मंगलवार, 26 जनवरी 2016

बेटियों को भी दीजिये एक अदद घर एक सुरक्षित छत -घोंसला चिड़िया का होता है चिडे का नहीं

घोंसला चिड़िया का होता है चिडे का नहीं
बेटियों को भी दीजिये एक अदद घर एक छत उसकी अपनी, केवल उसी की 

चित्र साभार गूगल 

बेटियों को शिक्षा के साथ साथ उसे घर दीजिये अपने सामर्थ्य अनुसार एक बंगले या एक कमरे या एक झोपडी की छत हो पर ज़रूर हो ताकि कोई जब जी चाहे  आपकी बेटी को  घर से न निकाल सके .उसे इतनी समझ दीजिये कि वह स्वतंत्र आजीविका कमाने लायक बने और अपना घर बनाना उसकी प्राथमिकता में शामिल हो .साथ ही उसे इतनी समझ भी दें कि घर का स्वामी होना क्या होता है कैसे उसे अपने घर नामक अपनी  सम्पति की सुरक्षा करनी है .हम सब मिल कर समाज में यह पहल कर सकते हैं इसी विचार को जन विचार बना सकते हैं जो व्यवहार में भी लाया जाये –बेटियों को कपडे गहने लत्ते देने से भी ज्यादा ज़रूरी है उसे एक घर देना उसके लिए छत सुनिश्चित करना .समय की मांग है और हमे बदलना चाहिए बेटियों की सुरक्षा में यह बड़ा कदम होगा .ताउम्र स्त्रियाँ किस घर को अपना कहे यही उलझन है. घर पति का ही है या पिता का या फिर  भाई का . कहाँ है मेरा अपना घर, मेरी अपनी ईंटें ,मेरी  चारदीवारी ,मेरी छत ,मेरा दरवाजा, मेरी खिडकियां ,मेरी हवा ,मेरा आँगन, मेरी धुप, मेरी मर्जी, मेरी अपनी जगह.मेरे हर एहसास बस मेरे हों यह सब हो पाना  एक  हसींन सपने  से कम नहीं . आज हर औरत को लगने लगा है कि वह इस प्रकार  स्वतंत्रता और आत्मविश्वास से  महरूम है अब उसे अपनी स्पेस चाहिए उसे भी अपना घर होने के  इस अनुभव से गुजरना है .घर की अहमियत उन महिलाओं को अच्छे से पता है जिसे दिन में कई बार घर से निकाल दिए जाने की धमकियों से दो चार होना पड़ता है
रागिनी को पति ने मामूली झगडे के बाद ठण्ड में आधी रात को घर से बाहर निकाल कर गेट बंद कर लिया और वह सारी रात बाहर ही रोती रही सुबह पडोसी ने रहम कर उसे घर के भीतर बुला लिया और पति को समझाया  बुझाया और फिर ही उसके  पति ने उसे घर में प्रवेश  करने दिया . पिछले दस से वर्चना मलिक  हर दिन चुपचाप अपने शराबी पति की हिंसा का शिकार होती है क्यूंकि वह जानती है की बच्चो को ले कर कहीं नहीं जा सकती .उसके पास पति के कारण एक अदद घर है छत है जिसके नीचे वह अपनी बच्चो को लिए शरण पाए हुए है और उसका कोई ठिकाना नहीं .ऐसी कितनी ही अनगिनत अनुभव  आये दिन हम अखबारों के माध्यम से पढ़ते हैं और अपने आस पास सुनते रहते हैं .अक्सर औरतो के मुंह से यह बात सुनने को मिल ही जाती है की अगर उसके पास कोई ठिकाना होता तो वह कब की इस यातना  बंधन से छूट जाती और कोई उसे बेघर करने की धमकी नहीं दे पाता .आज भी माता पिता की यह सीख कि ससुराल से  लड़ कर पिता के घर वापिस कभी मत आना जो तुम्हे मिला है तुम्हारी किस्मत अब तुम वहीँ एडजस्ट करों यही तुम्हारी जिम्मेदारी और बहादुरी भी  है .हर कठिनाई सहना ही तुम्हारी बहादुरी है .पलट कर मत देखना जीना अपनी जिंदगी वहीँ .यह दरवाजा बेटियों की रुखसती और बहुयों के आगमन के लिए है .महानगरो की आधुनिक समाज में पली बढ़ी  बेटियों के लिए यह मात्र  बम्बइया फ़िल्मी डायलोग है पर गाँव और कस्बों की युवतीयों के लिए आज भी उतना ही इस्तेमाल होता है जितना हमारे समय में 35 साल पहले और मेरी माँ के समय 55 साल पहले और हमारी दादीयों  ने भी यही सुना है और अपने जीवन में  सीख के इस सूत्र को गाँठ बाँधा बांध लिया होगा .कई सौ साल से महिलाओं के घर एक मुद्दा है खासकर उन समाजो में जहाँ पितृ सत्तात्मक  व्यवस्था व्यवहार में लायी जाती है और इस व्यवस्था में महिलाओं के घर के मालिकाना हक़ की कोई व्यवस्था आज तक नहीं है चाहे कानून में  महिलाओं को अधिकार मिल भी गए है पर समाज में इसे व्यावहारिक रूप लेने  में बहुत सामाजिक व् भानात्मक अडचने है 
