर्तमान में गीत संगीत में भी नए नए  प्रयोगों ने जगह बना ली है अब तो संगीत भी कम्प्यूटर पर रचा जा रहा लोक वाद्यों की आवाजों से नई पीढ़ी का परिचय ही खत्म होता प्रतीत होता है। पारंपरिक सब लोक कलाओं की सब तालीम सीना ब सीना हुआ करती थी ।युवा बुजुर्गों के पास बैठ कर सीखते थे ।अब किसी के पास वक्त नही बचा है न ही इतनी साधना की लगन दिख रही है 


सावन मनाने हमारे ऑनलाइन प्रयोजन से विभिन्न प्रदेशों की महिलाएं जुड़ी हैं । उत्तर प्रदेश के शहर गोरखपुर की 45 वर्षीय  अंजनी त्रिपाठी  कहती है ।जो हमने बीस तीस बरस पहले गांव में सावन की तीज के रंग देखे है वह आज नही है ।संयुक्त परिवार की परंपरा खोने लगी है ।कुटुम्ब की सामुहिकता बहक सी गई है ।पहले इस प्रकार के सामुहिक आयोजन गांव के बड़े बुजुर्गों के संरक्षण में आयोजित होते थे ।उन आयोजनों में अनुसाशन भी होता था बड़े छोटे की शर्म भी ।अब इस तरह के आयोजनों की कोई जिम्मेदारी नही ले रहा है । हर हाथ मे मोबाइल की पँहुच ने  विरासत के सामुहिक व्यवहार के  चलन को बेदखल सा कर दिया है । मनोरंजन अब हाथ मे बज रहा है ।आजकल नाच गाना रिकॉर्ड पर ही बज रहे हैं ।वेश भूषा भी आधुनिक हो गई है ।अब वह नजारा न रहा ।गीत गाने में सांस खर्च होता है जोर लगता है आजकल की युवतियों में वह ताकत ही न बची है ।न ही बड़े बुजुर्ग औरतों से बैठ कर गीत सीखने की कोई ललक है  ।सब मोबाइल में देख देख कर नाच गा रही हैं । इस पीढ़ी के तो आर्दश बदल गए हैं अपने मूल स्वरूप में लोक रंजन को इन्होंने देखा ही नही ।



 पंजाब के पटियाला शहर की  परमजीत कौर ने तीज के मेलों में गिद्धे भंगड़े में खूब भाग लिया है अपने घर के बुजुर्गों को तीज मनाते देखा है ।वह अरसे से  पंजाब के लोक गीत गा रही हैं वह अपनी चिंता जताते हुए कहती हैं कि  समय के साथ तीज या अन्य सभी सार्वजनिक त्योहारों के मेलों के  आयोजनो में फर्क आया है जो विधाएं स्वयं के रंजन की थी और सहजता से सामुहिक लोक  जीवन का हिस्सा थी अब वह मंच की विधाएं हो गई है और लोक आयोजन भी मंच पर  होने लगे हैं।जिस में औपचारिकता बढ़ गई हैं और ग्राम्य जीवन सदा व्याप्त रहने वाली  सुलभ सहजता लुप्त होती जा रही है ।अब लोग अधिकतर रंगारंग कार्यक्रम देखने जाते है सुनने जाते हैं पर उसका स्वयं हिस्सा नही हो पाते ।पर त्यौहारों का महत्व और उल्लास कम नही हुआ है पर रूप रंग बदल गया है।यह आयोजन सरकार के सिर मढ़ दिए गए हैं ।कुछ संस्थाएं भी ऐसे आयोजन करती है बदलते वक्त में यह प्रयास भी सार्थक हैं ।


राजस्थान के सीकर जिले के मउ गांव की रहने वाली  वरिष्ठ  सांस्कृतिक रंगकर्मी वीना शर्मा सागर का कहना है । तीज के दिन हम सब युवतियां घर से नए आम का ताजा डला हुआ कच्चे आम का अचार व साथ ले कर तालाब किनारे जाती थी और उस जगह गाना बजाना होता था ।नई दुल्हन को झूला झुलाया जाता है व झूले पर बैठी दुल्हन से उसके पति का नाम पूछा जाता था।गांव में नव ब्याहता के लिए  यह पहला सार्वजनिक अवसर होता था जिस में ब्याहता अपने पति का नाम बताती थी ।इस रस्म का यह लाभ होता था कि अपनी आयु की सभी लड़कियों व बहुओं से सभी का परिचय हो जाता था ।इस छोटी तीज में बड़ी बूढ़ी औरते नही भाग लेती थी ।नई ब्याहता स्त्रियां व कुंआरी युवतियां व्रत रखती थी ।यह उल्लास अब गांव से भी नदारद होता जा रहा है। नई पीढ़ी का शहर की ओर पलायन होता जा रहा है और बच्चे अंग्रेजी शिक्षा में पल रहे हैं ।सारी दुनिया के ज्ञान को जुटाने के लिए अपनी जड़ों को गहरा करना होता है।जितना हम अपनी सभ्यता और संस्कृति को सम्मान देते हैं उतना ही विश्व मे सम्मान पाते हैं  ।राजस्थान में भी रेकॉर्ड किए गीतों की उपलब्धता है एक तरफ तो यह अच्छा है कि युवा कम से इस माध्यम से ही लोक गीतों को सुन रहे हैं दूसरी तरफ गाने की परम्परा कम हो रही है गायन में स्वास का नियंत्रण साधना होता है जो प्राणायाम ही है इस से फेंफड़े भी मजबूत होते थे।नाचने से पसीना बहता था ऊर्जा खर्च होती है व्यायाम होता है ।अब बच्चे जिम में जा रहे है उत्तेजक ऊंचे संगीत के बीच वर्जिश हो रही है ।हमारी लोक कला  विधाओं में इतना सामर्थ्य आज भी है कि वह इंसान के शाररिक और मानसिक रूप से मजबूत बनाये रख सकें ।बार बार त्यौहारो के आने ब्याह शादियों में नाचने गाने से मन की कुंठाओ का विरेचन हो जाता था व तन के दूषित पदार्थ पसीने से बह निकलते थे ।अब इस दिशा में जागरूक करने की जरूरत है ।जिस मंच का युवा पीढ़ी सब से ज्यादा इस्तेमाल करती है उन्ही मंचो पर उन्हें उन्ही की भाषा मे लोक कलाओं के महत्व को समझाने की जरूरत है ।

