बुधवार, 27 जुलाई 2016

वास्तु दोष




वास्तु दोष सी 
होती हैं वह औरतें 
जो विवाह रस्मो पश्चात 
दहेज के संदूक में 
रख लाती हैं 
चन्द किताबें 
चन्द सपने
अपनी पहचान का जूनून 
और कुछ तर्क 
ताउम्र वे घर  में   वास्तु दोष 
 होती  हैं  
जंजीरें उपाय 
नामुमकिन


सुनीता  धारीवाल 

रविवार, 24 जुलाई 2016

नारी कलम कायिवत्रि गोष्ठी का आयोजन संपन्न


















वीमेन  टीवी  इन्डिया वेब  पोर्टल की ओर  से  "नारी कलम" साहित्यिक मंच की दूसरी काव्य गोष्ठी का आयोजन दिनांक 23 जुलाई 2016 को सेक्टर चार पंचकूला में  किया  गया , इस कार्यक्रम में  कवित्रियां अपने कीमती समय से कुछ समय चुरा कर उत्साह से इस कार्यक्रम को  सफल बनाने पहँची। मंच संचालन का दायित्व शिखा श्याम राणा जी ने बाखूबी निभाया । काव्य गोष्ठी का आगाज़ नीलम त्रिखा जी ने अपनी सुरीली आवाज़ में कुछ इस तरह मौजूद कवित्रियों को मंत्रमुग्घ कर किया," मैं सबा कुछ छोड़ कर तेरी पनाह जो आ गई प्यारे,मुझे अबला समझने की कभी तुम भूल न करना।" कंचन जी ने अपनी कलम के माध्यम से वृक्षों की सुंदरता एवं उदारता के विषय में बताया वो कहती हैं," वृक्ष से सुंदर भला और क्या होगा,धरती के सीने पर मूक दर्शक खड़े ये वृक्ष, न किसी से शिकवा न शिकायत, बस निरंतर देने की प्रक्रिया में खड़े ।  कवियत्री सुनीता धारीवाल जी बेटीयों  को सचेत करने के उद्देश्य से कुछ यूं अपनी बात कहती दिखी," सपनों से सगाई ,मत करना बेटी, ये रिश्ता टूटेगा तो टूट जाओगी तुम भी ।" उन की क्षणिकाओं की सभी ने भूरी भूरी प्रसंन्ना की । सामाजिक एवं राजनैतिक कार्य से जुड़ी सीमा भारद्वाज जी सभी में प्रेरणा का संचार करते हुये अपनी बात कुछ यूं रखती हैं," जो बोलते हैं उन्हें बोलने दो,लक्ष्य जो सोचा है उसे ही पकड़े रहना, मुश्किलें तो हमेशा ही आती हैं, मंजिलें उन्हें ही मिल पाती हैं, जो हर घड़ी करते हैं सामना ।" डॉ शालिनी शर्मा जी एक दिन सिर्फ अपने लिए जीने की इच्छा व्यक्त करते हुये कह उठी," व्यतीत करना चाहती हूँ एक दिन खुद के लिए , जिसमें न जिम्मेदारियां का दायित्व हो, न कर्तव्यों का परायण।" अलग अलग काव्य रसों से सजी इस महफिल मौजूद में कंचन भल्ला जी ने अपनी मधुर  आवाज़ में एक गज़ल पेश की ।तो वही दूसरी ओर डाॅ उमा शर्मा  जी अपने देश के जन्नत बनने की ख्वाहिश रखती हुई कह उठती हैं," जन्नत बन जाये अपना वतन, मिलजुल कर करे कुछ ऐसा यत्न, कालेधन  का व्यापार न हो, रिश्वत का गर्म बाजार  न हो,  नीलाम न हो अस्मत का चलन ।" इस के बाद जागृति, डाॅ प्रतिभा  वर्मा  , शिवानी  जांगङा ने अपनी अपनी रचनाओं से समा बांध दिया ।इस साहित्यिक सफर को शिखा श्याम राणा ने औरतो  के मौन रह कर सब सहन करने के बर्ताव  पर रोष जताया और कुछ इस तरह अंजाम तक पहुंचाया।वो कहती हैं," हैरान हूँ मै, कि आखिर क्यूं,  सदियों से  मौन हैं , औरते?  नारी और धरती ने, जाने क्यूं , नियति बना रखी है अपनी, गहरे से गहरा दर्द सहना, और चुप रहना ।इस के बाद  सुनीता धारीवाल जी ने सभी कवित्रियों  का औपचारिक तौर पर सभी का धन्यवाद किया और भविष्य मे दोगुने उत्साह के साथ ऐसे कार्यक्रम  करने का नई प्रतिभाओं को सामने लाने का प्रण दोहराया ।
रिपोर्ट  लेखन -शिखा श्याम राणा 

गुरुवार, 21 जुलाई 2016

वेश्या नहीं कोई उपमा नई लाओ

हे दया शंकरो
तुम औरत को
वेश्या से ज्यादा
और कह भी क्या सकते हो
इससे इतर उपमाएं 
तुमने अभी सृजित नहीं की हैं
थोड़े और रचनात्मक हो जाओ
नया कोई शब्द लाओ
आजकल सभी जानते है
दलालो की नज़र
औरत को वेश्या बनाने
और
वेश्या को पहचान करने में
रत होती है
तुम्हे भी जान जाओ
इन उपमाओ से
औरतो को अब डर नहीं लगता
बल्कि अब वे दलालो को
पहचानने लगी हैं
और जानती हैं कि तुम्हे
कि औरत से मात खाते ही
कब किस घड़ी किस स्तिथि में
तुम उन्हें वेश्या घोषित करोगे
अब वे रोती चिल्लाती नहीं हैं
तुम्हारी दुनिया में कदम रखने से पहले
उस ने सौ बार खुद को
वेश्या कह कर देखा है
और यह अनुभव कर उसने
तुम्हारे अधिकार क्षेत्र में घुसपैठ की है
तो हे दया शंकरो
कुछ तो नया खोजो
तुम्हारा ताकत से पाला तो अभी पड़ा है
और पड़ेगा घर भीतर भी
एक दिन जल्द ही
सुनीता धारीवाल
( वेश्या से भी गिरी हुई -इस उपमा का शब्द नहीं मिला इन्हें अभी तक )

सन्दर्भ -उत्तर  प्रदेश  के  विधायक दया शंकर  द्वारा  सुश्री मायावती के लिए प्रयुक्त की गयी अभद्र टिपण्णी पर मेरी त्वरित प्रक्रिया के  तहत  उपजी  यह  कविता