.इसके एकदम विपरीत जिन समाजो में  मातृसत्तात्मक या मातृवंशी व्यवस्था है वहां घर महिला के  पास है. मेरे लिए भारत के उतर पूर्व में स्थित  मेघालय राज्य का  सबसे पुरातन स्त्री स्तात्मक समाज किसी आश्चर्य से कम नहीं था क्यूंकि वहां हर सम्पति ,घर वयवसाय पर स्त्री का ही अधिकार होता है और महिलाये इस व्यवस्था को किसी भी कीमत पर बदलना या छोड़ना नहीं चाहती . गत वर्ष अपने मेघालय दौरे के दौरान चेरापूंजी में मैंने एक महिला से पूछा कि घर औरत को क्यूँ मिले तो तपाक से जवाब दिया था खड्डू ने कि घोंसला चिड़िया का होता है कि चिडे का – बच्चे किस को बड़े करने है चिड़िया को  ही न –घोंसला चिडे को दिया तो क्या पता  कब नई मादा ले आएगा और आपके व् आपके बच्चो को चोंच मार मार घोंसले से गिरा देगा .हम तो प्रकृति को देखते हैं समझते है उसी तरह से हमारे सारे सामाजिक  नियम भी प्राकृतिक है –उसका कहना था कि हम महिलाएं पुरषों पर भरोसा नहीं करती कम से कम घर के मामले में और कह कर हंस दी .पर मेरी समझ में आ गया की घोंसला क्यूँ ज़रूरी है – वह सभी स्त्रियाँ जिन्हें न पति ने रखा और न पिता ने भाई भाभी ने फटकने भी न दिया एक फ़िल्मी रील की तरह मेरी आँखों के आगे तैरने लगी .तभी सोच लिया कि बेटियो को घर तो देना होगा .हरियाणा ,पंजाब ,उत्तरप्रदेश व् लगभग सारे भारत में बेटी को सम्पति का हिस्सा देना बड़ा विवाद है, अस्वीकार्य है और बेटियों के अपना सम्पति में पैतृक हक़ माँगना निंदनीय है ,यह स्थापित सामजिक व्यवस्था का हनन है जिसमे बेटी को पति के घर में ही रहने में सम्मान है ,जो माता पिता विवाह उपरांत अपनी बेटी को अपने घर में रखें हुए है उन्हें सम्मानित नजर से नहीं देखा जाता –अन्य छोटे बच्चो के रिश्ते तय करते वक्त यह बात सामने आती है की पहले से  ही इनकी एक  लड़की घर बैठी है दूसरी क्या बसेगी  ,और बेटी जो किसी अपरिहार्य कारणवश पिता के घर में शरण पाए है वह कितना अपमानित होती है आती जाती नज़रों से ,रिश्तेदारों के सवालो से और समाज के व्यवहार से .शादी शुदा लड़की का पिता के घर में रहना  पिता का सामाजिक अपमान होता है .सारा झगडा घर का है एक अदद सुरक्षित घर का जो लड़की के पास नहीं है और न ही समाज को लड़की का घर देखने की आदत है –यदि  महानगरों या उपनगरों  में भी आज किसी एकल लड़की का अपना घर है भी तो वह सामजिक रूप से  संदिग्ध घर  है सारे मोहल्ले की नजर उस घर में आने जाने वाले की और उस लड़की के क्रियाकलापों की और ,एकल लड़की का घर अछूत  घर है जिसे सब देखते है पर उस से व्यव्हार नहीं करते .उसे पडोसी  ही नहीं मानते .यह नया समाज है जिसके लिए दिमाग में ही जगह नहीं तो दिल में कहाँ बन पाई है .हाँ भारतीय कानून ने बड़ी राहत दी है लड़कियों के लिए यानि बेटियों के लिए पैतृक सम्पति की वयवस्था सुनिशिचित ज़रूर है .हिन्दू उतराधिकार  अधिनियम 1956 में पैतृक सम्पति को लेकर मिलने वाले अधिकारों का उल्लेख है लेकिन बेटियों के लिहाज से इसमें कुछ कमियां थी ,इसलिए सन 2005 में महिला हिन्दु उतराधिकार संशोधन अधिनियम लाया गया .इस संशोधन के बाद पुत्री को भी पिता की सम्पति में बराबर हक़ प्रदान किया गया है हिन्दू परिवारों  जिनमे सिक्ख ,जैन और बौद्ध भी शामिल हैं सभी में जो अधिकार पुत्र को प्राप्त होते हैं वही अधिकार अब बेटियों को भी सामान रूप से प्राप्त हैं .इस संशोधन से पहले बेटी पिता के घर पर रह तो सकती थी पर पिता की सम्पति में जमीन जायदाद पर उसे स्वामित्व का अधिकार नहीं दिया गया था .लेकिन अब जन्म के साथ ही बेटियों को पिता की  पैतृक सम्पति पर अधिकार प्राप्त हो गए हैं .यह नया प्रावधान 20 दिसम्बर से पहले हुए सम्पति के बंटवारे पर लागू नहीं होगा .किसी भी हिन्दू की मृत्यु इस कानूनी संशोधन के बाद हुई हो तो पैतृक सम्पति के उतराधिकार का निर्धारण नए प्रावधानों के अनुसार ही होगा .वसीयत न होने की स्तिथि में भी बेटी सम्पति में  बराबर की हिस्सेदार होगी .नया कानून यह कहता है की बेटी अपनी सम्पति के सारे निर्णय अपने अनुसार स्वयं कर सकती है .पुत्री को उसकी माँ की सम्पति में भी हिस्सेदारी होती है .बालिग महिला का स्वअर्जित सम्पति व् प्राप्त उपहार पर भी उसी का पूरा अधिकार होता है .

इस कानून ने निश्चित रूप से  समाज की ढकी तहों में खलबली मचा दी है घर में चर्चा हो रही है बेटी को सम्पति  कोई कैसे दे सकता है, जब शादी में दहेज़ इतना दिया है सारे तीज त्यौहार निबटा रहें हैं और बेटी के  बच्चो की शादी तक की सभी रस्मो में आर्थिक सहयोग दे रहें हैं गोयाकि बेटे की शादी में जैसे न कोई खर्च होता है न बेटा का परिवार खाता पीता है और न ही उस पर कोई खर्च होता है ,चलिए मान लेते हैं की बेटी की हर जम्मेदारी में पिता या भाई अपना फर्ज पूरा कर रहें हैं पर उन भाइयों का क्या जो कभी एक रुपया भी बहिन को देने न गए और पिता की सम्पति बेच बेच कर खा रहें है या बहनों के साथ कोई रिश्ता ही नहीं रखते और कभी उसकी खोज खबर नहीं लेते .यह विषय बहुत टेढ़ा है एक नई  सामजिक व्यवस्था को बनाने के लिए पुराणी व्यवस्था का हनन हो जाता है और पुराणी वयस्था अपनी उपयोगिता खोने लगती है –परिवर्तन प्रकृति  का नियम है व् सामाजिक परिवर्तन तो आएगा ही यह संवैधानिक  कानूनी अधिकार धीरे धीरे पुरातन सामजिक व्यवस्था  धीरे धीरे को बदल ही देगा भारतीय समाज में मात्र एक क़ानूनी व्यवस्था से सामजिक क्रांति आ जाने की अपेक्षा करना मुर्खता  है .यहाँ बदलाव तभी होते है जब बदलाव के फायदे- नुकसान के आंकलन में फायदे अधिक महसूस होते है और फायदों की सार्वजनिक स्थापना होने लगती है .
अभी तो सम्पति में अधिकार मांगने वाली  यह व्यवस्था घर तोड़ने वाली भाई बहिन या माता पिता व् बेटी के रिश्तों में कडवाहट लाने वाली ही मानी जा रही है ,जो बेटियाँ पिता की सम्पति में अधिकार मांग रही हैं उन्हें लालची और भाई भतीजों का हक छीनने वाली डाकिन ही कहा जा रहा है .उसका बहिष्कार किया जा रहा है .उसके घर आना जाना छूट गया है जो लड़की माँ बाप भाई भतीजों को कोर्ट कचहरी खींचे उसकी जम कर आलोचना हो रही है -और उससे रिश्ते तोड़े जा रहें है 
रिश्तों के मोल जमीन जायदाद से तुलने लगे है -कि तुम्हे भाई ज़रूरी है या पिता की सम्पति ?
बहनों से बोलचाल खतम हो रही है उसे ताने और उलाहनो से प्रताड़ित किया जा रहा है .
दुखद बात यह है जिस पर गौर करना भी ज़रूरी है अभी तक अधिकतर उन  महिलाओं ने पिता की सम्पति में अपने हक़ मांगे है जिनके पति या तो पिता व् भाई की तरह सफल नहीं हैं या वह किसी ऐब में हैं या ऐययाश किस्म के हैं और वह अपनी पत्नी पर भावनात्मक दबाव बनाते है कि यदि वह पिता की सम्पति में से कुछ हासिल कर ले तो उसके परिवार की स्थिथि सुधर सकती है और उनके बच्चे अच्छे से रह सकते है पढ़ सकते हैं .ऐसे प्रोत्साहित की गई महिलाओं ने अपने हक मांगे चाहे गिडगिडा कर चाहे प्यार से या दबाव से पर उन्होंने शुरुआत कर दी और माकन ज़मीन अपने नाम करवाने में सफल रही पर उनकी स्थिथि में फिर भी सुधार नहीं हुआ .निठल्ले पति ने औरत को बहला फुसला कर वह ज़मीन जायदाद पत्नी से अपने नाम करवा ली की वह अब नया व्यवसाय करेगा और उस सम्पति को दुगुना कर उसकी बाकी जिन्दगी को सरल बना देगा परन्तु ऐसा हुआ नहीं ,अधिकतर महिलाओं ने मिली ज़मीन पति के हवाले कर दी और सम्पति से हाथ धो बैठी न तो पति कुछ कर पाया और पीहर का भाईओं का भी सहारा जाता रहा .न घर के रही न घाट की 
-हालात फिर भी वहीं के वही बल्कि विपत्ति में उपलब्ध  जो एक दरवाजा पीहर का था वह भी बंद हो गया .कमी हमारी परवरिश में है हमने लड़कियों को अर्थ उपार्जन व् उसकी सुरक्षा करना निवेश करना सिखाया ही नहीं .आर्थिक स्वतंत्रता की समझ नहीं दी कभी बेटिओं या पत्नियों को धन की वयस्था करना धन को सही संभालना भी नहीं सिखाया इसलिए आई सम्पति और धन को कुंडली मार कर बैठना नहीं आया और मार खा गयी .आज भी महिला के पढ़ लिखने के बाद भी सोना खरीदने या सम्पति खरीद बेच के काम में पुरुष ही अग्रणी भूमिका में होते है औरतों से तो राय भी नहीं ली जाती ,बहुत कम स्त्रियाँ बड़े लेनदेन में भागीदारी कर पाती हैं 
महिला सशक्तिकरण के उपायों में पहला उसकी शिक्षा दूसरा आर्थिक स्वतंत्रता व् अर्थ की  सार्थक समझ  व् उसका अपना घर का होना भी ज़रूरी हो गया है .बाकि अन्य जैसे  भ्रमण की स्वतंत्रता,अपने मुख्य निर्णय लेने की क्षमता इतियादी भी इसी उपायों के साथ पीछे पीछे हो लेंगे 
 फिलहाल बस अपनी बेटियों को घर दीजिये घर की समझ दीजिये इस चिड़िया को  घोंसला विहीन मत बनने दीजिये और उन्हें शिक्षा से सशक्त कीजिये  
सुनीता धारीवाल 