इस संदर्भ में यह तो हमें स्वीकारना होगा कि परिवर्तन नियम है और समय के साथ साथ लोक रंजन के तरीके और भी बदलेंगे । माध्यम भी बदल जाएंगे ।इस बीच यदि हम अपने उत्सवों की उद्देश्य को नई पीढ़ी तक पँहुचा  पाएं और उन में इस परम्पराओं के प्रति उत्साह स्नेह और सम्मान पैदा कर पाएँ तो यह हमारी अधेड़ आयु में प्रवेश करती पीढ़ी की बड़ी उप्लब्धी होगी ।

अपनी लोक संस्क्रुति को पीढ़ी दर पीढ़ी स्थान्तरण करते जाना भी हमारी ही जिम्मेदारी है।सावन के मधुर सुरीले लोक रंग का जादू इस इंटरनेट पर सम्वाद करने  पीढ़ी के भी सर चढ़ कर बोलने लगे यह सम्भव है ।चलते चलते ध्यान आ गया कि इस माह में भगवान शिव  के रंग में रँगे शिव भक्त  कावड़ियों के झुंड के झुंड बम बम बोले का जयघोष करते गंगा जल लाने के उपक्रम में पैदल सफर करते दिखने वाले नदारद रहेंगे ।आने वाले समय मे कावड़ के ऑनलाइन होने की व्यवस्था बन ही जाएगी ।ऑनलाइन सर्विस प्रोवाइडर भी मिल जाएंगे जो गंगा से जल ले भी और आपके गांव में मंदिर में चढ़ा भी देंगे।

फिलहाल इस लेख में इतना ही- चलते चलते  जो महिलाएं ऑनलाइन सावन के गीतों की बैठक में भाग ले कर नाच गा कर इस आयोजन को सफल बना रही हैं  उनके नाम आपको बता दे रहें हैं - हरियाणा से मीनाक्षी यादव ,एम के कागदाना,आंशिक कक्कड़ ,संगीता ओहल्याण,सुदेश मलिक ,साक्षी हंस , डॉ प्रोमिला दहिया सुहाग , अंजू लठवाल ,मीना शर्मा , डॉ मीनाक्षी महाजन ,बेबी रानी ,डॉ मीनाक्षी शर्मा ,सन्तोष आंतिल, भूमिका नासा ,अनिता जांगड़ा, सरोज शर्मा ,उर्मिल राठी , हिमानी जांगड़ा, सुनीता मलिक, अंजलि , 

 पंजाब से परमजीत कौर ,उनमान सिहं,डॉ  मंजू अरोड़ा ,सुपनंदन दीप ,मनदीप दीप ,हिना राजपूत ,नैना हिमांशु अरोड़ा , डॉ रमा कांता ,रौशनी देवी ,हरजीत कौर , आनुपमा गगनेजा ,गुरदेव कौर ,ऑस्ट्रेलिया से नवजोत कौर ,गुरमीत कौर ,बबिता रानी ,नरिंदर कौर 

राजस्थान से वीना शर्मा ,डॉ मुक्ता सिंघवी ,वीना शर्मा सागर ,कविता शर्मा ,वीना जांगिड़ ,शिल्पा राणा 

उत्तर प्रदेश से सुनीता मलिक सोलंकी ,अंजरी त्रिपाठी ,अंजनी मिश्रा ,,ममता शर्मा ,सरस्वती त्रिपाठी, राशि श्रीवास्तव 

हिमाचल से रीता पुरहान ,शगुन राजपूत ,शिवानी नेगी  

चंडीगढ़,पंचकूला  से डॉ चारु हांडा , सुनीता  शर्मा ,वन्दना शर्मा , रजनी बजाज , अनामिका , काजल ,रीना वर्मा ,नीलम त्रिखा , मंजली सहारण , रेखा शर्मा ,वीना मल्होत्रा ,

नई दिल्ली से ममता शर्मा,वीना शर्मा, पुष्पा शर्मा जांगिड़ ,सुमन शर्मा ,बिहार से नन्दिनी झा और कल्पना सिन्हा सहित अन्य महिलाएं भाग ले रही हैं तीज के त्यौहार तक तक यह सिलसिला यूँ ही  जारी रहेगा । 


सुनीता धारीवाल जांगिड़ 

सामाजिक व सांस्कृतिक कार्यकर्ता व प्रेरक 

9888741311 

Suneetadhariwal68@gmail.com 



गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

wild wild country

Wild wild country ओशो के बारे में उसकी विवादास्पद यात्रा के बारे में देख लीजिए netflix पर 
सब माजरा समझ आ जायेगा ।एक कहानी में कई कहानियां है रोचक ,हैरान कर देने वाली , सोचने पर मजबूर करने वाली ।कुल मिला के दिलचस्प है  ।यह सब  उस दौर में तब घट रहा जब मैं अपनी किशोर अवस्था को पार कर रही  थी और ओशो का जिक्र वर्जित था समाज मे टैबू था पर हम ने सिर्फ नाम सुना था कि कोई बाबा है गन्दा आश्रम है उसके बारे में कोई जिज्ञासा और बात नही करनी होती ।मुझे याद नही किस ने मुझे एक कैसेट दी थी ओशो के एक लेक्चर की ।तब 
मैं 30 वर्ष की आयु में  थी तब वह  कैसेट सुनी थी जिस में स्त्री के बारे में थी । कि स्त्री आखिर है क्या ।उस कैसेट के बाकी कंटेंट तो याद नही बस  एक बात जो मैने सीखी और अपनाई वह यह थी कि स्त्री का सबसे खूबसूरत रूप उसका मां हो जाना है वह किसी की भी मां बन सकती है ।स्त्री तब पूर्ण स्त्री है जब कोई कामातुर पुरुष आप के पास आ जाये और आपके सामने आते ही उसकी वासना की ऊर्जा बदल जाये वह आपके  पास आते ही पुत्र हो जाये और आपकी गोद मे सर छुपा कर माँ की सुरक्षित गोद की गर्मी को महसूस करे ।वह नतमस्तक हो जाये घुटनो के बल बैठ कर वह बालक हो जाये ।आपका पति भी आपका बालक हो जाये वह मां की ऊर्जा को महसूस करे ।तभी स्त्री की सार्थकता है ।
मुझे यह बात बहुत असर हुआ कि मैंने सब की मां हो जाना स्वीकार किया ।कि मन मे कभी किसी के लिए यदि भाव बनने लगे तो भावों को मां बनने की ओर केंद्रित कर दो ।अनेक बार जीवन मे मैंने इस मां के रूप को जीवंत किया है बहुत से लोगो के लिए ।जब हम मां हो जाते है तो सिर्फ आपको मातृत्व प्रेम से भर जाना होता है ।हम सब गलतियां माफ करती रही जीवन भर ।माँ हो कर देखने भर से ही हम कितने लोगों के प्रति दया और प्रेम महसूस कर के उन्हें माफ करते है ।
सच में मेरे जीवन मे यह कारगर हुआ ।जब आप एक बेहद सुंदर और आकर्षक युवा महिला है तब ऐसे किसी भाव से या कहो तकनीक से लैस हो जाना एक वरदान होता है जो हमें बहुत से अनचाहे अनुभवों से बचा लेता है ।यह मां हो जाने की सोच एक बहुत बड़ा सुरक्षा कवच है जिसका इस्तेमाल मैंने बहुत किया ।यह कम योगदान नही है ओशो का मेरे जीवन में