मंगलवार, 19 जुलाई 2016

जिक्र सुनो उनताली का -स्मृतियां लोक कवि मान सिंह खनौरी वाले

सज्जनों अनेक बार मुझे कहा जाता है कि मैं आज़ादी से पहले की पुराणी बात सुनाऊ -लोग  मुझसे पूछते  हैं  अंग्रेजी  सरकार कैसी थी ?तो  मैं कहता हूँ कि सरकार के पास तो हमे कौन जाने देता था परन्तु मैं उस वक्त के सामजिक लोक जीवन के बारे में आपको इस कविता भजन के माध्यम से बताता हूँ तो सुणो-

पैंतीस छतीस सैंतीस आठतीस जिक्र सुनो उनताली का
आँखे  देखया हाल बताऊँ उनीस सौ चाली का

सन उनीस सौ चाली मेंह -अनपढ़ लोग हुआ करते
बिना दवाई कट जाते कुछ ऐसे रोग हुआ करते
मृत्यु के भी एक साल तक घर में शोग हुआ करते
न रिश्तेदारी टूटे थी इसे पक्के संजोग हुआ करते
सौ सौ पसु चरा कै भी मन खुसी रहवे था पाली का
बैलो से खेती करते भगवान रूप था हाली का
ब्याह सादी में एक दुसरे की खूब इमदाद करया करते
सगे सम्बन्धी मित्र प्यारे सब को याद करया करते

एक दुसरे का कर कै -अपणा उसके बाद करया करते
अल्लाह इश्वर खुदा वाहेगुरु सबसे फ़रियाद करया करते
मिल कै जश्न मनाया करते होली ईद दिवाली का

उपजाऊ धरती थोड़ी थी पैदा हों थे कम दाणे
मंडी मैं कणक बिक्या करती मण एक रूपया छ आने
कीकर जांडी झाड फूस पसुआं नै पड़ते खाने
नहीं टी वी फोन रेडियो थे सब साँगी तै सुनते गाणे
आठ कोस तै घोड़ा आता सब्जी ले कै माली का
होटल मैं भी दो आने कुल मोल पड़े था थाली का

गोरयां की सरकार के सख्त रूल सरकारी थे
बोलण लिखने पर पाबंदी -जुर्माने बड़े भारी थे
गैर गुलामी की कड़ियाँ मैं बंधे हुए नर नारी थे
आम लोग से मुलजिम बरगे -जज बरगे पटवारी थे
अंग्रेज रास्ता बंद राखें थे विद्या की प्रणाली का
फायदा चोर उठाते है सदा रात अँधेरी काली का
मजदूर चव्वनी दिहाड़ी खातर दर दर करया करै था खोज
राज मिस्त्री के आठ आने -देसी घी और मीठा रोज
किसान वयापारी छोटे छोटे सर पै ढोया करते बोझ
रंगरूट रूपये बारां मैं -खतरे में थी हिन्द की फ़ौज
अंग्रेजा के पिट्ठू थे जो करते काम दलाली का
अब तो पहरा हम ने है देना भारत की हरियाली का
मिल के सिरे चढ़ाया करते किसी भी काम अधूरे को
पक्का मीठा कह्या करै थे घर मैं चीनी बूरे को
किणकी कह कै खाया करते कटे चौल के चूरे को
पाट्या कपडा मिल्या करे था माछर दानी जाली की
बिना सूट न मन खिले था ब्याह मैं जीजा साली का
देस आजाद करवावण खातर बोहत लोग बर्बाद हुए
काले पाणी भेज दिए कोई फांसी तोड़े कैद हुए
किसी के बच्चे मार दिए माँ बाप बिना औलाद हुए
उजड़ गए घर बार किसी के बड़ी मुसकल आजाद हुए
भ्रस्ताचारियां नै रंग बदल दिया नीति गांधी वाली का
पैसे खातर पड़े जेल मैं गम न गुस्सा गाली का
कांसी पीतल सोना सिक्का घर घर मैं था चांदी का
हम सब नै डर लाग्या करता गैर हुकूमत आंधी  का
सन उनीस सौ ब्याली मैं उपदेस सुन्या जब गांधी का
मान सिंह हमने मुहँ देख्या अंग्रेज हुकूमत जांदी का
जाते जाते खेल गए थे खूनी खेल संताली का
कश्मीर समस्या मैं घी दे गये आग सुलगने वाली का





सोमवार, 18 जुलाई 2016

गुरु बन गयी हूँ

न पूछे मिला है न ढूंढें मिला है
गुरु बन गयी हूँ तुजुर्बा मिला है ।

सच्चा और पूरा गुरु किसी किस्मत वाले को ही मिलता है

सुविधा

जब से मैं
सुविधानुसार सुविधाजनक सामजिक काम
निपटाने लगी हूँ
यकीन मानो अपनी ही नज़र से
नज़र चुराने लगी हूँ
बहाने ढूंढती हूँ
बहाने  मिल भी जाते हैं
अपने ही तर्कों से
अपनी आत्मा को बरगलाने लगी हूँ
ऐसा कर
किसी पाप को सर चढाने लगी हूँ
डरपोक हो गयी हूँ मैं
असुविधाजनक हालात
और  असुविधाओं से
दूर जाने लगी हूँ मैं
यह क्या कमाने लगी हूँ मैं
गहन सोच में हूँ
दिल समझाने लगी हूँ मैं
सीख कर दुनिया की रवायत
तलाश रहीं हूँ एक ठीकरा एक सर
ताकि फोड़ सकूँ
किसी के सर और भाग निकलूं
परंतु भीतर का गहरा मन
कह रहा है अपनी रीत बदल लो 
अपने नाम के साथ लगी  फीत बदल लो
और इत्मीनान से रहो
जहाँ हो वहीँ रह जितना बन पड़े
बिना आडम्बर बिना शोर
करो तो करो न करो तो न करो
यह बात मुझे भी जच गयी है
सुविधाजनक जो ठहरी

