शुक्रवार, 17 जनवरी 2020

आज ही के दिन पिछले वर्ष भी भावुक सी थी अपसेट सी थी आज ही के दिन आज भी हूँ बिना कारण 

पिछले साल लिखा था यह 

एक बड़ा सा काला शून्य ------

 इस माटी देहात्मा में
मिल गऐ है कितने ही
पश्चाताप के
आत्मग्लानि के
मोक विकार के 
स्वधिक्कार के
असीम असुरक्षा के
कितने ही अवयव
घुल गए हैं मेरे
निरन्तर बहते
खारे आंसुओं से 
बना लिया है दलदल
इस घुलमिल मित्रता में
जहां मेरे प्राण फंसे है
अनचाहे से देहात्मा से कसे है
जितना भी निकलना चाहूं 
उतना गहरे और धंसे है
नहीं पार करती कोइ भी रौशनी
यह जीवन का अन्धेरा दलदल
किसी अध्यात्म की भी आंच 
नही सुखा पा रही यह गहराई
बस प्राण संकट में छटपटाते से है
बस प्राणो का ही तो संकट है
सब कुछ तो है जीवन में
और जीवन ही सब कुछ है
फिर कंयू कहीं दूर 
एक बड़ा सा काला शून्य 
मुझे  अपने पास बार बार बुलाता है
और मैं आकर्षित हो
 रोज उस ओर बढती हूं
पर  छिटपुट रौशनियां 
 गाहे बगाहे मेरा 
रास्ता रोक लेती है 
उजालों से जंग लड़ रही हूं
उस शून्य की ओर जाने के लिए
जिससे मुझे हो गया है प्रेम 
समा जाना है मुझको तेजी से धूमते शून्य में
निकलना है मुझे असिमित अन्नत यात्रा में 
जहां मिलेगें मुझे 
 मुझसे बिछड़े मेरे टकड़े
और उन संग मैं  भी काले शून्य 
में बिखर जाऊंगी कण कण हर क्षण क्षण 
सदा के लिऐ सदा के लिऐ काला शून्य
by suneeta dhariwal

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