शनिवार, 23 जनवरी 2016

आपका ऑफिस और सामान्य शिष्टाचार

आपका ऑफिस और सामान्य शिष्टाचार




याद  रखे  आपका  ऑफिस आपके काम करने की जगह आपका कार्यस्थल है जहाँ आप काम करने जाते है अपनी आजीविका सुनिश्चित करने के लिए है यहाँ का परिवेश पूर्णतया औपचारिक होता है जिसके कुछ आवश्यक शिष्टाचार है और आपसे अपेक्षाएं भी ,पद अनुसार आपकी भूमिका अलग होती है और उसी भूमिका अनुसार आपकी ड्रेस और मेकअप और अस्सेसरी भी यानि श्रृंगार के अन्य आभूषण भी उसी अनुसार  अपेक्षित होते हैं और उसी अनुसार आपका वयवहार भी अपेक्षित होता है कहीं पर भी आपका असामान्य व्यवहार आपको मुश्किल में डाल सकता है और आपके व्यक्तित्व को संदिग्ध बना सकता है और आपके सहकर्मियों द्वारा आपके  बारे में गलत राय बनाई जा सकती है जिसे आपको मानसिक हानि होगी और आपके आत्मविश्वास  को भी ठेस लग सकती है –
महिला सुलभ  मनोविज्ञान है कि उन्हें प्रसंशा पाना ,टिपण्णी सुनना ,भीड़ से अलग दिखना ,चर्चित होना उन्हें आनंदित करता है .कुछ महिलाओं के एजेंडा में  दिन भर सारे दफ्तर का ध्यान  आकर्षित करना होता है ,कुछ अपने साथी कर्मचारी समूह तक अपना आकर्षण बनाये रखना चाहती है और कुछ केवल उच्चासीन अधिकारियों तक व् अधिकतर  व्यग्तिगत आत्मविश्वास के लिए अच्छा बनाना यानि आकर्षित दिखना चाहती है . केवल कपडे नहीं आपकी बोलचाल , आपके हाव भाव –शब्दों का उच्चारण ,शब्दों का चुनाव ,बातचीत की गति और बातचीत की आवाज की ऊंचाई व् नरमी भी आपके ड्रेस को कॉम्प्लीमेंट करती है ,आपके उठने बैठने का ढंग सभी मिला कर आपका कामकाजी व्यक्तित्व बनता है ,आपका हर परिस्थिति में संयत रहना ही आपसे अपेक्षित होता है –आईए जाने कुछ सामान्य कार्यस्थल शिष्टाचार 

1     #  आपकी भूमिका को अच्छी तरह परखिये और उसकी ज़रूरत को जानिए-
ध्यान रखे की  आपके पद पर आप को किन प्रकार के लोगों  से मिलना होता है –यदि आप रिसेप्शन पर है तो आप से मिलने वाले भिन्न प्रकार के होंगे और आपसे  शिष्टाचार ,अभिवादन ,वाणी ,और बॉडी लैंग्वेज की अपेक्षा भिन्न प्रकार की होगी .और आपके कपड़ो का चुनाव भी अलग ही होगा ,अनेक दफतरों में रिसेप्शन पर पहनने की ड्रेस निर्धारित होती है –पेंट शर्ट ,या स्कर्ट  टीशर्ट,या फिर साडी या कोई  फॉर्मल गाउन ,आपको अपना मेकअप और केश सज्जा भी उसी प्रकार करनी होगी .और सबसे ज़रूरी है की आप जो भी पहने उसमे सहज रहें और दिखें .
1-      भडकीला मेकअप किसी भी पद पर महिला को शोभा नहीं देता चाहे आपकी जगह जन संपर्क की हो आप अधिकारी या उच्च  प्रसाशक के पद पर हों आपको सौम्य ही दिखना होगा .यही सभ्यता है 
2-      आप यदि आवभगत में डयूटी पर हैं तो लिपस्टिक गहरे रंग की चुनाव कर सकती  है परन्तु गहरी आई शैडो से बचें,मस्कारा व् आई लाइनर इस्तेमाल करें और हल्का फाउंडेशन बेस जो प्राकृतिक लगे .
3-      आपकी केश सज्जा खूब करीने से बंधी हो .यदि बाल कटे हुए कोई स्टाइल है तो उसे भी संभाले . रंग बिरंगे क्लिप फूल इतियादी भी न लगायें .किसी भी क्लाइंट या अफसर के सामने बार बार बालो में हाथ फेर कर उन्हें व्यवस्थित  करना शिष्टाचार  नहीं है यह आपकी गलत छवि प्रस्तुत करेगा.जुल्फे भी व्यवस्थित हो लटें भी .
4-      अगर आपका मेकअप अव्यवस्थित हो गया है तो दो मिनट के लिए प्रसाधन कक्ष में जाएँ और लौट आयें रिसेप्शन पर खड़े खड़े न बाल सवारें न ही मेकअप ठीक करें