सुनीता धारीवाल

गलत चाल

एक रोज
सड़क किनारे
एक बिना छत के
बस स्टॉप पर
एक बच्चा गोद लिए
कड़ाके की ठण्ड में खड़ी
औरतो को
अपनी बड़ी लंबी सी गाडी में से
मैंने देखा उन्हें
आदतन मैंने गाडी मुडवाई
उनके पास जा लगाई
कहाँ जाओगी 
ले चलूँ छोड़ दूँ आपको
मैं उस तरफ ही जाती हूँ
वे कुछ सकपकाई
गाव का नाम बता
गाडी में बैठ गयी
उनके मुँह से निकला
राम तेरा भला करे बेटी
और गाडी में सन्नाटा
ये पहली बार था जब
पहला अनुभव था
कि वे औरते हैं और कुछ बोल नहीं हैं
न ही गाडी में कोई और ओपरा  मर्द भी न था
हाँ बस मेरे ड्राईवर के सिवाय
उनमे से एक की गोद में
बच्चा सो रहा था
सब उम्र की पचपन साठ
उनमे से  बच्चे वाली ही
पैंतीस चालीस आसपास
की प्रतीत होती थी
चुप्पी तोड़ते हुए मैंने ही
बात बढ़ाई
लगता है किसी तीर्थ से आ रही हो
वे चुप
तो शहर में दवाई या पूछया  करवाने आई होंगी
वे चुप
तो किसी रिश्तेदारी से आई होंगी
सब चुप
मैंने थोडा माहौल को हल्का करने की
कोशिश करते हुए फिर पूछा
तो अच्छा पोते के झाड़ा लगवांण गयी होगी कहीं
या नज़र का तागा पढ़वाया होगा
मैंने हँसते हुए पूछा
न बोलो -समझ गयी ताई
किसी  पूछ्या देने वाले फ़कीर ने
घर तक चुप रहने को कहा होगा
नहीं तो टूणा टूट जैगा "ओह हो "
ताई दुनिया ब्रह्माण्ड पार कर गी
थाम चौराहे टापण में ही अटक गयी दिखै
एक ताई सयंत सी हो कर बोली
न बेटी ऐसी कोई बात न है
हाम तो सिमधाणे  मै तै आण लॉग रह्यी सै
या संतरों है जो गोदी मैं बालक ले रह्यी है न
इसकी छोरी मार दी सासरे  आल्याँ नै
संस्कार मैं गयी थी हम सारी
म्हारा इस संतरों  गैल दिराणा जिठाना है
जयंय तै इक्कठी गयी थी
मैं थोडा सहम गयी और पूछा
कि कितनी उम्र की थी बेटी
क्यों मारा ?कया हुआ था ?
एक ने बताया
उम्र तो के थी पाछले साल ब्याही थी
17 ,18 की होगी उम्र तो
न्यूं ऐ सुण्न मैं के  गलत चाल गयी थी
बटेऊ ने शक शंका थी
कही सुणि मानी कोन्या
घर में ही काट दी काल रात
पूरे बख्त की गर्भिणी थी
जच्चगी की टैम आण नै था
नौ मॉस ऊपर ले रह्यी थी
काल की रात माड़ी आई
छोरी काल नै जा पकड़ी
आज संस्कार कर दिया
बातचीत होते होते
बाँध टूट गया संतरों का
गाडी में हिचकियां
और सिसकिया भर गयी
गावं भी पास आने लगा
मैंने संयत रह कर पूछा कहा उतरोगी
वह बोली सिवयां आली फिरनी पै तार दिए
क्यूँ ?घर छोड़ दूंगी
बोली ना बेटी यु गोदी के इस द्योहते का 
संस्कार करणा  है माटी ढकनी है
माणस पहल्या ए मसाण में जा लिए
और म्हारी बाट देख रहे हैं
मैं कहाँ मैं रही तब चौंक गयी
ये बच्चा ?
बोली हाँ बेटी जद चिता के आग के ताप में
छोरी का पेट पाट गया
यू बालक चिता पर तै उछल कै
पायां मैं आ पड़या
जणो न्यू कहन आया के हे पंचातियो
मेरा ही रौला था मैं माफ़ी माँगू सूं
बेटी हाम इसने आपने गैल ले आये
इसने कौन हाथ लगावै था
आपणी का आपो साम्भालणा था
मेरे हलक में साँस अटक गयी
जैसे रूह चटक गयी
न थाना न कचहरी था
न शिकायत न बगावत थी
बस होनी का सामना
और स्वीकारना देख रही थी मैं
मैंने कुछ ही देर बाद
उन्हें फिरनी पर उतार दिया था
फिर किसी दिन मिलूंगी
बड़ी मुश्किल से कह पायी थी मैं
अपने भीतर एक शमशान ले
चली आई थी मैं
जो आज तक शोक में रहता है
पल्ली उठा देने के बाद भी

सुनीता धारीवाल

रविवार, 17 जुलाई 2016

तीमारदारी

अरे ओ साहस
जाने के वक्त में
क्यूँ चले आये हो
तीमारदारी करेगा कौन
तेरे संग मरेगा कौन

सुनीता धारीवाल

मोर्चा

बेटियां भी
खोले रहती हैं मोर्चा
उन माओं के खिलाफ
जो उनके पिता से
दिल लगाने की जगह
अपने सपनो से दिल्लगी में
खो जाती है
और बेटियां
अपने सपनो की दुहाई दे कर
भंग कर देती हैं
माँ की स्वप्न निद्रा
तब
माँ फिर से माँ हो जाती है
बेटी के सपनो को
सींचने लगती है
उसके पिता की पत्नी हो कर

