शनिवार, 8 जुलाई 2017

*बुल्ला कि जाणां मैं कौन....?*

ना मैं मोमिन विच मसीताँ-1
ना मैं विच कुफ्र दियां रीताँ-2
ना मैं पाकां विच पलीताँ-3
ना मैं अन्दर वेद किताबाँ-4
ना मैं रहदाँ भंग शराबाँ-5
ना मैं रिंदाँ मस्त खराबाँ-6
ना मैं शादी ना ग़मनाकी-7
ना मैं विच पलीति पाकी-8
ना मैं आबी ना मैं खाकी-9
ना मैं आतिश ना मैं पौण-10

1- ना मेरी मस्जिद में आस्था है।
2- ना व्यर्थ की पूजा पद्धतियों में।
3- ना मैं शुद्ध हूँ ना मैं अशुद्ध।
4- मैं नहीं वेदों और धर्मग्रंथों में हूं।
5- ना ही मुझे भांग या शराब की लत है।
6- ना ही शराब सा मतवालापन।
7- ना तुम मुझे पूर्णतः स्वच्छ मानो।
8- ना ही गंदगी से भरा हुआ।
9- ना जल, ना थल
10- ना अग्नि, ना वायु

*बुल्ला कि जाणां मैं कौन.....?*

ना मैं अरबी ना लहोरी-1
ना मैं हिन्दी शहर नगौरी-2
ना हिन्दु ना तुर्क पेशावरी-3
ना मैं भेद मज़हब दा पाया-4
ना मैं आदम हव्वा जाया-5
ना मैं अपणा नाम कराया-6
आव्वल आखिर आप नूँ जाणां-7
ना कोइ दूजा होर पहचाणां-8
मैं थों होर न कोई सियाणा-9
बुल्ला शाह खडा है कौण-10

1- ना मैं अरब का हूँ, ना लाहौर का।
2- ना नगौर मेरा शहर है, ना मैं हिंदभाषी हूं।
3- ना तो मैं हिंदू हूँ, ना पेशावरी तुर्क।
4- ना मुझे धर्मों का ज्ञान है।
5- ना मैं दावा करता हूँ कि मैं आदम और हव्वा की संतान हूँ।
6- ये जो मेरा नाम है वो ले कर इस दुनिया में मैं नहीं आया।
7- मैं पहला था, मैं ही आखिरी हूँ।
8- ना मैंने किसी और को जाना है, ना मुझे ये जानने की जरूरत है।
9- गर अपने होने का सत्य पहचान लूँ....
10- तो फिर मुझ सा बुद्धिमान और कौन होगा....?

*बुल्ला कि जाणां मैं कौन.....?*

ना मैं मूसा न फरौन-1
ना मैं जागन ना विच सौण-2
ना मैं आतिश ना मैं पौण-3
ना मैं रहदां विच नादौण-4
ना मैं बैठां ना विच भौण-5
बुल्ला शाह खडा है कौण-6
बुल्ला कि जाणां मैं कौन

1- ना तो मैं मूसा हूँ और ना ही फराओ।
2- ना मैं जाग रहा हूं, ना ही निंद्रा में हूं।
3- ना तो मैं आग में हूं, ना ही हवा में।
4- ना मैं ठहरा हूं, ना ही लगातार चल रहा हूं।
5- मैं बुल्ले शाह आज तक अपने अक्स की तालाश में हूँ।
6- मैं नहीं जानता हूं मैं कौन हूं .....?

मेरे दोस्त प्रकाश के whatsapp message से

शुक्रवार, 7 जुलाई 2017

रेगिस्तान

काश तुम देख पाते
मेरे भीतर का रेगिस्तान
महसूस कर पाते
तपती रेत की आंच
कितना जलाती है
तन के साथ रूह भी
दावानल हो जाती है
फिर  कुछ नही बचता
स्याह राख के सिवाय
सुलगती है माटी मेरी
उकेरे जाने को तरसती
तेरे जल से बुझने को भटकती
बस स्याह हुई जाती है