सोमवार, 17 अगस्त 2020

छपना चाहा मैने भी



छपना छपाना 
कुछ नहीं होना जाना
खुद उठा के अपनी किताब 
बाँट कर आना 
लायब्ररी दर लाइब्रेरी 
छोड़ कर आना
किसी रजिस्टर के क्रमांक में
किसी अलमारी के कोने में
धूल से मिलने के लिए
किसी गत्ते में काले कागज़
चुपचाप छोड़ आना
थोड़ी चर्चा पा जाना
एक चायपान का दौर
और लोकार्पण का ढमढमा
अति विशिस्ट का रहना
और बधाई का थोडा शो
पत्रकारो की फ़ौज

कर लेंगे थोड़ी मौज
फिर समीक्षा को कहना
संपादक से मिल आना
साक्षात्कार छपवा लेना
थोडा नाम भी हो जायेगा
मिली जब एक नामवर लेखिका सखी
आँखों ही आँखों में जैसे
कह रही थी मुझे
जो ऊपर पंक्तियों में मैंने कहा
बिन बोले उसके जान गयी
उस तन की तरंगे जान गयी
बस इतना ही कह पायी मैं
हाँ लिखना भी चाहती हूँ
छपना भी चाहती हूँ
ताकि जिन्दा रह सकूँ
काले अमर अक्षरो में
और उस आती पीढ़ी के लिए भी
जो 200 वर्ष बाद भी इन गत्तो
में कीड़े खाये कागजो और अक्षरो में
ढूंढने की कोशिश करेंगे
की इतने वर्ष पूर्व महिलाएं
कया सोचती थी
इन काले गहरे अक्षरो में
समाज को क्या परोसती थी
मेरी किताब अलमारी में हो भी जाये
पर मैं खुद बंद अलमारी कहाँ
मैं तो गली गाँव सब फिरती हूँ
कहती हूँ उनकी सुनती हूँ
कितनो की पीड़ा हरती हूँ
ज्ञान की सेवा झोली में डाल
फिर अगले गाँव निकलती हूँ
मैं कहाँ रूकती हूँ कहाँ टिकती हूँ
ज्ञान को व्यवहार में लाना
मैं ये ही पाठ पढ़ाती हूँ
भीतर मेरे जो औरत है
बाहर जो औरते मैंने देखी है
बस उसको ही कह डाला है
न लेखक हूँ मेरा न गुरु कोई
बस मन का सुना रच डाला है
 
सुनीता  धारीवाल जांगिड

लेख जो प्रकशित हुआ

हे औरतो शोना बेबी

हे औरतो 
तुम्हारे सम्बोधन 
डार्लिंग ,बेबी ,शोना शोना 
गर हैं तो 
तुम नहीं जान पाओगी 
उन कानो की पीड़ा 
जिन्हे उबलते  सीसे से 
शब्दों से भरा जाता है 
सुबह शाम 
सुनती हैं जो 
ऐ हरामजादी 
बोलती है चिल्लाती है 
जुबान लड़ाती है
खूब जानता हूँ मैं 
तुम जैसी तिरिया 
औरतो का मुँह 
नीचे से बंद होता है
चल भीतर 

सुनीता धारीवाल जांगिड़
समाज को जैसा देखा वही लिखा है ।जैसा स्त्रियों ने सुना वही लिखा है हमेशा  ।तुम बहनो इनबॉक्स में  मुझ से कही मैंने जग से कही कविता के रूप में ।
हर कोई मुझ सी  सौभाग्यशाली नही होता ।जिसे केवल और केवल सम्मान और लाड़ प्यार मिले परिवार से ।