सुनीता धारीवाल

सपनो से सगाई

सपनो से सगाई
मत करना बेटी
ये रिश्ता टूटेगा
तो टूट जाओगी
तुम भी

सुनीता धारीवाल

मंद बुद्धि अर्जी और विक्षिप्त सी मैं














अरी ओ पेज थ्री की नायिका
सोशलाईट सजनिया
बताना ज़रा
कभी तुमसे मिलने आया है कभी
किसी मंदबुद्धि विक्षिप्त  युवती का पिता
वो तिहरा लाचार आदमी
जो मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से भी
विक्षिप्त हो गया है
और अपनी व्यथा सुनाने को
बार बार पंक्ति में अंतिम हुआ  जाता है
ताकि सुना सके अकेले में तुम्हे
कि कितनी बार उसके पड़ोस के दबंग
जबरन उसके घर की  दीवार फांद
उसकी  बेटी के  बिस्तर पर कूद जाते हैं
और उस पगली को और पगला कर जाते हैं
बेटी का पहरा देते देते
उसकी कमर टूट गयी है
उसकी रोटी रोजी छूट गयी है
पत्नी की रीढ़ टूट गयी है
उसे बीमारी पकड गयी है
उसकी पगड़ी मैल में अकड गयी है
वो हर महीने अपनी पागल बेटी का
महिना भी साफ़ करता है
महीने का हिसाब भी रखता है
घटते बढ़ते महीने के दिनों में
उसकी इज्ज़त घटती बढती जाती है
बेटी का  पेट उसे बड़ा डरावना सा लगता है
वह बहुत कम सो पाता है
अक्सर उसकी आँख लगते ही
दबोच ली जाती है उसकी बेटी
और डंडे ले कर दौड़ता है
बेटी पर झुकी पीठ पर दनादन टिकाता है
अगले दिन पंचायत में जाता है
और कोई उसकी मानता नहीं है
ठाणे में भी कोई सुनता नहीं है
उसके कान में सीसा सा टपक जाता है
जब दरोगा दबंगों को सामने बुलाता है
दबंगई का बोल  उसे  सुनाता है
"जनाब " समझो दिमाग ही न है उसका
बाकि का सौदा तो टनाटन ले रहयी है इसकी छोरी
इसकी छोरी ही तो बुलाती है
म्हारे काहनी पलट पलट लखाती है
और हांसे जाती है
यु बुडैड़ खामख्वाह बतंगड़ पाड़ रह्य सै
कीमे पिसे लेण ने ऐंठ पाड़ रह्य सै
इसने कहो आपणी छोरी ने ब्याह दे
टोटे नै म्हारी आंख के आगे तै हटा दे
हर बार वह बाप चुपचाप घर चला आता है
एक नयी अर्जी लिखवाता है
फिर किसी मेरे जैसी की
बिना ताकत वाली की  खोखली महिमा
सुन कर उसके दफ्तर आ जाता है
और बार बार पंक्ति में अंतिम हो जाता है
और मैं उसे पुकार कर बुलाती हूँ
अर्जी पकड़ पूछती जाती हूँ
उसका  बयान और अर्जी
एक दुसरे से नहीं मेल खाते
अर्जी में महज छेड़ छाड़ शरारत
 जैसी शिकायत लिखी होती है
इसलिए किसी ठाणे में पंचायत में
कोई सुनवाई उसकी नहीं होती है
और वह आदमी यह भी चाहता है कि
बेटी का मामला है बात न फैले
कोई उसके मामले पर
सियासत न करे
न किसी अखबार में नहीं आये
जैसे गुपचुप कोई उसके घर की
इज्ज़त में सेंध लगाता है
ऐसे ही गुपचुप उसे  न्याय मिल जाए
और मेरे पास जवाब नहीं होता
मैं उस वक्त हारी हुई निहत्थी सी
लाचार खुद को पाती हूँ
बेटी बचाओ का नारा
मेरी समझ से बाहर होता जाता है
और मेरा भी समय आयेगा तब देखूंगी
 की खुद को आस बंधाती हूँ
और वो समय कभी नहीं आता
 वह अर्जी भी मेरे घर में रखी रखी
मंद बुद्दी और मैं विक्षिप्त हो जाती हूँ
उस युवती से भी ज्यादा
यकीनन तुम्हारे पेज थ्री क्लब में
 ऐसे मामले कोई नहीं लाता होगा
कोई बाप यूँ नहीं चला आता होगा
इसलिए तुम सोशल कॉज में
 रैम्प पर कैट वाक कर लेती हो
और मुझसे घिसटा भी नहीं जाता

सुनीता धारीवाल




चित्र केवल प्रभावोत्पादन के लिए है इसका इस कविता के संदर्भ से कुछ लेना देना नहीं है -साभार -गूगल -thediplomat.comethediplomat.com4




शुक्रवार, 15 जुलाई 2016

घाट घाट का पानी और मैं -औरत



ठीक ही तो कहते हो
सही पहचाना
घाट घाट का पानी
 पिया है मैंने
यही रहा मेरा
आजीवन पर्यटन
कितने मंदिरो  मस्जिदो  गुरुद्वारों के घाट
पहुंची  भी और पानी चखा भी
कितने तालाबो का कीचड़ सना पानी
जो नहाने भर का था वो पिया भी
कभी संतान के लिए
कभी तुम्हारे लिए
 कभी रियाया के लिए
जिन घाटो पर तर्पण होता है
वह भी चखे मैंने
जहाँ नव विधवाएं चूड़ियाँ तोड़
वैधव्य स्नान करने जाती है
उन घाटो का जल भी
अंजुली भर चखा मैंने
जिन जोहड़ो पर अल सुबह लोग
पाणी कानी के हाथ धोने
जा  पहुँचते है
उसका भी स्वाद कहाँ अछूता मुझ से
उन  नमक डले लोटों का जल
 भी चखा है मैंने
जिन्हें  पंच्यात बीच बैठ भरा जाता है
और नमक डाल शपथ ली जाती है कि
बिरादरी बीच का मामला है
कोई ठाणे नहीं जाएगा
गरीब की बेटी  लुटी आबरू
 और क़त्ल का मामला
यहीं लोटे के सामने सुलझाया जायेगा
याद आया मैंने तो
उस तालाब का जल भी मुहँ लगाया है
जहाँ सर पर मैला ढोने वाली औरत ने
टोकरा एक ओर रख अपना सर धुलवाया है
गावं देहात की गली गली में  खुले
उन छोटे छोटे पूछाघरों की अँधेरी
गुफाओ में जहाँ भूत प्रेत
बदन उघाड़ कर डराए जाते हैं
और जल में कुछ मन्त्र फूक
प्रेत भगाए जाते है
उन बंद बोतलों का पानी भी मैंने
पी कर दिखाया है
बड़े बड़े यज्ञो में आचमन का जल
मैंने पिया है
कलश यात्राओ के कलशों में भरा
कभी 21 कभी 31 घाटो का पानी
भी मैंने पिया है
 वाल्मिक   का चमार का ,
खाती का लुहार का
सिकलीगर का  सिहमार का
बैरागी का सुनार का
जाट का सैनी का
धोबी का कुम्हार का
पंडित का रेफूजी का
धानक का सरदार का
अड़तीस जात के घर भीतर
नलको का पानी
उन्ही के बर्तनों में पिया
और जिया  है मैंने