सोमवार, 27 अप्रैल 2020

जिसे जरूरत का मेरी 
कभी कोई अंदाजा नही

उसी से दोस्ती करने का 
अब मेरा भी  इरादा नही 

रूह की तरंगे  नही  समझा 
ज़ुबान क्या खाक समझेगा 

जो आहो को नही समझा 
आंसू क्या खाक समझेगा 

जो फुर्सत में ही सुनेगा  मेरी 
उसे मैंने अब  क्यूं ही कहना है 

अकेली कोमल नदी हूँ मैं
मुझे चट्टानो में बहना है 

कहीं पर चोट खाना है 
कहीं पर मोड़ खाना है 

समुंदर तुम नही शायद 
जहां मुझ को मिल जाना है 

जब  जहां हवाऐं ले जाएं 
उसी दिशा मुझ को बहना है 

मेरी हर उम्मीद पर उसने 
करना हर रोज बहाना है 

गली है  गर संकरी तेरी 
मुझे क्यों उस मे जाना है 

मिलो जो गैर की तरह 
तो क्यूं मिलना मिलाना है 

शेष फिर 

सुनीता
न आंसू समझता है न खामोशी समझता है 
थक गए  मेरे शब्दो की न बेहोशी समझता है ।
 मेरी सपनीली आँखों की न मदहोशी समझता है 
समझता है कि मैं समझती हूं कि वो कुछ भी नही समझता है
इतनी बॉवली भी कोन्या 
सुनीता धारीवाल
सुरक्षा नामक 
सभी हथियारों का  
खूब पता है मुझे 
आजीवन सश्रम 
 सुरक्षा कारवास में 
मुझे नहीं रहना 

सुनीता धारीवाल जांगिड़
पैरो पे खड़े हो
शहतीर इक्कठा करो 
छत में हिस्सा 
पगली आसान नहीं है 

सुनीता धारीवाल जांगिड़
जिस्मो के बाज़ार में 
चीखने पर कौन रुकता है 
कौन ठहरता है 
सिसकियों के गीत पर 
बढ़ जाता है उन्माद 
आवाज तेज होते ही 

सुनीता धारीवाल जांगिड़

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

ओढ़ लिए हैं
बुर्के मैंने 
आँखों पर
ढक लिया है
दिल भी
छुपा लिया है
मन मतवाला
घूंघट में
वाह 
बढ़ गयी हैं
आसानिया
आह
बढ़ गयी हैं
 उदासियाँ 

सुनीता धारीवाल जांगिड

सोमवार, 20 अप्रैल 2020

बहुत किया 
बेहिसाब 
आ 
अब हिसाब करते है 
ए जिंदगी
बार बार 
नजर बचाई 
कभी झुकाई
कभी मिलायी 
फिर एक दिन 
नज़र लग गयी
और  
नज़र जाती रही
बहुत कुछ होता है 
एक औरत के पास 
धन सम्पति के
के  अतरिक्त भी
जिसे लूटने की फ़िराक में 
होता है जहान
जब 
वह अकेली होती है 
तब 
पात्र बन विश्वास का 
उकेरते है 
परत दर परत 
उसका सब 
तन मन धन 
अब 
वो खाली भी होती है 
अकेली भी
वो एकतरफी पक्की सड़क 
मैं कच्चा रास्ता 
सैंकड़ो पगडंडियों वाला 
उबड़ खाबड़ झाड़ झंखाड़
अस्त व्यस्त अभ्यस्त

प्रिय पतिदेव को समर्पित
तुम्हे क्या पता 
कितनी बार मरी वो 
मरने से पहले 
शर्म से 
उपहास से 
आत्मग्लानि से 
अवसाद से 
अनदेखी से 
जीने के लिए 
चाहिए ही क्या था उसे 
बस थोड़े से 
प्रेम 
विस्वास 
सरंक्षण 
और सम्मान के सिवाय
आँखे तुम्हारी@ बिछे हम जाते है

सोमवार, 13 अप्रैल 2020

बहुत मजबूत डोर से बंधा 
भाई मेरा 
भोगौलिक दूरी पर 
आज मुझे ताकता है 
और पा लेता है 
आती जाती ध्वनियों में 
तरंगो में 
और हम बात भी करते है 
बिना कुछ कहे सुने 
अति सूक्षम कुछ अहसास
 हम करते है 
बिना कलाई को छुए
 और बिना किसी धागे
और मनाते है साल दर साल 
यूँ ही खूबसूरत सा 
बिना औपचारिकता 
रक्षा बंधन 
जानती हूँ वो प्राण है 
मैं देह।। निसंदेह

बुधवार, 8 अप्रैल 2020

न मैं जमीन पर हूँ न आसमाँ पर हूँ 
प्यार है तुमसे और तुम्हारी जुबां पर हूँ
ए औरत 
तू बेल 
अंगूर की 
 माली का छद्म वेश धरे 
व्यापारी से बच 
निवेशक से बच 
वो सीचेंग 
धैर्य से 
एक दिन 
तेरा मर्दन कर 
मदिरा के लिए 
तू बच 
दूर निकल जा 
व्यापारी की 
पंहुच से दूर 
चिल्लाने दो 
खट्टे अंगूर हैं अंगूर खट्टे हैं 
सम्भालो 
फल  अपने 
व्यापार के लिए 
नही 
देव समर्पण के लिए हैं 
ऊंची उठो 
बहुत ऊंची
पँहुच से बाहर
हो जाओ 
और जियो 
अपनी स्वतंत्रता 
अपनी नियति
तुम वस्तु नही हो 
जीवन है तुम में 
जियो अपने मन से 
छद्म धूर्त साधु संत 
तुमको मिलते रहेंगे अनन्त 
बढ़ी चलो ..

मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

शक्ति हूँ मैं 
अवतरित होती हूँ 
जब बन आती है 
मेरी अस्मिता पर 
और तब 
पूजने लगते हो तुम

सोमवार, 6 अप्रैल 2020

कोई तो ऐसा लम्हा हो 
जिसको दोहराना चाहूँ मैं 

कोई रूठे तो सच में मुझसे 
जिसको मनाना चाहूँ मैं 

हूँ राम रची में मैं राजी 
पाया सब अपनाना चाहूँ मैं
वो कहाँ कब मेरी ओर झुका
मैं  लिखा समझ कर झुकी रही 

इतना अनजान कहाँ है तू 
यह मान के मैं तो छुपी रही 

जा कर ले जो तूने करना है 
इस जन्म का यहीं भरना है

तू दाता है जो मर्जी दे 
बस थोड़ी सी खुदगर्जी दे 

कुछ कागज़ मेरे फिर से लिख दे 
न फेर नज़र ये अर्जी ले 
 
कुछ तो  रहता  है थोडा ही सही 
आखिरी  बार मुझे मन मर्जी दे 

सुनीता धारीवाल

रविवार, 5 अप्रैल 2020

ऐ साहिब.....!!
तुम्हीं तो हो मेरे यकीन 
बस तुमसे ही  करूँ मैं मेरी शिकायते 

ए साहिब 
तुम ही तो हो 
मेरी भोर अलसाई सी 
तुम पर बिछ जाऊँ
 मैं ओस बन के 
ए साहिब 
तुम ही तो हो 
सुबह का सूरज 
तुम्हे ही दूँ मन अर्घ्य मेरा
ए साहिब तुम ही तो हो 
..

शनिवार, 4 अप्रैल 2020

लोक संगीत

लोक संगीत जीवन का उत्सव है उन में छंद हैं ताल है जीवन थिरकता है उस मे ।साहित्य भी है उसकी रचनाओं में  और रचनाकार अपनी रचना समाज को अर्पित कर देता है वह  गीत सभी का हो जाता है समाज का हो जाता है वह रचना सभी की सांझी हो जाती है रचयिता गुमनाम रहता है ।
यह लोक समर्पण है और सब  लोक रंग बहुत रंगीले हैं ।जब जब कुछ भी रचा गया वह  उस देश काल के समाज का हस्ताक्षर है वही साहित्य  आईना भी  है समाज का ।समाज की मान्यताओं का समाज के व्यवहार का समाज के रंजन का अद्भुत प्रकल्प है ।लोक संगीत माटी की खुशबू से सना रूह का आनन्द है इसकी स्वर लहरियां , समूह में गाते बोल , ताल पर थिरकते कदमो की धमक आध्यात्मिक कीर्तन का स्वरूप हैं जहां भागीदार भी आनन्द से विभूत होता है और देखने सुनने  वाले का मन भी नर्तन करता है ।
आनंद की हिलोर से सहज ही निकले बोल  भाव सहज ही पद ताल , एड़ी का बजना दुनियावी भौतिक आनन्द से ऊपर का  अनुभव है 

कुछ माह पहले की बात है हम एक सांस्कृतिक कार्यक्रम की रिहर्सल कर रहे थे जिस में पहले फिल्मी गीतों को गाया गया फिर लोक संगीत की बारी आई तो मैं अनायास ही झूमने लगी लोक संगीत भी हरियाणा ही का था जो भी मेरी रूह ने प्रतिक्रिया दी वह प्रकृतिक ही थी। मेरा फिल्मी गायन के प्रति उदासीन रहना  फिल्मी गायन वालो को थोड़ा नागवार गुजर गया और मुझ पर तंज कसा गया  कि मैडम  आप तो सिर्फ हरियाणवी की ही प्रसंशा कर सकते हो क्योंकि आपने सुना ही वही है और आपको ज्ञान ही बस उतना है यही आपकी सच्चाई है ।अवहेलना किसे अच्छी लगेगी ।उन्हें मेरा रुचि न लेना अवहेलना ही लगा तो उक्त कलाकार ने क्षोभ और  आवेग में कह दिया मुझें हरियाणवी के सिवाय कुछ नही आता ।एक दिन उस वाकये को याद कर के  यकायक मेरे मन ने सोचा कि क्या सच मे मुझे सिर्फ और सर्फ  हरियाणवी ही समझ आता है और मुझे इतना ही पता है ।मैंने स्वयं में उत्तर खोजा कि मुझे तो अभी हरियाणवी भी अच्छी तरह नही सुनना आता।मैंने कभी गौर से कंठस्थ करलेने की हद तक रूह में उतारा ही नही  ।
मुझे अब जानना था गहराई से  कि क्या चमोला, बहरे तबील, काफिया, अली बख्श चमोला, सोहणी, कड़ा, मंगलाचरण, चौपाई, शिव स्तुति, गंगा स्तुति, गुग्गा स्तुति शब्द, ख्याल, लामणी, हाथरसी चमोला, आल्ला, सोरठा, निहालदे, झूलणा, ढोला, ढोली, उल्टबांसी, पटका, बारामासा, नौ दो ग्यारह, त्रिअक्षरी, दौड़, रागनी, राधेश्याम, साक्खी, छोटा देश, साका, नशीरा, देव स्तुति, दोहा, बारहमासे गीत ,संस्कार गीत , ऋतुओं के गीत ,उत्सवों के गीत ,लोक नाट्य के गीत ,उनके राग उनकी उतपति उनका प्रभाव उनका साहित्य दर्शन अभी तक गहराई से कहाँ सुना मैंने ।जब मैने ही नही सुना तो मैं अगली पीढ़ी को क्या दे जाउंगी।क्या समझ दे सकूँगी ।किसी भी बात का भान होने में और  उसका ज्ञान होने में  अंतर होता है ऐसे ज्ञान होने में दक्षता हासिल करने में अंतर होता है और दक्षता हासिल होने पर उस विधा का  सेवक होने में अंतर होता है । अनेक बार हमें भान तो होता है पर ज्ञान नही ।और ज्ञान की तो बस पिपासा होनी चाहिए माँ सरस्वती हाथ पकड़ ही लेती है ।

सुनीता धारीवाल

सोमवार, 30 मार्च 2020

एक था वो 
जो आज नहीं रहा 
जिसे मैंने 
मुझ को 
चाहने की इज़ाज़त 
कभी नहीं दी  
चला गया
 अगले जन्म 
भी इंतज़ार करेगा 
ये वादा कर 
और मैं हूँ 
हतप्रभ 
सफ़ेद 
जिसे देख 
आँखे गुस्से से लाल 
हुआ करती थी 
आज भीग कर 
लाल हुई जाती है 
भीतर है 
जाने कैसी 
छटपटाहट
जो रिश्ते 
कभी बनाना 
नहीं चाहे 
पूछ रही हूँ 
खुद से 
क्या 
सच में 
नहीं बना था 
कोई रिश्ता
वहां सुकून का झोंका
 बड़ा अच्छा था
चाहे घर मेरा वहां 
अभी तक कच्चा था
मेरे अपनो ने जो
 घोंपा था छुरा वो भी सच्चा था
तूफानों से जूझने का 
मेरा हुनर भी तो अभी बच्चा था
आज भी है उस शहर से 
है मेरा करीबी नाता
जहां मैंने जाना
 रिश्तों को बनाना
हर हाल निभाना
जहां मैंने जाना 
मेरी ताकत क्या है
अकेली औरत को रहने 
में है आफत क्या 
नारी हठ से जो मिलती है 
वो है ताकत क्या
ताज़ी रचना गौर फरमाइए जरा 

खुद पे एतबार कर बैठी 
मैं उन से प्यार कर बैठी 

लगा था पाउंगी  मन चाहा 
ये किस की चाह कर बैठी 

दो ही बहुत थी आँखे तो 
क्यों आँखे चार कर बैठी 

दिल ही तो था मजबूत मेरा 
उसे ही  बीमार कर बैठी 

कह दी उसे कुछ  बाते ऐसी 
उसका जीना दुश्वार कर बैठी 

उसी को जीतने की खातिर 
मैं अपनी हार कर बैठी 

वो राही डगर दूसरी का 
हाय किसका इंतज़ार कर बैठी 

वो गया ही कहाँ है जो लौटेगा 
 दिल उसका घरबार कर बैठी 

रस्मो रिवाज समाज की सरंक्षक मैं 
उसी रस्म ए दुनिया को ललकार बैठी 

इस  बार इस साहस से भी 
हाथ दो चार कर बैठी 

न मंजिल वो न मंजिल मैं
 उस को ही हमराह कर बैठी 

वो भी तो टूटने  लगा है 
ये कैसा वार कर बैठी 

वो अलग बाग़ का है माली 
क्यों उसे अपना पहरेदार कर  बैठी 

सुनीता धारीवाल

सोमवार, 23 मार्च 2020

धत तेरेकी 
ओ कान्हा इस होली
मैं तेरी फिर से हो ली
तेरी मेरी तकरार 
जो होनी थी सो हो ली
फैंकी थी जो तूने कीचड़ 
मुझ पर सालों साल 
ओ माँ के लाल
देख इधर मेरी अंगिया
 मैंने फिर धो ली
फिर से डाल  सबरंग 
या चाहे उड़ेल फिर कीचड़
 पागल मैं दीवानी तेरी 
  इस होली फिर से हो ली
धत तेरे की
यूँ ही लिखा 

ज़रा मेरा  हिसाब तो रखना 
इकतरफे  इश्क़ की किताब में रखना 

कितनी रातें जागी मैं 
फिर भी रही अभागी मैं

कितने ही दिन तड़पी मैं 
कितनी बार तुमसे झड़पी मैं

कितना मर मर जिन्दा मैं 
घायल एक परिंदा मैं 

कितना तुम को चाहा है 
फिर भी  कौन सा पाया है 

कितने दिन में उदास रही 
फिर भी पाने की आस रही 

कितने पल तेरा नाम लिया 
 इक पल भी  दिल ने न  आराम किया 

हर घड़ी आँखे दरवाजे पर 
घट घट तेरा इंतज़ार किया 

झर झर बहते जज्बात मेरे 
हर बूँद से मैंने इजहार किया 

कब  ऊँच नीच जानी मैंने   
बस तुमसे मैंने है  प्यार किया 

राह मेरी भी आसान कहाँ थी 
हर बाधा को मैंने पार किया 

साहस है मेरा मैं कहती रही 
तुमने न कोई इजहार किया 

ये तो मैं हूँ  बिन मदिरा बौराई सी
तुम ने था कब कोई जाम दिया 

हर बार कही मैंने ही कही 
तुमने न कोई पैगाम दिया 

तुम आसानी से  खाली रह लेते हो 
मैंने तो है दिल को सब काम दिया 

हिसाब किताब मुझे कब आया कभी 
मैंने हर खाता तेरे नाम किया

सुनीता धारीवाल
क्यूँ शब्दों पर आ जाते हो 
कुछ आँखों ने भी तो कही होगी 
अपने  दुःख में हिस्सेदार बना 
मेरी तो  ख़ुशी यही होगी
तुम भीड़ में निपट अकेले हो 
यह बात भी  तुम ने  कही होगी 
माना की मुख न खोला तुमने 
बिन कहे मैंने ही सुनी होगी
वो बरगद सा खड़ा रहा
 मैं  कुसुम लता सी लिपट गई 
वो बारह मासा वही रहा 
मैं इक पतझड़ में निपट गई

सुनीता धारीवाल

रविवार, 22 मार्च 2020

बदरी बाबुल के अंगना जइयो
जइयो बरसियो कहियो
कहियो कि हम हैं तोरी बिटिया की अँखियाँ

बदरी बाबुल के अंगना जइयो . . .
मरुथल की हिरणी है गई सारी उमरिया
कांटे बिंधी है मोरे मन कि मछरिया
बिजुरी मैया के अंगना जइयो
जइयो तड़पियो कहियो
कहियो कि हम हैं तोरी बिटिया कि सखियाँ

बदरी बाबुल के अंगना जइयो . . .
अब के बरस राखी भेज न पाई
सूनी रहेगी मोरे वीर की कलाई
पुरवा भईया के अंगना जइयो
छू-छू कलाई कहियो

