कार्य स्थल पर यौन उत्पीडन किसे कहा जाये ?
चित्र -साभार -गूगल
महिला सशकीकरण के अवयवो में महिलाओं का आर्थिक रूप से सशक्त होना सबसे पहला व महत्वपूर्ण व अति आवशयक कदम है .ताकत के लिए जरुरी है की महिलाएं अर्थ उपार्जन के कार्यों में लगे ,ऐसे काम करें जिनसे
उन्हें धन मिले जिससे उनकी परनिर्भरता समाप्त हो और वह अपनी आजीविका स्वतंत्र रूप से चला सके अपनी मर्जी से अपने
धन का उपयोग कर सकें , आजाद भारत के बदलते परिवेश व् आधुनिक देश काल में स्वस्भाविक है की महिलाओ ने
आजीविका उपार्जन के लिए को ऐसे हर कार्य क्षेत्रो में प्रवेश किया है जहाँ पुरषों का वर्चस्व रहा है .पुरुष के एकाधिकार क्षेत्र में कमतर लिंग की
घुसपैठ के लिए पुरुष तो कतई तैयार नहीं था .अपवाद स्वरुप नारीवादी पुरषों को छोड़ कर - आजाद भारत का संविधान महिला पुरषों के लिए
अवसरों की समानता का सुखद सन्देश लाया यह
भारतीय सामाजिक व्यवस्था में बड़े बदलाव का रंगीन परचम था जिसमे महिलाओं को आकर्षित करने के तमाम रंग थे इस परचम तले महिलाओं के लिए शिक्षा के दरवाजे बाहें पसार खुले थे .धीरे धीरे महिलाएं गैर जरुरी परम्पराएँ तोड़
रही थी और फिर इंदिरा गाँधी जैसी महिला नेता का प्रधान मंत्री होना महिलाओं के सपनो को पंख
दे गया था –भारतीय राजनीती व् स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की भूमिका सुनना व पढना भी
लड़कियों को रोमाँचित कर रहा था .इतिहास में सक्रिय व् राजनीती में दिखाई दी जाने वाली महिलाओं ने जो मान सम्मान व् लोकप्रियता हासिल की थी उसके लिए उन्होंने अपने मिशन के लिए घर की देहलीज को पार किया था .उनके साहस के कारण ही उनकी सामजिक स्वीकार्यता संभव हुई थी .अब स्वतंत्र भारत की नव युवतियो के लिए किताबों में और समाज में अपने आस पास प्रेरणा दायी महिला रोल मॉडल उपलब्ध
थे.और खुली हवा में बाहें फ़ैलाने के स्वपन भी पैर पसारने लगे थे .अब तक छोटी बच्चियों ,युवतिओं को सामाजिक परम्पराओं के चलते
पुरषों को देयता और स्त्री को पुरुष पर निर्भर रहने के ही पारिवारिक व् सामाजिक निर्देशों मिले थे जिसे स्त्रियों ने पालन किया था और कर रहीं थी परन्तु शिक्षा ने उन्हें तर्क करने व् प्रशन पूछने लायक बनाने लगी .शिक्षा से उनमे आत्मविश्वास व् साहस भी मिला है और महिलाएं सशक्तिकरण के उपायों की और उन्मत हुई हैं .घर की दहलीज व्
चारदीवारी से बाहर निकल महिलाएं अवसरों की
मांग भी करने लगी और अपनी योग्यता को बढ़ाते हुए पुरषों के समकक्ष काम पर जाने लगी
, अब महिलाएं एक ऐसे कामकाजी माहौल में जा पहुँचने लगी जहाँ पहले से
पुरुषों का दबदबा कायम था उस काम की जगह का माहौल व् नियम पुरुषो द्वारा ही रचे गया था और ज्ञान व्
अनुभव भी पुरषों के पास ही अधिक था सामजिक ढांचे में यह स्तिथी आज तक भी बनी हुई है , कामकाजी स्थलों पर कार्य की चुनोतियों व् दबाव से निबटने में पुरुष आज तक भी अधिक् अनुभवी दीखता रहा क्यूंकि उसे अधिक अवसर प्राप्त होते रहे हैं .