यात्राएं

यात्राएं 
हम अपने मन की अनेक परतों की यात्रा करते है जिसमे सबसे अधिक वक्त बितातें है हम  इस मायावी दुनिया के  विचरण में जैसे दुनियादारी, सेल्फी वैल्फ़ी, सोशल मीडिया, तीज त्योहार ,सेलिब्रेशन ,उत्सव ,ब्याह शादी, जन्मदिन ,पार्टी ,धंधे, काम, रोजगार, लेन देन, इन सब मे हम आत्म  मुग्ध और पर मुग्ध होते है उदास होते है ख़ुश होते है गुस्सा होते है शान्त होते है इत्यादि इत्यादि इस परत में सब है जो दुनिया को अच्छा लगता है यह हमें दुनिया से जोड़े रखती है यह परत हमें दुनियाई संभावनाओं से रूबरू करवाती है ।
फिर कभी हम यात्रा करते है थोड़े नीचे उतर कर जहां हमारे जहन में वे सब स्मृतियाँ चलचित्र सी  चलती है जहां हमें सबसे अधिक पीड़ा हुई,छले गए ,मूर्ख बनाये गए ,उपहास के भागी बने ,जिनके कारण बने ,जिनं परिस्तिथयो में बने ,यह वह storage box है जहां इन  सब स्मृतियों ने पक्का ठिकाना किया हुआ है हम अकेले में सोचते है खुद से लड़ते है कहाँ कहाँ किस निरादर से बचा जा सकता है यानी सांप के जाने पर लकीर पीट का खुद को शांत करते है अपनी गलतियों की खुद से ही क्षमा याचना करते हैं वहीं इसी तह में उतर कर अपनी क्षमताओं पर अपनी उपलब्धियों पर एकांत में सेलिब्रेट भी करते है जो कभी किसी से न किया वह संवाद खुद से करते है ।अपनी अपनी व्यक्त अव्यक्त भावनाओ से रूबरू होते है।पीड़ाओं को महसूस करते है। रोते है हंसते है चीखते चिल्लाते है मौन रह कर शांत रह कर यात्रा करते है 

फिर एक कल्पना लोक में उतरते है जहां हम जो भी करना चाहें कहना चाहें बनना चाहें होना चाहें उन सब कल्पनाओं के संसार मे यात्रा करते है काल्पनिक आदर्श स्तिथि का निर्माण करते हैं और कल्पना शक्ति से उसे होते देखते हैं और जीते हैं 

फिर एक परत और उतर जाते है जहां न कोई कल्पना है न कोई चिंतन न कोई स्मृति न कोई ज्ञान अज्ञान कुछ भी नही बस सब खत्म है वहां सिर्फ रौशनी है सम रौशनी है न दुख है न सुख है न वजूद है न अंत है न जीवन है न मौत है कुछ भी नही सिर्फ सन्नाटा है गंभीर सा 

फिर एक और परत है जहां पर कुछ भी नही है न कोई चित्र न स्मृति न कोई अंधेरा न प्रकाश न आवाज न शोर न कोई वजूद न कुछ एहसास वहां सिर्फ आनंद है वह बहुत हल्का हो जाने की स्तिथि है ।फिर  आगे किसी और यात्रा का कोई द्वार नही है न ही कोई जिज्ञासा न हसरत।
दरअसल हम अनेक यात्राएं करते है ।असल मे मैं अनेक यात्राएं करती रहती हूं दिन में कई बार कई कई परतों में घूमती रहती हुँ चेतन अवचेतन से भिड़ती रहती हूं तभी तो कुछ भी कुछ भी लिखती रहती हूं कुछ सेकण्ड्स के लिए भी यदि मन चेतन होता है तो उसी परत का भाव कलम उतार देती है पन्ने पर ।अक्सर मेरा लिखा कुछ  भी कोई न कोई सान्दर्भिक अभिव्यक्ति होती है या किसी कल्पना का संदर्भ होगा 

दिक्कत वहां आती है जब एक साथ पल पल में कई परतों में टहल आते है और  कह देने की विवशता व संवाद के वशीभूत कुछ भी कह देते है जिसका आंकलन यहां पर दुनिया दारी समझने वाले नही कर सकते ।
मेरी ही नही यात्रा सभी की ऐसी होती है ।जितना मन निर्मल होता जाता है हम उतना नीचे उतरते रहते है अपनी गहन परतों में 
यात्रा अनवरत जारी रहे सभी की सभी परतों में 
ज्यादा समय नीचे बिता ले यह सब से अच्छा है पर उस परत में अपनी उपस्तिथि का होना भी अच्छा है