कहियो कि हम हैं तोरी बहना की राखियाँ 

कुँवर बेचैन जी की कविता

शनिवार, 21 मार्च 2020

रंगो से रंगे है गली नुक्कड़ बाज़ार 
अबीर गुलाल लाल पीले नीले हरे 
ढेरो खुशबूओं वाले रंगीन पानी 
खाली भरी पिचकारी 
सब देखा आँखों से 
छू कर भी देखा 
कैद किया आँखों में 
जो भी रंग और मेले है 
चन्द लम्हों में धूल गए 
जब याद तुम्हारी आई 
वो नन्ही सी पिचकारी 
जो मैंने ले कर दी थी  
जब तुम्हे पकड़नी भी नहीं आती थी 
चलाना तो दूर की बात थी 
और ठिठक कर घुल गए सभी रंग 
मेरे गाल पर टपकी दो बूंदों में 
और हंस दी मैं अपने आप 
जब पीछे से पुकारा था तुमने 
रंग लगवा लो प्लीज माँ

शनिवार, 14 मार्च 2020

आज तक हरे थे 
अभी कहाँ भरे थे 

पावँ के छाले 
सब देखे भाले 
खूब संभाले 

मैं अंग अंग रिसीे थी ।
कुचली थी और पिसी थी 

मरहम से लगे तुम 
सो लगा लिया 
बिन सोचे  समझे 

आज मरहम हटाई है 
तल में दर्द दुहाई है 

जो गहरे थे कहाँ भरे है 
जख्म तो अपने  हरे भरे है 

बाकि फिर कभी
@sd

रविवार, 8 मार्च 2020

पागलपन वाला प्यार 
वो तो मुझे हुआ था 
उस ने तो बस 
छुआ था मुझे 
मेरे आग्रह करने पर 
उसके पैरों में जंजीरे थी 
और मैं 
उड़ना चाहती थी 
उसका हाथ पकड़ कर 
सात आसमानों में 
जो हो नही सकता था 
उसे जंजीरों से प्यार था 
और मुझे उस से 
वह वहीं रहा 
मैं आगे बढ़ गई 
थोड़ी सी वहीं रह गई 
उसी के पास 
बाकी जो थी 
वह चल दी थी 
भीड़ के पीछे 
कहीं भी नही जाने को
बस चल रही थी 
रेंगते हुए 
उड़ने का ख्याल भी 
पांव के छालों में 
घुल कर पीड़ा देता है 
अब नही होता 
उड़ना चलना और रेंगना 
अब तो बस बैठ गई हूं 
सड़क  के एक किनारे 
सड़क चल रही है 
मैं नही
तालुक्क् है आजकल मेरा जिस यार से 
कम ही देखता है मुझे प्यार से

रोके से मेरे भी रुकता नहीं 
निकले है बाहर मेरे इख़्तियार से

डरता है बढ़ जाएँ न  मुश्किलें कही
एतबार नहीं करता किसी ऐतबार पे  

टूट कर चाहेगा जब एतबार कर लेगा 
अभी तो शक है उसे मेरे करार पे

पाले है वो तूफान  हकीकतों के साथ 
आये न उसका मन किसी खुशगवार पे

कितना आदी है वो जमीं पे चलने का 
वो रखता नहीं नज़र किसी भी सवार पे

चन्द रोज बस चलना था संग मुझे 
करता नहीं वो साँझ अस्थाई खुमार से

फूंक फूंक रखे है हर कदम अपना 
अक्ल ज्यादा रखे है मुझ समझदार से

क्या जानू मैं उसके दिल की बात 
रखे है दूर खुद को मेरे बुखार से

सुनीता धारीवाल 

नए मिजाज की है यह पुरानी कविता

शनिवार, 29 फ़रवरी 2020

थोड़ा सा माहौल बनाना होता है,
वर्ना किस के साथ ज़माना होता है!

सच्चा शेर सुनाने वाले ख़त्म हुए,
अब तो ख़ाली खेल दिखाना होता है
            

ऐसी कोई बात नहीं मायूसी की,
सच में थोड़ा सा अफ़्साना होता है!

  सब की अपनी एक इकाई होती है,
 सब का अपना एक ज़माना होता है

दुनिया में भरमार है नकली लोगों की
सौ में कोई एक दीवाना होता है

रात हमारे घर जल्दी आ जाया कर
हमें सवेरे काम पे जाना होता है

आज बिछड़ते वक़्त मुझे मालूम हुआ
लोगों में अहसास का खाना होता है

लाल किले की दीवारों पर लिखवादो 
दिल सबसे महफूज़ ठिकाना होता है

अच्छे लोगों पर ही उँगली उठती है
सच की किस्मत में अफसाना होता है

आंसू पहली शर्त है इस समझौते की
गम तो साँसों का जुर्माना होता है

इश्क में सब खुश होकर सूली चढ़तें हैं
सारा ज़ब्र रज़ाकराना होता है

ज़ब्र----दमन
रज़ाकराना--स्वेच्छा से

Shakeel Jamali
तहे  जोड़ी है उम्र भर भावनाओ के लिबासो की 
करीने से रखा था मन की अलमारी में 
आज एक तह क्या खिसकाई 
कि हर तह फिसल आ  गिरी आभासों की 
खुल गई तहे  सब ढेर लग गया कदमो में 
इतना झुकि उठाने को कि उठ नहीं पाई
कुछ  तहे बोली कुछ  कह भी न पाई 
कुछ ने आँख मिलाई कुछ ने आँख चुराई 
कुछ तह मुस्काई कुछ थी एकदम  पथराई 
कुछ तहें आज भी   मेरी समझ नहीं आई 
कुछ सलवटे कभी नहीं निकली 
तहों बीचउनकी  मुंह चिढाती किकली 
हर बार तहे बदलती हूँ कि संभली रहे 
 निशान न पड़ें ,कीड़े न लगे , उमस में न गले 
आज सुबह सुबह सब लिबास रख दिए बाहर 
कि अब नहीं तहे लगाउगी न सलवटे गिनुंगी 
खाली कर दूंगी सब अलमारिया मन की 
कुछ नया सिलवाऊँगी पहनूंगी भूल जाउंगी 
दिल से नहीं लगाऊँगी कभी न तहे जमाऊँगी

सुनीता धारीवाल जांगिड

रविवार, 23 फ़रवरी 2020

अपना ही घर कोई जलाता है क्या 
अपनी ही मौत कोई बुलाता है क्या 
ये बवाल ये बवंडर ये  धुँआ ये  राख
 है सब क्षितिज की ओर 
बरसेगा अब निवेश तेजाब सा 
उगेगी फसल भाईचारे की कसैली सी 
लिखूंगी मैं भी कुछ यादें मटमैली सी