5-      आपकी ड्रेस बहुत टाइट न हो जिस से आपके बदन का आकर बेढंगा दिखे और वक्ष और नितम्ब के उभार अति स्पष्ट दिखे या बाहर झांकते दिखें और न ही इतने ढीले ढाले हो की आप उलझी उलझी दिखें .दफ्तर में नयी ड्रेस की फिटिंग न ट्राई करें.वही पहने  जो पहने पहले से ही टेस्टेड हो ताकि आप असहज न हो .
6-      किसी भी महिला सहकर्मी या अभिनेत्री  के ड्रेस या मेकअप स्टाइल को कापी मत करें हो सकता है आप पर वह स्टाइल सूट न करें और आपकी स्थिथि हास्यपद हो जाएँ
7-      दफतर के भीतर धुप का काला चश्मा  भूल कर भी न लगायें
8-      बहुत भड़कीले रंगों का चुनाव न करें गोटा लगे सिप्पी सितारें भरी कढ़ाई और चमचमते कपड़ो से परहेज करें ,न ही बड़े बड़े आभूषण पहने 
9-      बहुत तेज परफ्यूम लगाने से बिलकुल बचें-हलकी सुगंध ही लगायें 
10-   जूते चप्पल भी रंगीले भड़कीले रंगों के न हो न ही टक टक टक आवाज करेने वाले हों उनका सोल चेक करें –अगर वह जूते आपको बहुत  प्रिय व् सुविधाजनक हैं तो भी  आप मोची से जा कर उसे नीचे एक रबर की सोल चिपकवा ले ताकि वह आवाज न करें.
11-   ऐसे ही बहुत खनकदार चूड़ियाँ,कंगन घुंघरू वाली घड़ी ब्रेसलेट आदि न पहने पाजेब पहनने से पूरी तरह परहेज करें –कल किसी शादी में गई थी उतारना भूल गई या टाइम नहीं मिला जैसे बचकाने बहाने न करें.
12-   याद रखें श्रृंगार के मूल में काम (वासना )ही होता है इसलिए आपका श्रृंगार काम का निमंत्रण कभी न लगे और आप सौम्य और सहज लगे और आत्मविश्वासी भी इसलिए अनावश्यक महिला बन कर दिखाने से पूरा परहेज करें .
13-   काम के वक्त बहुत ऊँचा ऊँचा न बोलें न ही कोई ऊँची आवाज में फ़ोन करें .यदि आपके काम के दौरान आपका कोई प्रियजन ,परिवार का सदस्य या मित्र अचानक मिल जाये तो भी उतेजना न दिखाएँ बल्कि शांत रहें और मुस्कुराएँ यही अच्छा रहेगा और अपने अधिकारी से आज्ञा मांग कर ही उनसे मिले –रिसेप्शन पर खड़े खड़े ही न घर बार की बतियाना शुरू कर दें .आपके ऑफिस के माहौल को ऑफिस जैसा बनाना भी आपके ही हाथ है
14-   यदि आपका कोई प्रियजन या मित्र आपके साथ काम करता है तो सभी के सामने आप इठला कर उसे आग्रह न करें की वह आपको  बताये कि आप कैसी लग रहीं है
15-   स्त्रीजनक व्यवहार जैसे रूठना मानना, हँसना, इठलाना जैसे व्यवहार कभी न करें .सहानुभूति पाने की चेष्टा करना ,हर समय मदद को ताकना अपना काम सहयोगी से करवाना जैसी हरकतें कभी न करें
16-   दुसरे सहकर्मी का कंप्यूटर खोलना ,मोबाइल खोलना –उसके डेस्कटॉप पर तांकझांक करना और उसके काम में टीका टिपण्णी करने की कभी कोशिश न करें
17-   अपने पारिवारिक झगडे मजबूरियां कभी न शेयर करें ,सहकर्मियों के बातचीत पूरी तरह से व्यवसायिक रखें.
18-कामकाजी स्थल पर कभी रिश्ते न बनायें किसी को भाई किसी को भाभी जेठ देवर बनाने  जैसे बेवकूफाना बातें न करें 
19-अपने व्यक्तित्व को रहस्य रखें कभी ज़रूरत से ज्यादा दुसरो को अपनी जिंदगी में ताकझांक न करने दे और न ही खुद आगे बढ़ कर किसी की निजी जिंदगी में दखल दें 
20-रहस्यमयी स्त्रियाँ सदैव आकर्षण का केंद्र होती है इसलिए काम काज के स्थल पर खुली किताब बनने  से बचें .
21-अपने कामकाज में मन लगायें कम में पारदर्शिता रखें ,हमेशा जवाबदेही के लिए तैयार रहें जिम्मेदारी ओढें और उसे निभाएं व् काम समय पर करने और समय पर पहुँचने की आदत डालें .
सुनीता धारीवाल जांगिड  