रंडी की दुकान का
 कोठे की मचान का
मंडी के सुलतान का
 बाबे की कोठी आलिशान का
पानी भी कहाँ रहा अछूता
मेरी जिह्वा की तंत्रिकाओं से
राज दरबार के घाट का
राजाओ के ठाठ का
मंत्रिओं की बाँट का
सत्ता की आंट का
पानी पिया है मैंने
कुत्तो के पात्र का
गरीब किसी छात्र के
अभावग्रस्त गिलास का
पानी पिया है मैंने
हरी के द्वार का
पीर की मजार का
पानी पिया है मैंने
देसी का अंग्रेजी का
कच्ची दारू की भट्टी का
डूम का मिरासी का
ये दुनिया लाख चौरासी का
पानी पिया है मैंने
ये घाट घाट का पानी
जब चखा तो यकीन मानो
पानी सर चढ़ गया
फिर तो एक घाट भी नहीं छोड़ा
और पीने से मुख न मोड़ा
जितने भी घाट मैंने गिनवाये है
तुम्हारी कसम मैंने नहीं बनवाये है
ये सब तुमने ही बनाये थे मेरे लिए
कि मैं जल से बाहर ही न निकलूं
इसे आँखों में भी रखूं
इसे देह में भी रखूं
और तुम्हारे दैहिक जलप्रपात तले
अपना वजूद तलाशूँ
यकीन मानो जितना भी पानी
अपनी देह की गुफाओं से
निगला  है
सब का सब आँखों से झरा है
मन की  उलझी कंदराओं से
जबरन खींचा था जो पानी
माँ कसम खारा ही नहीं
तेजाबी हो कर मेरी
आँखों के कोरो में जा बैठा है
कितने कड़वे घूँट
पी कर मुसुकुरायी हूँ मैं
अब तो  पकी  उम्र के  रोयें
पानीयों के बांध बनाना सीख गए हैं
समेट लेते है सारा पानी
और मैं अब भी विचरती  हूँ
नए नए घाट
ताकि
घाट घाट जा कर
एक दिन खुद को पा लूँ
और उस दिन तुम कहो
घाट घाट का पानी पिए
बेगैरत  औरत
और हाँ
 घाट घाट का  पानी पीते पीते
मैं घाट घाट की बोली भी
सीख गयी हूँ
मुझे अब शर्म नहीं आती
गरियाने में
मैं जानती हूँ कहाँ शिष्ट होना है
कहाँ शिष्टाचार खोना है
बस  मेरी इसी समझ से
थोडा डर सा गया है
जमाना मुझ से
और आजकल मेरे मुहँ कम ही लगता है

सुनीता धारीवाल जांगिड



घाट घाट का पानी और मैं -औरत


ठीक ही तो कहते हो
सही पहचाना
घाट घाट का पानी
 पिया है मैंने
यही रहा मेरा
आजीवन पर्यटन
कितने मंदिरो  मस्जिदो  गुरुद्वारों के घाट
पहुंची  भी और पानी चखा भी
कितने तालाबो का कीचड़ सना पानी
जो नहाने भर का था वो पिया भी
कभी संतान के लिए
कभी तुम्हारे लिए
 कभी रियाया के लिए
जिन घाटो पर तर्पण होता है
वह भी चखे मैंने
जहाँ नव विधवाएं चूड़ियाँ तोड़
वैधव्य स्नान करने जाती है
उन घाटो का जल भी
अंजुली भर चखा मैंने
जिन जोहड़ो पर अल सुबह लोग
पाणी कानी के हाथ धोने
जा  पहुँचते है
उसका भी स्वाद कहाँ अछूता मुझ से
उन  नमक डले लोटों का जल
 भी चखा है मैंने
जिन्हें  पंच्यात बीच बैठ भरा जाता है
और नमक डाल शपथ ली जाती है कि
बिरादरी बीच का मामला है
कोई ठाणे नहीं जाएगा
गरीब की बेटी  लुटी आबरू
 और क़त्ल का मामला
यहीं लोटे के सामने सुलझाया जायेगा
याद आया मैंने तो
उस तालाब का जल भी मुहँ लगाया है
जहाँ सर पर मैला ढोने वाली औरत ने
टोकरा एक ओर रख अपना सर धुलवाया है
गावं देहात की गली गली में  खुले
उन छोटे छोटे पूछाघरों की अँधेरी
गुफाओ में जहाँ भूत प्रेत
बदन उघाड़ कर डराए जाते हैं
और जल में कुछ मन्त्र फूक
प्रेत भगाए जाते है
उन बंद बोतलों का पानी भी मैंने
पी कर दिखाया है
बड़े बड़े यज्ञो में आचमन का जल
मैंने पिया है
कलश यात्राओ के कलशों में भरा
कभी 21 कभी 31 घाटो का पानी
भी मैंने पिया है
 चूड़े का चमार का ,
खाती का लुहार का
सिकलीगर का  सिहमार का
बैरागी का सुनार का
जाट का सैनी का
धोबी का कुम्हार का
पंडित का रेफूजी का
धानक का सरदार का
अड़तीस जात के घर भीतर
नलको का पानी
उन्ही के बर्तनों में पिया
और जिया  है मैंने

रंडी की दुकान का
 कोठे की मचान का
मंडी के सुलतान का
 बाबे की कोठी आलिशान का
पानी भी कहाँ रहा अछूता
मेरी जिह्वा की तंत्रिकाओं से
राज दरबार के घाट का
राजाओ के ठाठ का
मंत्रिओं की बाँट का
सत्ता की आंट का
पानी पिया है मैंने
कुत्तो के पात्र का
गरीब किसी छात्र के
अभावग्रस्त गिलास का
पानी पिया है मैंने
हरी के द्वार का
पीर की मजार का
पानी पिया है मैंने
देसी का अंग्रेजी का
कच्ची दारू की भट्टी का
डूम का मिरासी का
ये दुनिया लाख चौरासी का
पानी पिया है मैंने
ये घाट घाट का पानी
जब चखा तो यकीन मानो
पानी सर चढ़ गया
फिर तो एक घाट भी नहीं छोड़ा
और पीने से मुख न मोड़ा
जितने भी घाट मैंने गिनवाये है
तुम्हारी कसम मैंने नहीं बनवाये है
ये सब तुमने ही बनाये थे मेरे लिए
कि मैं जल से बाहर ही न निकलूं
इसे आँखों में भी रखूं
इसे देह में भी रखूं
और तुम्हारे दैहिक जलप्रपात तले
अपना वजूद तलाशूँ
घाट घाट जा कर
एक दिन खुद को पा लूँ
और उस दिन तुम कहो
घाट घाट का पानी पिए
बेगैरत  औरत
और हाँ
 घाट घाट का  पानी पीते पीते
मैं घाट घाट की बोली भी
सीख गयी हूँ
मुझे अब शर्म नहीं आती
गरियाने में
मैं जानती हूँ कहाँ शिष्ट होना है
कहाँ शिष्टाचार खोना है
बस  मेरी इसी समझ से
थोडा डर सा गया है
जमाना मुझ से
और आजकल मेरे मुहँ कम ही लगता है