पुरषों द्वारा रहे गए माहौल में जब महिलाओं ने अपने कदम रखना शुरू कर दिया तो यह पुरषों के लिए नया और असामान्य सा अनापेक्षित अनुभव था प्रथम दृष्टया इसे कमतर लिंगी( स्त्री ) मानव की श्रेष्ठ लिंग मानव (पुरषों) के क्षेत्र में घुसपैठ की तरह देखा गया .जिसे पुरषों ने पसंद नहीं किया और विरोध भी किया असहयोग भी किया और उपहास भी किया गया .बात बात में काम पर महिलाओं को नीचा दिखाने की भी चेष्ठायें भी जारी रही .अश्लील फब्तियां कसना , भद्दे यौन आचरण,अश्लील टीका टिपण्णी ,सहायता के एवज में सेक्स की अपेक्षा जैसे पुरुष व्यवहार से महिलाएं दो चार होती नज़र आई .पुरषों के लिए यह नई चुनौती थी जहाँ उन्हें अपने अहं और उच्च लिंगी श्रेष्ठता को बनाये भी रखना था और महिलओं की उपस्थिथि को स्वीकारना भी था . दरअसल सत्य यह है महिलाएं इस घुसपैठ के लिए तैयार थी पर
पुरुष नहीं इसलिए शुरूआती समय में समाज में भी कामकाजी महिलाओं को हीनता की दृष्टी से देखा
जाता था ,मुझे याद है आज से करीब पच्चीस साल पहले तक भी समाज में कामकाजी महिलाओं के प्रति समाज में आम धारना व्याप्त थी कि ये कामकाजी महिला या तो बेचारी है जिसके घर में कमाने वाला कोई नहीं है और या ये
लम्पट है जिनकी जरूरते पति /पिता की कमाई
से अधिक हैं और या ये स्वत्रन्त्र चरित्र
हीन है जो ऐय्याशी के लिए नौकरी करती है.यहाँ कामकाजी महिलाओं उन्हें कहा गया है जो विभिन्न दफ्तरों या संगठित क्षेत्र के व्यावसायिक संस्थानों में काम करने लगी थी या किसी ने अपने कोई ऐसे उपक्रम स्थापित किये जिसमे पहले पुरुष ही दीखते थे ,दुकानों पर बैठने वाली महिलाये होटल में सत्कार कार्यों में लगी महिलाएं या मजदूरी दिहाड़ी करने वाली सब महिलाएं शामिल थी .
समाज में कामकाजी स्त्री का
पति होना निंदनीय माना जा रहा था यहाँ तक जिसकी पत्नी या बहु बेटी नौकरी करे उस घर के मर्दों को मर्द की में गिनती शुमार
नहीं किया जाता था और उन्हें पीठ पीछे तरह तरह के ताने सुनने को मिलते थे .पत्नी की कमाई खाने वाले पिता या पति को हीनता की दृष्टी से देखा जाता था .अगर हम याद करें 1970 तक तो तो वैवाहिक विज्ञापन में भी लिखा होता था “नौकरी वाली नहीं “
परन्तु आज 2016 तक आते आते तो माहौल पूरी तरह विपरीत हो गया है लोग बाग़ दोहरी तनख्वाह के आर्थिक महत्व को समझ गए है और वैवाहिक विज्ञापनो में अब नौकरी वाली को प्राथमिकता शब्द से अखबार भरे पड़े हैं.स्त्री पुरुष दोनों की कमाई से लोगों ने कच्चे मकानों से पक्के होते देख लिए है आँगन में खड़ी साइकलों को कारों में बदलते देखा है सुविधा से सुसज्जित घर बच्चो की उच्च शिक्षा का सामर्थ्य बनते भी लिया है .जो पुरुष सरे आम अपनी मर्दानगी के गरूर में काम काजी औरतों को वेश्या कहने से भी नहीं चूकते थे उनकी भी मूंछ नीची हो गई है ,वह भी अपनी बेटियों या बहुओं के लिए नौकरी की पैरवी करते सत्ता के गलियारों में भटकते देखे जा रहें है ,महिलाओं की जिद व् जुझारूपन ने परिवेश बदल दिया है . स्कूल व् कालेज बोर्डो के परिणामो में परीक्षा प्रतियोगिताओं में तकनीकी संस्थानों में महिलाये आगे निकल रहीं है .उसी रफ़्तार से महिलाओं के नौकरी व कामकाज के अवसरों का निर्माण हो रहा है . अवसरों की उपलब्धता ने भी सामाजिक सोच में परिवर्तन ला दिया है .बड़े शहरों की युवतिओं की उन्मुक्त उड़ान की सोच ने आज
छोटे कस्बों में भी पैर पसार लिये हैं लडकियां पढ़ लिख कर शहर जा कर नौकरी कर रही है और करना चाहती है.विवाह की प्राथमिकतायें भी बदल रही हैं आताम्निर्भर बनना लडकियो की पहली प्राथमिकता में शामिल होता जा रहा हैं .निसंदेह कार्यस्थलों पर महिलाओं के उपस्थिथि और भी बढ़ने वाली है.पिछले दो दशकों में महिलाओ ने घर से बाहर तेजी से अपनी उपस्थिति दिखाई है और चुनौतियों को स्वीकारा है और खुद को सिद्ध भी किया है यह जज्बा न केवल काबिले तारीफ है बल्कि यह सामजिक
परिवर्तन का भी बड़ा उद्घोष भी है
यदि हम कामकाजी महिलाओं की स्थिथि को गहनता से देखें तो पाएंगे की महिलाओं ने आजादी के 35 -40 साल तक महिलाएं कार्यस्थलों पर यौन उत्पीडन का शिकार होती रही और सार्वजनिक मौन सा बनाये रखा .महिलाएं अवांछित माहौल में भी काम कर रही थी हालांकि देश भर में कही कहीं विरोध के सशक्त स्वर सुने दिए पर मांग आन्दोलन का रूप नहीं ले सकी .ऐसे व्यवहार से न केवल महिलाओं की कार्यक्षमता पर नकारात्मक असर पड़ा बलिक उनके बिना लिंगभेद सम्मानजनक जीवन जीने के सामान्य मानवाधिकारों का भी हनन हुआ . पिछले दशक कामकाजी महिलाओं की तस्वीर एक दुखद घटना ने बदल दी और सरकार को कड़े कदम उठाने पड़े .