शनिवार, 22 फ़रवरी 2020

मैं नदी हूँ मेरा बहना जरुरी है 
मेरा सब कुछ कहना जरुरी है 

बांध थे गिर्द  तो सूखने लगी थी 
बहती ही रहूँ कि भरना जरूरी है 

तपता सूरज  सुनसान जमीं 
भरे बादल सा तेरा मंडराना जरुरी है 

मैं हाथ खोल जब आस करूँ 
तेरा जम के बरस जाना जरूरी है
Sd

बुधवार, 12 फ़रवरी 2020

हम भारत की नारी है
हम दुर्गा शेर सवारी है 
हम शक्ति हम सरस्वती 
हम सारे जग से न्यारी है  
हम पार्वती बन लास्य रमी
हम पुरस्कार अधिकारी है 
हम सेना में  रणचंडी है 
हम हर दुश्मन पे भारी है 
हम ताकत है हम जननी है 
हम से ये सृस्टि सारी है 
हम ऊंचे आकाश में भ्रमण करें 
हम मंगलयान  सवारी है 
हम देवी पीड़ा हरणी है 
हम हाथ तिरंगा धरणी है 
हम ताकत है हिंदुस्तान की 
हर हर महादेव ललकारी है 
हम भारत की सबला नारी है 
हम शक्ति रूप विस्तारी है
(हम काली मां रौद्र रूप धरती )
हम रौद्र रूप काली माई 
हम  पापियों की संहारी है 
हम वंदन करें भारत माँ का 
यह जन्मभूमि हमारी है 
हम भारत की नारी है
 हम भारत की नारी है 
सुनीता धरिवाल
हम यदि जन्म ले पाएंगी
तब ही रौनक बन पाएंगी 
ओ बाबुल तेरे  आंगन में 
हम नाचेंगी और गाएंगी 
 
गाती है हम गुनगुनाती है 
  खेतो में और  खलिहानों मे
पर्वत पर और  मैदानों में 
हम भी कलरव रच जाएंगी 
हम यदि जन्म ले पाएंगी 

हम ही तो है जो गाती है 
गोदी में ले कर  लोरीयाँ
हम वत्सल नाद सुनाती है 
हम ही तुम्हे सुलाती है 
माँ बन कर सृष्टि चलाएंगी
हम यदि जन्म ले पाएंगी 

हम ही तो हैं जो गाती है 
जच्चा और सोहर की कलियां 
हम बन्ना बन्नी गा गा कर 
हर देहरी रंग जमाती है 
रुदाली के भी वचन भरेंगी 
हम यदि जन्म ले पाएंगी

हम ही तो है जो गाती है 
 मंदिर मंदिर भजन आरती 
घर मे भी नाद बजाती है 
गुरुद्वारे में पाठ करेगीं 
हम भवसागर तर जाएंगी 
हम यदि जन्म ले पाएंगी 

हम ही तो है जो पीड़ा में भी 
गाना कहाँ छोड़ती है 
हम तड़पी  बिरहा गीतों में 
हम दुख को सदा मोड़ती है 
हम प्रेम श्रंगार सब गाएंगी 
हम यदि जन्म ले पाएंगी 

न हिंसा हो न उत्पीड़न हो 
न हत्या हो न तेजाब डले 
न हो  जोर जबरदस्ती हम से 
न खरीदी बेची जाएंगी 
हम दुनिया की बुरी नजर से 
जब बच कर रह पाएंगी 
हम तब ही तेरे आंगन में 
चिडीया सी चहकती पाएंगी 
हम गाएंगी गुनगुनाएँगी 
हम जग की रौनक बन जाएंगी 
हम यदि जन्म ले पाएंगी 

सुनीता धारीवाल

सोमवार, 10 फ़रवरी 2020

कितनी बार फिसले

 मुट्ठी से मेरी  रेत की तरह

 लम्हे जो बहुत अजीज थे 

रिश्ते जो बहुत करीब थे 

भला कहाँ खरीद पाए  सब 

हम भी कितने गरीब थे 

डूबे नहीं वो कभी मेरे  संग 

जितने  भी मेरे हबीब थे 

कितनी ही बार फिसले 
मेरी आँख से 

अनकहे शब्द मेरे 

जो कह दिए जाने  के करीब थे 

शेष फिर 
सुनीता धारीवाल

रविवार, 2 फ़रवरी 2020

हाथों हाथ पढ़ ही डालिेये  ये पोस्ट पोस्ट 

कोई हाथ मल रहा है 
कोई हाथ दिखा रहा है 
कोई हाथ कटवा रहा है 
कोई हाथ  जोड़ रहा है 
कोई हाथ तोड़ रहा है 
कोई हाथ हिला रहा है 
कोई हाथ मिला रहा है 
कोई हाथ मांग रहा है 
कोई हाथ  मांज रहा है 
 कोई हाथ  मार रहा है 
कोई हाथ सेंक रहा है 
कोई हाथ फेर रहा है 
कोई हाथ पकड़ रहा हैं 
कोई हाथ हटा रहा है 
कोई हाथ जला रहा है 
कोई  किसी का  हाथ देख  रहा है
किसी के हाथ कुछ लग नहीं रहा 
किसी के हाथ बहुत कुछ लग गया 
किसी के  हाथ में कुछ नहीं रहा 
किसी के हाथ में बहुत कुछ आ गया 
किसी के हाथ में रेखा नहीं नहीं 
किसी के हाथ छिल गए 
कोई बस हाथ की खा रहा है 
आप भी जोड़ दीजिए बाकी -----
मुझे पता है आपके हाथ कहाँ निचले रहने वाले है आप भी  हाथ आजमाओगे ज़रूर 

देखा कितनी  तरह से हिंदी भाषा में हाथ शब्द का उपयोग  करते है
दीवारे खाली है 
उनकी जो चले गए ।
अब कोई नहीं झांकता 
उन profile में 
जो कभी रौनक बन के
 हंसती गुनगुनाती रहती थी 
क्या खाया क्या पीया 
कया पाया क्या खोया 
सब कुछ तो साँझा करते थे 
अब नहीं हैं वो