कमश:-अगले अंक में 
# आप यदि प्रबधन में है और उच्च अधिकारी है तो ध्यान दें 
# आपका संवाद कैसा हो ?
      # यौन उत्पीडन से बचने के उपाए ?
      # संवादहीनता से कैसे बचे ?’

गुरुवार, 7 जनवरी 2016

कार्य स्थल पर यौन उत्पीडन की रोकथाम -जानकारी व् उपाय व् विभिन्न केस -श्रंखला -लेख 1

कार्य स्थल पर यौन उत्पीडन किसे कहा जाये ?

चित्र -साभार -गूगल 
महिला सशकीकरण के अवयवो में महिलाओं का आर्थिक रूप से सशक्त होना  सबसे पहला  व महत्वपूर्ण व अति आवशयक कदम है .ताकत के  लिए जरुरी है की महिलाएं अर्थ उपार्जन के कार्यों में लगे ,ऐसे काम करें जिनसे उन्हें धन मिले जिससे उनकी परनिर्भरता समाप्त हो और  वह अपनी आजीविका स्वतंत्र रूप से चला सके अपनी मर्जी से अपने धन का उपयोग कर सकें , आजाद भारत के बदलते परिवेश व् आधुनिक देश काल में स्वस्भाविक है की महिलाओ  ने  आजीविका उपार्जन के लिए को ऐसे हर कार्य क्षेत्रो में प्रवेश किया है  जहाँ पुरषों का वर्चस्व रहा है .पुरुष के एकाधिकार  क्षेत्र में कमतर लिंग की घुसपैठ के लिए पुरुष तो कतई तैयार नहीं था .अपवाद स्वरुप नारीवादी पुरषों को छोड़ कर - आजाद भारत का संविधान महिला पुरषों के लिए अवसरों की  समानता का सुखद सन्देश लाया यह भारतीय सामाजिक व्यवस्था में बड़े  बदलाव का  रंगीन परचम था जिसमे महिलाओं को आकर्षित करने के तमाम रंग थे इस परचम तले महिलाओं के लिए  शिक्षा के दरवाजे बाहें पसार खुले थे .धीरे धीरे महिलाएं  गैर जरुरी परम्पराएँ तोड़ रही थी और फिर  इंदिरा गाँधी जैसी महिला नेता का प्रधान मंत्री होना महिलाओं के सपनो को पंख दे गया था –भारतीय राजनीती  व् स्वतंत्रता  संग्राम में महिलाओं की भूमिका  सुनना व पढना भी लड़कियों को रोमाँचित कर रहा था .इतिहास में सक्रिय व्  राजनीती में दिखाई दी जाने वाली महिलाओं ने जो मान सम्मान व् लोकप्रियता हासिल की थी उसके  लिए उन्होंने अपने  मिशन के लिए घर की देहलीज  को पार किया  था .उनके साहस के कारण ही उनकी सामजिक स्वीकार्यता संभव हुई थी .अब  स्वतंत्र  भारत की नव युवतियो के लिए किताबों में और समाज में अपने आस पास प्रेरणा दायी महिला रोल  मॉडल उपलब्ध  थे.और खुली हवा में बाहें फ़ैलाने के स्वपन भी पैर पसारने लगे थे .अब तक छोटी बच्चियों ,युवतिओं को सामाजिक परम्पराओं के चलते पुरषों को देयता और स्त्री को पुरुष पर निर्भर  रहने के ही पारिवारिक व्  सामाजिक निर्देशों मिले थे  जिसे स्त्रियों ने  पालन किया था और कर रहीं थी परन्तु  शिक्षा ने उन्हें तर्क करने व् प्रशन पूछने लायक बनाने लगी .शिक्षा  से उनमे आत्मविश्वास व् साहस भी मिला है और महिलाएं सशक्तिकरण के  उपायों की और उन्मत हुई हैं .घर की दहलीज व् चारदीवारी से  बाहर निकल महिलाएं अवसरों की मांग भी करने लगी और अपनी योग्यता को बढ़ाते हुए पुरषों के समकक्ष काम पर जाने लगी , अब महिलाएं एक ऐसे  कामकाजी माहौल में जा पहुँचने लगी  जहाँ पहले से पुरुषों का दबदबा कायम था  उस काम की जगह का माहौल व् नियम  पुरुषो द्वारा ही रचे गया था  और ज्ञान व् अनुभव भी पुरषों के पास ही अधिक था सामजिक ढांचे में  यह स्तिथी आज तक भी बनी हुई है  , कामकाजी स्थलों पर  कार्य की चुनोतियों व् दबाव से  निबटने में  पुरुष आज तक भी  अधिक् अनुभवी दीखता रहा क्यूंकि उसे अधिक अवसर प्राप्त होते रहे हैं . 
पुरषों द्वारा रहे गए माहौल में जब महिलाओं ने अपने कदम रखना शुरू कर दिया तो यह पुरषों के लिए नया और असामान्य सा अनापेक्षित अनुभव था प्रथम दृष्टया  इसे कमतर लिंगी( स्त्री ) मानव  की श्रेष्ठ लिंग मानव  (पुरषों) के क्षेत्र में घुसपैठ की तरह देखा गया .जिसे पुरषों ने पसंद नहीं किया और विरोध भी किया असहयोग भी किया और उपहास भी किया गया .बात बात में  काम पर महिलाओं को नीचा दिखाने की भी चेष्ठायें भी जारी रही .अश्लील फब्तियां कसना ,  भद्दे यौन आचरण,अश्लील टीका टिपण्णी ,सहायता के एवज में  सेक्स की अपेक्षा  जैसे पुरुष व्यवहार से  महिलाएं दो चार होती नज़र आई .पुरषों के लिए यह नई चुनौती थी जहाँ उन्हें अपने अहं और उच्च लिंगी श्रेष्ठता को बनाये भी रखना था और महिलओं की उपस्थिथि को स्वीकारना भी था . दरअसल सत्य यह है महिलाएं इस घुसपैठ के लिए तैयार थी पर पुरुष नहीं इसलिए शुरूआती समय में समाज में भी  कामकाजी महिलाओं को हीनता की दृष्टी से देखा जाता था ,मुझे याद है आज से करीब पच्चीस साल पहले तक  भी  समाज में कामकाजी महिलाओं  के प्रति समाज में आम धारना व्याप्त थी कि ये कामकाजी महिला या तो  बेचारी  है जिसके  घर में कमाने वाला कोई नहीं है और या ये लम्पट है जिनकी जरूरते  पति /पिता की कमाई से अधिक हैं  और या ये स्वत्रन्त्र चरित्र हीन है जो ऐय्याशी के लिए नौकरी  करती है.यहाँ कामकाजी महिलाओं उन्हें कहा गया है जो विभिन्न दफ्तरों या संगठित क्षेत्र के व्यावसायिक संस्थानों में काम करने लगी थी या किसी ने अपने कोई ऐसे उपक्रम स्थापित किये जिसमे पहले पुरुष ही दीखते थे ,दुकानों पर बैठने वाली महिलाये होटल में सत्कार कार्यों में लगी महिलाएं या मजदूरी दिहाड़ी करने वाली सब महिलाएं शामिल थी .