सुनीता धारीवाल


घाट घाट का पानी और मैं -औरत




मैं मधु मक्खी मीठी और डंकिनी













मैं मधु मक्खी मीठी और डंकिनी
सच में
कितने पारखी हो तुम
मुझे पसंद भी आया
तुम्हारा दिया गया विशेषण
मधु मक्खी
वाह मेरे लिए
एक दम नया है
और खूबसूरत  भी
शहद और डंक
दोनों ही देख लिए तुमने
पलक झपकते ही
सच में  कितना शहद
और जहरीला डंक
साथ रखती हूँ हर समय
एक बार फिर से देखो
अब मेरी नज़र से
यह शहद जुटाने
मैं रोज निकलती हूँ
हर जंगल जंगल
बाग़ बाग़
झाड़ी झाड़ी
वन उपवन
और कभी कभी
चीनी की पेटियों में भी
घुस जाती हूँ
अपने साँस नली में
भर लाती हूँ पराग कण
और जान लगा कर
लार में परिवर्तित कर
एक छत्ते में भरती जाती हूँ
और शहद बनाती हूँ
बताओ क्या कभी
मैं खुद अपना शहद
खा पाती हूँ
तुम्हारे जैसे सभ्य मानव
छत्ते की ओर
ऊँगली कर डराते हैं
और तोड़ने के लिए धमकाते हैं
तो मैं डंक लिए आती हूँ
तब मैं  अपने  श्रम का ही  शहद बचाती हूँ
ताकि किसी की दवा बन
जीवन दे दूँ
किसी की जबान में घुल
मिठास दे दूँ
अन्य  जीवो को भी
जीवन दे सकूँ
इस शहद कमाने की दौड़ में
मेरी उम्र चली जाती है
एक रोज  शहद लबालब
जब होता है
तो तुम्हारे जैसा ही
कोई हाथ में मशाल लिए आता है
चहुँ  ओर शोर मचा
मेरे डंको से डराता है
तो डरे हुए सब लोग
तुम्हारी उठाई मशाल में
तेल डाल कर आग जलाते है
और मेरे छत्ते की ओर
 मुंह ढके  चले आते हैं
मेरे श्रम को आग लगाते है
मेरे पंखो को जलाते हैं
और उत्सव मनाते
शहद घर ले जाते है
तब  मैं अपने जख्मी  पंख
ठीक होने का
इंतजार करती हूँ
 फिर से शहद
बनाने लग जाती  हूँ
यह जानते हुए कि
यह तो आदत है
न तो तुम्हारी छूटेगी
न मेरी
न तुम आग लगाने से टलोगे
न मैं शहद बनाने से
ठहरी जो
मधुमक्खी
डंकिनी भी और मीठी भी मैं

सुनीता धारीवाल जांगिड



गुरुवार, 14 जुलाई 2016

अतिक्रमण




















जी हाँ मानती  हूँ मैं
मेरे घर में
भगवान की  कमी  है
मैंने नहीं बनायीं
उसकी कोई जगह
घर के किसी कोने में
नहीं  रखी मूर्ती
नहीं जड़वाई  कोई तस्वीर
उसके किसी भी रूप की
न कोई धूप न अगरबत्ती
नहीं जलाती हूँ  सुबह शाम
सच में नहीं झुकती
सुबह शाम कोई गर्दन
 सुनिश्चित से किसी कोने में
न ही कोई जाप न भजन 
कुछ भी तो नहीं है शामिल
हम सब के नित्य कर्म में
क्या  ही करूँ
मुझे तो माना
 उस के वजूद पर ही शंका है
और कुछ यहाँ
खुद ही भगवान हुए जाते है
बाकियों को भगवान
समझाए नहीं गए हैं
मेरा क्या  है
मैं तो बागी  ठहरी
तेरे आडम्बर को
  मानती  नहीं हूँ
पर तेरी सत्ता को
नकारती भी नहीं हूँ
स्वाभाव -वश मुझे तो
  विद्रोह करना ही था
तुमसे भी
क्यूँ तुम भी मेरे और तुम्हारे  बीच
कुछ  वकील रखते हो
उनके माध्यम से दलील सुनते हो
'जानते तुम भी हो
कि मैं अक्सर
  अपने के भीतर के मौन से
तुमसे बतियाती रहीं हूँ
और रूठी भी हूँ कई बार
तुम्हारे  ख़ामोश बने रहने पर
सवाल भी किये हैं
तुम्हारे होने न होने पर
बार बार चर्चा और
 शंका  भी ज़रूर की है
पर नकारा नहीं है तुम्हे
आह दुनिया तुम्हे मेरे घर में
ढूंढ रही है कुछ कृत्रिम से
बने छोटे छोटे मूर्ती मंदिर नुमा
उपायों में
और तुम उन्हें यहाँ घर में
कहीं मिल नहीं रहे हो
मैं एक बार फिर से
 कटघरे में हूँ तुम्हारे कारण
और  मुझे
भरी सड़क पर सरे आम
घसीटा जा रहा है कि
मैं नास्तिक हूँ और
मेरी इस अदा के  कारण
 तुम  नाराज बहुत   हो
और घर के एक एक जी को
पीड़ा और कष्ट दे कर
तुम मेरा बदला ले रहे हो
मेरे नास्तिक होने का
तुम ही बताओ
क्या मैंने कभी कहा
कि तुम नहीं  हो
ओ भरे जहाँ के मालिक
एक फुट जगह के लिए
विधिवत विध्वंस अभियान
निरंतर चलाये हुए हो
अतिक्रमण हटाने को
वो भी
मेरे छोटे से घर में
बस भी करो

सुनीता धारीवाल जांगिड 



बुधवार, 13 जुलाई 2016

लुक्का छिप्पी खेल





















नहीं  जानते  तुम
ये जो  मैं
इतनी  बाते  करती  हूँ  न
इनकी  आवाज से  मैं
अपने  सन्नाटो  को  डराती  हूँ
गा गा  कर  चहचहा कर
अपनी चीखों को दबाती  हूँ
तुमसे  आंसू  बाँट कर
आँखों  का  ध्यान बंटाती हूँ
तुम्हारे लाइक डिसलाइक
के खेल  मैं  भी कुछ  पल
शामिल हो कर
अपनी  नियति से
नज़र चुरा कर
तुम संग लुका छिप्पी का
बेमेल   खेल  लेती  हूँ
और  दुःख मुझे धप्पा  कर
फिर जोर  से  पीठ  पर
दोनों हाथ  मार  चौंका देता है
और मैं पकड़ी जाती  हूँ
नियति के हाथो