मंगलवार, 28 जनवरी 2020

जब मैं खुद के पास होती हूँ  
तब  मैं बहुत उदास होती हूँ 

तब शब्द घुमड़ने लगते है 
अक्षर भी उड़ने लगते है 

मन कागज़ होने लगता है
दिमाग की कलम सरकती है

दिल की हर परत दरकती है
 और कविता होने  लगती है

फिर बेबस  सी हो जाती हूं
और कलम उठाने भगती हूँ 

कागज़ फिर रंगने लगती  हूँ 
 ये उदासी  भंगने लगती हूँ 

फिर शब्द जो आने लगते है 
कितने जाने  पहचाने लगते है 

खींचती जाती हूँ विषम लकीरें सी 
 सबके मतलब  बनते जाते है

अभी लिख रही हु शेष भी शीघ्र ---sd

शुक्रवार, 17 जनवरी 2020

 ऐसा नही कि हमको मोह्हबत नही मिली 
पर जैसी चाहते थे वैसी नही मिली 
जो भी मिला जिंदगी में बहुत देर से मिला 
जब जब जरूरतें थी तब तब नही मिला 
 तुम क्या मिले मुझे मिल कर मिले नही 
बस जीते मरते जीते जाना पर  जीना नही मिला

गजल

तुम्हें उस से मोहब्बत है तो हिम्मत क्यूँ नहीं करते 
किसी दिन उस के दर पे रक़्स-ए-वहशत क्यूँ नहीं करते 

इलाज अपना कराते फिर रहे हो जाने किस किस से 
मोहब्बत कर के देखो ना मोहब्बत क्यूँ नहीं करते 

तुम्हारे दिल पे अपना नाम लिक्खा हम ने देखा है 
हमारी चीज़ फिर हम को इनायत क्यूँ नहीं करते 

मिरी दिल की तबाही की शिकायत पर कहा उस ने 
तुम अपने घर की चीज़ों की हिफ़ाज़त क्यूँ नहीं करते 

बदन बैठा है कब से कासा-ए-उम्मीद की सूरत 
सो दे कर वस्ल की ख़ैरात रुख़्सत क्यूँ नहीं करते 

क़यामत देखने के शौक़ में हम मर मिटे तुम पर 
क़यामत करने वालो अब क़यामत क्यूँ नहीं करते 

मैं अपने साथ जज़्बों की जमाअत ले के आया हूँ 
जब इतने मुक़तदी हैं तो इमामत क्यूँ नहीं करते 

तुम अपने होंठ आईने में देखो और फिर सोचो 
कि हम सिर्फ़ एक बोसे पर क़नाअ'त क्यूँ नहीं करते 

बहुत नाराज़ है वो और उसे हम से शिकायत है 
कि इस नाराज़गी की भी शिकायत क्यूँ नहीं करते 

कभी अल्लाह-मियाँ पूछेंगे तब उन को बताएँगे 
किसी को क्यूँ बताएँ हम इबादत क्यूँ नहीं करते 

मुरत्तब कर लिया है कुल्लियात-ए-ज़ख़्म अगर अपना 
तो फिर 'एहसास-जी' इस की इशाअ'त क्यूँ नहीं करते 

फ़रहत एहसास
पागलपन वाला प्यार 
वो तो मुझे हुआ था 
उस ने तो बस 
छुआ था मुझे 
मेरे आग्रह करने पर 
उसके पैरों में जंजीरे थी 
और मैं 
उड़ना चाहती थी 
उसका हाथ पकड़ कर 
सात आसमानों में 
जो हो नही सकता था 
उसे जंजीरों से प्यार था 
और मुझे उस से 
वह वहीं रहा 
मैं आगे बढ़ गई 
थोड़ी सी वहीं रह गई 
उसी के पास 
बाकी जो थी 
वह चल दी थी 
भीड़ के पीछे 
कहीं भी नही जाने को
बस चल रही थी 
रेंगते हुए 
उड़ने का ख्याल भी 
पांव के छालों में 
घुल कर पीड़ा देता है 
अब नही होता 
उड़ना चलना और रेंगना 
अब तो बस बैठ गई हूं 
सड़क  के एक किनारे 
सड़क चल रही है 
मैं नही
आज ही के दिन पिछले वर्ष भी भावुक सी थी अपसेट सी थी आज ही के दिन आज भी हूँ बिना कारण 

पिछले साल लिखा था यह 

एक बड़ा सा काला शून्य ------

 इस माटी देहात्मा में
मिल गऐ है कितने ही
पश्चाताप के
आत्मग्लानि के
मोक विकार के 
स्वधिक्कार के
असीम असुरक्षा के
कितने ही अवयव
घुल गए हैं मेरे
निरन्तर बहते
खारे आंसुओं से 
बना लिया है दलदल
इस घुलमिल मित्रता में
जहां मेरे प्राण फंसे है
अनचाहे से देहात्मा से कसे है
जितना भी निकलना चाहूं 
उतना गहरे और धंसे है
नहीं पार करती कोइ भी रौशनी
यह जीवन का अन्धेरा दलदल
किसी अध्यात्म की भी आंच 
नही सुखा पा रही यह गहराई
बस प्राण संकट में छटपटाते से है
बस प्राणो का ही तो संकट है
सब कुछ तो है जीवन में
और जीवन ही सब कुछ है
फिर कंयू कहीं दूर 
एक बड़ा सा काला शून्य 
मुझे  अपने पास बार बार बुलाता है
और मैं आकर्षित हो
 रोज उस ओर बढती हूं
पर  छिटपुट रौशनियां 
 गाहे बगाहे मेरा 
रास्ता रोक लेती है 
उजालों से जंग लड़ रही हूं
उस शून्य की ओर जाने के लिए
जिससे मुझे हो गया है प्रेम 
समा जाना है मुझको तेजी से धूमते शून्य में
निकलना है मुझे असिमित अन्नत यात्रा में 
जहां मिलेगें मुझे 
 मुझसे बिछड़े मेरे टकड़े
और उन संग मैं  भी काले शून्य 
में बिखर जाऊंगी कण कण हर क्षण क्षण 
सदा के लिऐ सदा के लिऐ काला शून्य
by suneeta dhariwal
मैं घटा थी 
भरी थी जल से 
बरसने को आतुर 
किसी प्यास पर 
आह: मुक़्क़द्दर 
समुंदर पर बरस बैठी 
धीरे धीरे खारी हो रही हूं 
बस कुछ बूंदे 
कहीं बीच रुकी है 
शायद कोई लम्हा 
समुंदर की सीप 
अपना ले मुझ को 
गले अपने लगा ले मुझको 
और मैं शायद मोती बन जाऊं 
समुंदर की गिनी जाऊं