समाज में कामकाजी स्त्री का पति होना निंदनीय माना जा रहा  था यहाँ तक  जिसकी पत्नी या बहु बेटी नौकरी  करे उस घर के मर्दों को मर्द की  में गिनती शुमार नहीं किया जाता  था और उन्हें पीठ पीछे तरह तरह के ताने सुनने को मिलते थे .पत्नी की कमाई खाने वाले पिता या पति को हीनता की दृष्टी से देखा जाता था .अगर हम याद करें  1970 तक तो तो वैवाहिक विज्ञापन में भी लिखा होता था “नौकरी वाली नहीं “ परन्तु आज  2016 तक आते आते तो माहौल पूरी तरह विपरीत हो गया है लोग बाग़ दोहरी तनख्वाह के आर्थिक महत्व को समझ गए है और वैवाहिक विज्ञापनो में अब नौकरी वाली को प्राथमिकता शब्द से अखबार भरे पड़े हैं.स्त्री पुरुष दोनों की कमाई से लोगों ने कच्चे मकानों से पक्के होते देख लिए है आँगन में खड़ी  साइकलों को  कारों में बदलते देखा है सुविधा से सुसज्जित घर बच्चो की उच्च शिक्षा का सामर्थ्य  बनते भी लिया है .जो पुरुष सरे आम अपनी मर्दानगी के गरूर में काम काजी औरतों को वेश्या कहने से भी नहीं चूकते थे उनकी भी मूंछ नीची हो गई है ,वह भी अपनी बेटियों या बहुओं के लिए नौकरी की पैरवी करते सत्ता के गलियारों में भटकते देखे जा रहें है ,महिलाओं की जिद व् जुझारूपन  ने परिवेश बदल दिया है . स्कूल व् कालेज बोर्डो के परिणामो में परीक्षा प्रतियोगिताओं में तकनीकी संस्थानों में महिलाये आगे निकल रहीं है .उसी रफ़्तार से महिलाओं के नौकरी व कामकाज के अवसरों का निर्माण हो रहा है .  अवसरों की उपलब्धता ने भी सामाजिक सोच में परिवर्तन ला दिया है .बड़े शहरों  की युवतिओं की उन्मुक्त उड़ान की सोच ने आज छोटे कस्बों में भी पैर पसार लिये हैं लडकियां  पढ़ लिख कर शहर जा कर नौकरी कर रही है और करना चाहती है.विवाह की प्राथमिकतायें भी बदल रही हैं आताम्निर्भर बनना लडकियो की पहली प्राथमिकता में शामिल होता जा रहा हैं .निसंदेह कार्यस्थलों पर महिलाओं के उपस्थिथि और भी बढ़ने वाली है.पिछले दो दशकों  में महिलाओ  ने घर से बाहर तेजी से  अपनी उपस्थिति  दिखाई है और चुनौतियों को स्वीकारा है  और खुद  को सिद्ध  भी किया है यह जज्बा  न केवल काबिले तारीफ है बल्कि यह सामजिक परिवर्तन का भी बड़ा उद्घोष  भी है 
यदि हम कामकाजी महिलाओं की स्थिथि को गहनता से देखें तो पाएंगे की महिलाओं ने आजादी के 35 -40 साल तक महिलाएं कार्यस्थलों पर यौन उत्पीडन का शिकार होती रही और  सार्वजनिक मौन सा बनाये रखा .महिलाएं अवांछित माहौल में भी काम कर रही थी हालांकि देश भर में कही कहीं विरोध के सशक्त स्वर सुने दिए पर मांग आन्दोलन का रूप नहीं ले सकी .ऐसे व्यवहार से न केवल महिलाओं की कार्यक्षमता पर नकारात्मक असर पड़ा बलिक उनके बिना लिंगभेद  सम्मानजनक जीवन जीने के सामान्य मानवाधिकारों का भी हनन हुआ . पिछले दशक कामकाजी महिलाओं की तस्वीर एक दुखद घटना ने बदल दी और सरकार को कड़े कदम उठाने पड़े .
वर्ष 1992 में राजस्थान के जयपुर जिले की तहसील बस्सी में अपराधिक  घटना घटी बाल विवाह का विरोध कर रही भटेरी गाँव की  सामजिक कार्यकर्ता  भंवरी देवी के साथ सामुहिक दुष्कर्म हुआ तत्पश्चात उसकी हत्या कर दी गयी ,इस मामले में कानूनी फैसला आने के बाद विशाखा और अन्य महिला संगठनों ने उच्चतम न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की। इस याचिका में माननीय न्यायालय से आग्रह किया गया कि कामकाजी महिलाओं के बुनियादी अधिकारों को सुनिश्चित कराने के लिए संविधान की धारा 14, 19 और 21 के तहत कानूनी प्रावधान बनाये जाएं। इस मामले में कामकाजी महिलाओं को यौन अपराधउत्पीड़न और प्रताड़ना से बचाने केलिए कोर्ट ने विशाखा दिशा-निर्देश दिये और अगस्त 1997 में इस फैसले में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की बुनियादी परिभाषाएं दीं। इसके तहत नियोक्ता की जिम्मेदारी है कि वह दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करे।न्यायाल्य ने 12 दिशानिर्देश बनाये। इसके तहत नियोक्ता या अन्य जिम्मेदार अधिकारी की जिम्मेदारी  है कि वह कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को  रोके। यौन उत्पीड़न के दायरे में छेड़छाड़गलत इरादे से स्पर्श करनायौन इच्छा का आग्रह करनामहिला सहकर्मी को पॉर्न दिखानाअन्य तरह से आपत्तिजनक व्यवहार करना या फिर अश्लील इशारा करना आता है। इन मामलों के अलावाकोई भी ऐसा ऐक्ट जो भारतीय दंड संहिता  के तहत अपराध है की  शिकायत महिला कर्मी द्वारा की जाती हैतो नियोक्ता की जिम्मेदारी  है कि वह इस मामले में कार्रवाई करते हुए संबंधित अथॉरिटी को शिकायत करे व् सुनवाई करवाए , प्रदत  दिशानिर्देशों के तहत न्यायलय ने इस बात को सुनिश्चित किया कि महिलायें अपने कार्यस्थल पर किसी भी तरह से पीड़ित न हो।इसका उल्लंघन होने पर अनुशासनात्मक कार्रवाई का प्रावधान भी है। प्रत्येक कार्यालय आवशयक  कंप्लेंट कमिटी का गठन किया जाये जिसकी मुखिया  महिला होगी। कमेटी  में महिलाओं की संख्या आधे से ज्यादा होगी। इसके साथ ही हर कार्यालय को पूरे वर्ष के दौरान ऐसी शिकायतों और कार्रवाई के बारे में सरकार को रिपोर्ट करना होगा। इस दिशा निर्देशों के  बाद द प्रोटेक्शन ऑफ वुमन फ्रॉम सेक्शुअल हैरसमेंट एट वर्कप्लेस बिल, 2010 लाया गया जिसे 2012 में विधेयत के रूप में पारित किया गया।