वर्ष 1992 में राजस्थान के जयपुर जिले की तहसील बस्सी में अपराधिक घटना घटी बाल विवाह का विरोध कर रही भटेरी गाँव की सामजिक कार्यकर्ता भंवरी देवी के साथ सामुहिक दुष्कर्म हुआ तत्पश्चात उसकी हत्या कर दी गयी ,इस मामले में कानूनी फैसला आने के बाद विशाखा और अन्य महिला संगठनों ने उच्चतम न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की। इस याचिका में माननीय न्यायालय से आग्रह किया गया कि कामकाजी महिलाओं के बुनियादी अधिकारों को सुनिश्चित कराने के लिए संविधान की धारा 14, 19 और 21 के तहत कानूनी प्रावधान बनाये जाएं। इस मामले में कामकाजी महिलाओं को यौन अपराध, उत्पीड़न और प्रताड़ना से बचाने केलिए कोर्ट ने विशाखा दिशा-निर्देश दिये और अगस्त 1997 में इस फैसले में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की बुनियादी परिभाषाएं दीं। इसके तहत नियोक्ता की जिम्मेदारी है कि वह दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करे।न्यायाल्य ने 12 दिशानिर्देश बनाये। इसके तहत नियोक्ता या अन्य जिम्मेदार अधिकारी की जिम्मेदारी है कि वह कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को रोके। यौन उत्पीड़न के दायरे में छेड़छाड़, गलत इरादे से स्पर्श करना, यौन इच्छा का आग्रह करना, महिला सहकर्मी को पॉर्न दिखाना, अन्य तरह से आपत्तिजनक व्यवहार करना या फिर अश्लील इशारा करना आता है। इन मामलों के अलावा, कोई भी ऐसा ऐक्ट जो भारतीय दंड संहिता के तहत अपराध है की शिकायत महिला कर्मी द्वारा की जाती है, तो नियोक्ता की जिम्मेदारी है कि वह इस मामले में कार्रवाई करते हुए संबंधित अथॉरिटी को शिकायत करे व् सुनवाई करवाए , प्रदत दिशानिर्देशों के तहत न्यायलय ने इस बात को सुनिश्चित किया कि महिलायें अपने कार्यस्थल पर किसी भी तरह से पीड़ित न हो।इसका उल्लंघन होने पर अनुशासनात्मक कार्रवाई का प्रावधान भी है। प्रत्येक कार्यालय आवशयक कंप्लेंट कमिटी का गठन किया जाये जिसकी मुखिया महिला होगी। कमेटी में महिलाओं की संख्या आधे से ज्यादा होगी। इसके साथ ही हर कार्यालय को पूरे वर्ष के दौरान ऐसी शिकायतों और कार्रवाई के बारे में सरकार को रिपोर्ट करना होगा। इस दिशा निर्देशों के बाद ‘द प्रोटेक्शन ऑफ वुमन फ्रॉम सेक्शुअल हैरसमेंट एट वर्कप्लेस बिल, 2010 लाया गया जिसे 2012 में विधेयत के रूप में पारित किया गया।
यह विधेयक कामकाजी महिलाओं की सुरक्षा हेतु और भी महत्वपूर्ण है। इससे पहले विशाखा दिशानिर्देश में जो मानक बनाये गये थे उससे कई कदम आगे बढ़कर कार्यस्थल पर महिलाओं की प्रताड़ना रोकने हेतु यह वैधानिक पहल थी। इस बिल में यह निर्धारित किया गया कि तमाम कानूनों के बाद भी अगर कार्यस्थल पर महिला शोषित होती है तो उसे कहां और कैसे अपना विरोध दर्ज करवाना है और क्या दण्डात्मक कार्रवाई की जायेगी, इसका भी उल्लेख किया गया .