सुनीता धारीवाल



सोमवार, 11 जुलाई 2016

यवनिका





किसे याद रहा
उस रोज
माझी के हाथ में
जख्म बहुत थे
सवार जितने थे 
उन्हें तो पार जाना था
और मंजिल पर
नजरें लगाना था
वह खेवता रहा
हाथ रहने तक
फिर बैठ गया
हाथ पर हाथ धर

यवनिका रंगमंच हमेशा रहेगा दिल के करीब - -बहुत वक्त बिताया यहाँ लगभग दस वर्ष लगातार - 1991 से लेकर " 2000 तक
इसके निर्माण से लेकर इसको जीवंत रखने के लिए जूनून की हद तक खुद के श्रम और संसाधनों को स्वाहा कर न जाने कितने कलाकारों को मंच दिया -सरकारी साधनों से तो दुनिया ने काम किया अपना बहुत कुछ समय और साधन खो कर शहर को सान्सृतिक रूप से जिन्दा रखा चंडीगढ़ पर निर्भरता कम हुई थी उन दिनों -एक माह में दो दो बड़े आयोजन भी किये -तीज महा उत्सव के लिए दुनिया ने याद किया मुझे और इस यवनिका को भी -हमारे लिए तो किसी तीर्थ जैसा रहा यह मंच और आज भी है
कौन याद करता है मंच से उतरने के बाद कि कौन मंच की बल्लियाँ अपने काँधे उठा कर खड़ा रहा तुम्हारे मंच पर बने रहने तक
बहुत कुछ स्मरण हो आता है -कलाकार तभी कुछ कर पाता है जब कोई मंच बना कर देता है और बनाने वाले का जी निकल जाता है मंच दिल से बनाये जाते हैं

रविवार, 10 जुलाई 2016

तुम पर मर्जी भी जंचती है खुदगर्जी भी जंचती है @ सुनीता धारीवाल
वो मुझे मेरे मुताबिक जानता कहाँ है
मेरे मन की कही वो मानता कहाँ हैं

बचपन की बरसात और केंचुआ













एक बार बचपन में मैं जब बहुत छोटी थी (अच्छा बाकी सब बचपन में ही एडल्ट होते है झूटी कही की सुनीता -बकौल कपिल शर्मा )
हुआ यूँ कि -अक्सर बरसात में केंचुए घर की मिटटी की क्यारियों में से निकल घर के फर्श पर आ जाते थे और हम बड़े कौतुहल से उसे देखते रहते हम में से कोई बुद्धिजीवी भी होता था और अनुभवी भी ।सो उसने ज्ञान बांटा कि केंचुआ दोनों और से चलता है यानि उसकी दोनों ड्राईवर साइड है 
तब हम झाड़ू की तीली से उसे दोनों तरफ हिला कर देखते थे कि चलता है नहीं 
फिर ज्ञानी जी ने और टॉर्चरस ज्ञान दिया कि यदि इसके मुह पर नमक डाल तो वह मुह से सारी मिटटी उगल देता है और तड़प कर दिखाता है ।काश उस वक्त समझ होती कि तड़पना किसे कहते है चलो खैर घर से नमक चुरा कर हमने वो भी किया
झाड़ू की तीली पर उसे लटका कर यहाँ वहां भी ले जाया गया
मशरूम के नीचे उसका घर भी खोजा उसके मुँह से उगली गई मिटटी की आकृति की भी पहचान की ।मशरूम को सांप की छतरी कह कर संबोधित करते थे तब
एक ज्ञान और शेयर हुआ था उस वक्त के हम बाल ज्ञानी जनों के बीच कि चाइना में लोग इसी के नूडल्स खाते है ।
हमारी एक सदस्य की जिम्मेदारी थी इनका झुण्ड ढूँढने की हमने चींटियों के बिल में भी इन्हें खोजा ।माँ कसम बचपन से ही बड़ी खोजी थी मैं तो आज एह्सास हुआ
तब हमारी मम्मी ने हमे मेनका गांधी के नाम से डराया नहीं "जैसे मैं बच्चों को डराती हूँ कि तुम्हारी ऑनलाइन कंप्लेंट कर दूंगी किसी जीव के साथ कुछ किया तो "
बेचारा केंचुआ बड़े हो कर समझ में आया कितना ज़रूरी जीव है यह हमारी खेती के लिए


सुनीता धारीवाल 

जन्मदिन



हाय नी अम्मड़ीए
काहनु जम्मया सी
मैं अक्सर माँ को
कहते सुनती थी
जब भी वह उठती बैठती
थकती या कराहती थी
मैं अक्सर पूछती
ऐसा क्यूँ कहती हो
हंस देती और कहती
ये तो जुमला है
मुह चढ़ा हुआ है
अगर कभी मैं भी कहती
हाय नी अम्मड़ीऐ क्यूँ जम्मया सी
तो बहुत डाँटती
एक सांस में गिनवा देती
सारे मन्दिर गुरूद्वारे
माता मसानी दरगाहें और
पीर फ़कीर
जहाँ पर माथा नाक रगड़ कर
उसने मुझे माँगा था
मुद्दत बाद
उसने मुझे पाया था
मेरे पहले दर्शन से
उसका रोम रोम
रिझाया था
उसे पहली बार माँ
मैंने ही तो बनाया था
और मेरा भी जुमला सुन
वह बहुत गुस्सा हो जाती
और मेरा मुह बंद कर देती थी
फिर समय ने चक्कर खाया
एक दिन उसी के मुँह से निकला
हाय नी धीये मैं तैनू क्यों जम्मया
जब उसने मुझे
कटघरे में खड़े पाया
कि संबकी उँगलियाँ
उठी थी मेरी तरफ थी
और उसकी पांचो उंगलिया
उठी जाती थी
उन सब की तरफ
और उसकी हथेली थी
मेरे सर पर
वो जिरह में मुझे जीत लायी थी
और घर आते ही
फुट फूट कर रोई थी
मुझसे भी ज्यादा
एक बार उसने खुद ही
सच में कहा था
हाय नी धीये मैं क्यों जम्मया सी तैनू
बाँझ ही रह लैंदी
और मैं चुपचाप खडी
उसके जुमले को बदलता देख
सिहर सी गयी थी
सुनीता धारीवाल