यह विधेयक कामकाजी महिलाओं की सुरक्षा हेतु और भी महत्वपूर्ण है। इससे पहले विशाखा दिशानिर्देश में जो मानक बनाये गये थे उससे कई कदम आगे बढ़कर कार्यस्थल पर महिलाओं की प्रताड़ना रोकने हेतु यह वैधानिक पहल थी। इस बिल में यह निर्धारित किया गया कि तमाम कानूनों के बाद भी अगर कार्यस्थल पर महिला शोषित होती है तो उसे कहां और कैसे अपना विरोध दर्ज करवाना  है और क्या दण्डात्मक कार्रवाई की जायेगीइसका भी उल्लेख किया गया .इस बिल की खासियत यह रही कि इसमें हर तरह की कामकाजी महिलाओं को शामिल किया गयामसलन घरेलु कामगार महिलानीजि और सरकारी उपक्रमों में काम करने वाली महिला आदि,संगठित व् असंगठित क्षत्रों की महिलाओं के लिए  भी बिल में साफ तौर पर प्रावधान सुनिश्चित किया गया कि कार्यस्थल पर किसी भी तरह के यौन शोषण की जवाबदेही नियोक्ता के साथ जिला कलेक्टर की भी होगी एवं सभी कंपनियों को ऐसी शिकायतों को निबटाने के लिये एक शिकायत सेल का गठन करना होगा। इन कानूनों के अलावा निर्भया काण्ड के बाद बने एण्टीरेप लॉ व भारतीय दण्ड संहिता के तहत बनी अनके धाराओं की सहायता से महिलायें अपनी सुरक्षा कर सकती हैं और अगर वो किसी भी तरह से आंशिकमौखिक,शारीरिकसांकेतिक आदि रूप में यौन प्रताड़ित हुई हैं तो वो कानून की शरण ले सकती हैं।
इस आदेश के बावजूद अधिकतर सरकारी गैर सरकारी व् व्यावसायिक  संगठनों ने  कार्य स्थल यौन उत्पीडन रोकथाम कमेटी गठन नहीं की गयी है .प्रबंधन इसे हलके में लेते दिखाई दे रहें हैं और महिलाओं को इस सुविधा की गहन जानकारी नहीं है ,मुझे समरण है की एक बार मैं अपने पंचकुला जिले के उपयुक्त से आग्रह किया था की हमें सचिवालय में एक कार्यशाला आयोजित कर अपने कर्मियों को यह जानकारी देना है और मैं इस कार्यकर्म को आयोजित करने के लिए अपनी सेवाएँ देना चाहती हूँ तब तत्कालीन उपयुक्त बिजेंद्र सिंह आई ऐ एस ने मुझे बैरंग लौटा दिया था की हमारे दफ्तर में ऐसा कुछ नहीं होता हमें ऐसी कार्यशाला की ज़रूरत नहीं है -एक जिम्मेदार पद पर बैठे अफसर से मुझे इस प्रकार उदासीनता की कोई उम्मीद नहीं थी .फिर मैंने कैथल जिले के  तत्कालीन उपयुक्त अशोक खेमका से  सामान अनुरोध किया और उन्होंने तुरंत इस काम को हामी भरी और यथा योग्य सहयोग दिया ,हमें जिला सचिवालय में कर्मियों के साथ यह कार्यशाला आयोजित की जिसमे श्री अशोक खेमका ने अपना वक्तव्य दिया व कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान के प्रोफेसर श्री डरोलिया ने भी इस समस्या का मनोवैज्ञानिक पक्ष सामने रखा .ये प्रयास सराहा गया .परन्तु  केवल दिशा निर्देशों से समस्या का हल निकलता नहीं दिखाई दिया ,परन्तु आज के दिन यौन उत्पीडन अपराध की श्रेणी में शामिल हैं और दंड का प्रावधान है इसलिए इसका प्रभाव बढ़ गया है और महिलाओं को चुपचाप उत्पीडन सहने की जगह  विरोध दर्ज करवाना चाहिए और न्याय  के लिए आगे आना चाहिए .आज गंभीरता से हमें अपने अपने कार्य स्थलों के माहौल की समीक्षा कर लेनी चाहिए और काम काजी  स्त्री पुरुष के आपसी वयवहार की भी आचार सहिंता बना ही लेनी चाहिए ताकि इस कानून का कम से कम दुरूपयोग हो पाए  जहाँ महिलाएं बिना किसी संकोच के काम कर सकें . और पुरषों में भी झूटी शिकायतों का भय समाप्त हो जाये और स्त्री पुरुष दोनों के लिए ही  उचित
सकारात्मक माहौल भी सुनिशिचत हो पाए .अनेक केसों की सुनवाई पश्चात मैं कुछ सुझाव सभी कामकाजी
स्त्री पुरषों को अपने अगले लेख में  देना चाहूंगी ताकि वह एक महीन लाइन को समझ पायें की क्या 
उत्पीडन कहलायेगा क्या नहीं और संगठन किस प्रकार उत्पीडन निरोधक कमेटी बनानी चाहिए और कमेटी किस तरह व्यावसायिक कुशलता से जांच का सञ्चालन करे 
आपसे कुछ केस भी सांझा करती रहूंगी और कुछ विशेषज्ञों की राय भी आप तक पहुँचाने की चेष्टा करुँगी


प्रेषक -लेखक 


सुनीता धारीवाल जांगिड 
सामाजिक कार्यकर्ता व् सामजिक सलाहकार