इस बिल की खासियत यह रही कि इसमें हर तरह की कामकाजी महिलाओं को शामिल किया गया, मसलन घरेलु कामगार महिला, नीजि और सरकारी उपक्रमों में काम करने वाली महिला आदि,संगठित व् असंगठित क्षत्रों की महिलाओं के लिए भी बिल में साफ तौर पर प्रावधान सुनिश्चित किया गया कि कार्यस्थल पर किसी भी तरह के यौन शोषण की जवाबदेही नियोक्ता के साथ जिला कलेक्टर की भी होगी एवं सभी कंपनियों को ऐसी शिकायतों को निबटाने के लिये एक शिकायत सेल का गठन करना होगा। इन कानूनों के अलावा निर्भया काण्ड के बाद बने एण्टीरेप लॉ व भारतीय दण्ड संहिता के तहत बनी अनके धाराओं की सहायता से महिलायें अपनी सुरक्षा कर सकती हैं और अगर वो किसी भी तरह से आंशिक, मौखिक,शारीरिक, सांकेतिक आदि रूप में यौन प्रताड़ित हुई हैं तो वो कानून की शरण ले सकती हैं।
इस आदेश के बावजूद अधिकतर सरकारी गैर सरकारी व् व्यावसायिक संगठनों ने कार्य स्थल यौन उत्पीडन रोकथाम कमेटी गठन नहीं की गयी है .प्रबंधन इसे हलके में लेते दिखाई दे रहें हैं और महिलाओं को इस सुविधा की गहन जानकारी नहीं है ,मुझे समरण है की एक बार मैं अपने पंचकुला जिले के उपयुक्त से आग्रह किया था की हमें सचिवालय में एक कार्यशाला आयोजित कर अपने कर्मियों को यह जानकारी देना है और मैं इस कार्यकर्म को आयोजित करने के लिए अपनी सेवाएँ देना चाहती हूँ तब तत्कालीन उपयुक्त बिजेंद्र सिंह आई ऐ एस ने मुझे बैरंग लौटा दिया था की हमारे दफ्तर में ऐसा कुछ नहीं होता हमें ऐसी कार्यशाला की ज़रूरत नहीं है -एक जिम्मेदार पद पर बैठे अफसर से मुझे इस प्रकार उदासीनता की कोई उम्मीद नहीं थी .फिर मैंने कैथल जिले के तत्कालीन उपयुक्त अशोक खेमका से सामान अनुरोध किया और उन्होंने तुरंत इस काम को हामी भरी और यथा योग्य सहयोग दिया ,हमें जिला सचिवालय में कर्मियों के साथ यह कार्यशाला आयोजित की जिसमे श्री अशोक खेमका ने अपना वक्तव्य दिया व कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान के प्रोफेसर श्री डरोलिया ने भी इस समस्या का मनोवैज्ञानिक पक्ष सामने रखा .ये प्रयास सराहा गया .परन्तु केवल दिशा निर्देशों से समस्या का हल निकलता नहीं दिखाई दिया ,परन्तु आज के दिन यौन उत्पीडन अपराध की श्रेणी में शामिल हैं और दंड का प्रावधान है इसलिए इसका प्रभाव बढ़ गया है और महिलाओं को चुपचाप उत्पीडन सहने की जगह विरोध दर्ज करवाना चाहिए और न्याय के लिए आगे आना चाहिए .आज गंभीरता से हमें अपने अपने कार्य स्थलों के माहौल की समीक्षा कर लेनी चाहिए और काम काजी स्त्री पुरुष के आपसी वयवहार की भी आचार सहिंता बना ही लेनी चाहिए ताकि इस कानून का कम से कम दुरूपयोग हो पाए जहाँ महिलाएं बिना किसी संकोच के काम कर सकें . और पुरषों में भी झूटी शिकायतों का भय समाप्त हो जाये और स्त्री पुरुष दोनों के लिए ही उचित
सकारात्मक माहौल भी सुनिशिचत हो पाए .अनेक केसों की सुनवाई पश्चात मैं कुछ सुझाव सभी कामकाजी
स्त्री पुरषों को अपने अगले लेख में देना चाहूंगी ताकि वह एक महीन लाइन को समझ पायें की क्या
उत्पीडन कहलायेगा क्या नहीं और संगठन किस प्रकार उत्पीडन निरोधक कमेटी बनानी चाहिए और कमेटी किस तरह व्यावसायिक कुशलता से जांच का सञ्चालन करे
आपसे कुछ केस भी सांझा करती रहूंगी और कुछ विशेषज्ञों की राय भी आप तक पहुँचाने की चेष्टा करुँगी
प्रेषक -लेखक
सुनीता धारीवाल जांगिड
सामाजिक कार्यकर्ता व् सामजिक सलाहकार
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