शनिवार, 9 जुलाई 2016

गंध तैर गयी














अरे वही बात
जो फ़ैलाने की थी
वह तो
 फैली नहीं हुजुर
सबसे छुपायी  जानी थी जो
वो पहुंची दूर  दूर
बेशक गंध  थी
दोनों में  ज़रूर
 जो इत्र  थी
उसे  शीशी मिली
बंद हो कर रहने को
और बाकी सब गंध
आज़ाद  हवा  में  तैर गयी
और फ़ैल गयी

सुनीता धारीवाल 

लौटा दो फिर पिंजरा








पिंजरे से बाहर 

वह एक रात  मिली थी मुझे

रौशनियों में नहाई हुई 

 आधुनिकता से सरोबार 

आज़ादी की मानो लहर पर सवार 

एक बार फिर मिली मुझे वो 

पर बहुत बदली बदली सी 

लगी थोड़ी और भी  जिम्मेदार

 उसे देख लगा कुछ तो वह कहेगी ज़रूर

 उसकी आँखे बता रही थी

 उसके बोलने से भी पहले 

कि उसका गरूर था चूर चूर 

 आज़ादी की लहर पर सवार 

खो बैठी थी सब वह कुछ 

ताकत की भरी  सिपहसलार

 बिन बोले ही कह गयी 

कांपते होठो से और झरती आँखों से 
आज़ादी की लहर पर सवार 

कब उतर गऐ कपड़े
कब बिखऱ गया घर 
कब आत्मा हुई लहुलुहान
कब दिल हुआ छलनी,
उसे  पता ही न चला
सिसकिया  ही थी पहले
उसके सोने के  पिंजरे मे  
आजादी मे भी पाया 
केवल और केवल चीत्कार
आँख मूँद  वो सिपहासलार  
खुद ही  लुट गई सरे बाजार
चुन्धियाती सी  माया  काया 
सूट ,घाघरे  भुलाये थे उसने 
निक्कर हो गई थी उसकी सलवार 
दफ्तर के चक्कर वक्कर
ममता छूटी  बीच मझधार
कब राह भूल गयी घर के द्वार  
उसे  पता ही न चला 
कभी हमने रखा था उसका नाम
आज़ादी का इश्तिहार
चौंकी तो बहुत थी मैं  उसे देख कर
  वो अब बेहाल बिना मलाल 
फिर से ढ़ूढ़ रही थी  पिंजरा
जो रख ले उसे फिर 
सलाखो मे और बचा ले
उसे इस आजादी की घुटन से 
जिसका मोल उसने  
घर रूपी पिंजरे की यातना से 
कहीं  अधिक ,चुकता किया है
उसने आजादी के कारागर में
क्ही अधिक गिराया है खुद को
उठने के उन्माद में उसने
पिंजरे मे गिरने से ज्यादा सुबकी है वो
खुले आसमान में बाहे फैला कर 
अब भी चुनाव नही कर पाती है
पिंजरे मे बैठी है और  गर्दन बाहर
एकटक बस ताकती चली जाती है
किसी शून्य मे किसी क्षितिज की ओर
अक्सर सोचती है वो 
जब बाहर थी तो भीतर झांकती रही 
जब भीतर थी तो बाहर उड़ती फरफराती रही 
इसी उहापोह मे कब पूरे हो गए स्वास ,
उसे पता ही न चला।
और मैं मूक  सी उसके पीछे पीछे चल दी
उसके अंतिम गंतव्य तक

लौटते हुए लगा जैसे उस दिन 

वो नहीं मैं ही तो मुझ से मिली थी

सुनीता धारीवाल 


चित्र साभार - caged on pintrest

लौटा दो फिर पिंजरा











पिंजरे से बाहर 

वह एक रात  मिली थी मुझे

रौशनियों में नहाई हुई 

 आधुनिकता से सरोबार 

आज़ादी की मानो लहर पर सवार 

एक बार फिर मिली मुझे वो 

पर बहुत बदली बदली सी 

लगी थोड़ी और भी  जिम्मेदार

 उसे देख लगा कुछ तो वह कहेगी ज़रूर

 उसकी आँखे बता रही थी

 उसके बोलने से भी पहले 

कि उसका गरूर था चूर चूर 

 आज़ादी की लहर पर सवार 

खो बैठी थी सब वह कुछ 

ताकत की भरी  सिपहसलार

 बिन बोले ही कह गयी 

कांपते होठो से और झरती आँखों से 
आज़ादी की लहर पर सवार 

कब उतर गऐ कपड़े
कब बिखऱ गया घर 
कब आत्मा हुई लहुलुहान
कब दिल हुआ छलनी,
उसे  पता ही न चला
सिसकिया  ही थी पहले
उसके सोने के  पिंजरे मे  
आजादी मे भी पाया 
केवल और केवल चीत्कार
आँख मूँद  वो सिपहासलार  
खुद ही  लुट गई सरे बाजार
चुन्धियाती सी  माया  काया 
सूट ,घाघरे  भुलाये थे उसने 
निक्कर हो गई थी उसकी सलवार 
दफ्तर के चक्कर वक्कर
ममता छूटी  बीच मझधार
कब राह भूल गयी घर के द्वार  
उसे  पता ही न चला 
कभी हमने रखा था उसका नाम
आज़ादी का इश्तिहार
चौंकी तो बहुत थी मैं  उसे देख कर
  वो अब बेहाल बिना मलाल 
फिर से ढ़ूढ़ रही थी  पिंजरा
जो रख ले उसे फिर 
सलाखो मे और बचा ले
उसे इस आजादी की घुटन से 
जिसका मोल उसने  
घर रूपी पिंजरे की यातना से 
कहीं  अधिक ,चुकता किया है
उसने आजादी के कारागर में
क्ही अधिक गिराया है खुद को
उठने के उन्माद में उसने
पिंजरे मे गिरने से ज्यादा सुबकी है वो
खुले आसमान में बाहे फैला कर 
अब भी चुनाव नही कर पाती है
पिंजरे मे बैठी है और  गर्दन बाहर
एकटक बस ताकती चली जाती है
किसी शून्य मे किसी क्षितिज की ओर
अक्सर सोचती है वो 
जब बाहर थी तो भीतर झांकती रही 
जब भीतर थी तो बाहर उड़ती फरफराती रही 
इसी उहापोह मे कब पूरे हो गए स्वास ,
उसे पता ही न चला।
और मैं मूक  सी उसके पीछे पीछे चल दी
उसके अंतिम गंतव्य तक

लौटते हुए लगा जैसे उस दिन 

वो नहीं मैं ही तो मुझ से मिली थी

सुनीता धारीवाल 


चित्र साभार - caged on pintrest