जब से मैं
सुविधानुसार सुविधाजनक सामजिक काम
निपटाने लगी हूँ
यकीन मानो अपनी ही नज़र से
नज़र चुराने लगी हूँ
बहाने ढूंढती हूँ
बहाने मिल भी जाते हैं
अपने ही तर्कों से
अपनी आत्मा को बरगलाने लगी हूँ
ऐसा कर
किसी पाप को सर चढाने लगी हूँ
डरपोक हो गयी हूँ मैं
असुविधाजनक हालात
और असुविधाओं से
दूर जाने लगी हूँ मैं
यह क्या कमाने लगी हूँ मैं
गहन सोच में हूँ
दिल समझाने लगी हूँ मैं
सीख कर दुनिया की रवायत
तलाश रहीं हूँ एक ठीकरा एक सर
ताकि फोड़ सकूँ
किसी के सर और भाग निकलूं
परंतु भीतर का गहरा मन
कह रहा है अपनी रीत बदल लो
अपने नाम के साथ लगी फीत बदल लो
और इत्मीनान से रहो
जहाँ हो वहीँ रह जितना बन पड़े
बिना आडम्बर बिना शोर
करो तो करो न करो तो न करो
यह बात मुझे भी जच गयी है
सुविधाजनक जो ठहरी
सुनीता धारीवाल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें