मंगलवार, 26 जनवरी 2016

बेटियों को भी दीजिये एक अदद घर एक सुरक्षित छत -घोंसला चिड़िया का होता है चिडे का नहीं

घोंसला चिड़िया का होता है चिडे का नहीं
बेटियों को भी दीजिये एक अदद घर एक छत उसकी अपनी, केवल उसी की 

चित्र साभार गूगल 

बेटियों को शिक्षा के साथ साथ उसे घर दीजिये अपने सामर्थ्य अनुसार एक बंगले या एक कमरे या एक झोपडी की छत हो पर ज़रूर हो ताकि कोई जब जी चाहे  आपकी बेटी को  घर से न निकाल सके .उसे इतनी समझ दीजिये कि वह स्वतंत्र आजीविका कमाने लायक बने और अपना घर बनाना उसकी प्राथमिकता में शामिल हो .साथ ही उसे इतनी समझ भी दें कि घर का स्वामी होना क्या होता है कैसे उसे अपने घर नामक अपनी  सम्पति की सुरक्षा करनी है .हम सब मिल कर समाज में यह पहल कर सकते हैं इसी विचार को जन विचार बना सकते हैं जो व्यवहार में भी लाया जाये –बेटियों को कपडे गहने लत्ते देने से भी ज्यादा ज़रूरी है उसे एक घर देना उसके लिए छत सुनिश्चित करना .समय की मांग है और हमे बदलना चाहिए बेटियों की सुरक्षा में यह बड़ा कदम होगा .ताउम्र स्त्रियाँ किस घर को अपना कहे यही उलझन है. घर पति का ही है या पिता का या फिर  भाई का . कहाँ है मेरा अपना घर, मेरी अपनी ईंटें ,मेरी  चारदीवारी ,मेरी छत ,मेरा दरवाजा, मेरी खिडकियां ,मेरी हवा ,मेरा आँगन, मेरी धुप, मेरी मर्जी, मेरी अपनी जगह.मेरे हर एहसास बस मेरे हों यह सब हो पाना  एक  हसींन सपने  से कम नहीं . आज हर औरत को लगने लगा है कि वह इस प्रकार  स्वतंत्रता और आत्मविश्वास से  महरूम है अब उसे अपनी स्पेस चाहिए उसे भी अपना घर होने के  इस अनुभव से गुजरना है .घर की अहमियत उन महिलाओं को अच्छे से पता है जिसे दिन में कई बार घर से निकाल दिए जाने की धमकियों से दो चार होना पड़ता है
रागिनी को पति ने मामूली झगडे के बाद ठण्ड में आधी रात को घर से बाहर निकाल कर गेट बंद कर लिया और वह सारी रात बाहर ही रोती रही सुबह पडोसी ने रहम कर उसे घर के भीतर बुला लिया और पति को समझाया  बुझाया और फिर ही उसके  पति ने उसे घर में प्रवेश  करने दिया . पिछले दस से वर्चना मलिक  हर दिन चुपचाप अपने शराबी पति की हिंसा का शिकार होती है क्यूंकि वह जानती है की बच्चो को ले कर कहीं नहीं जा सकती .उसके पास पति के कारण एक अदद घर है छत है जिसके नीचे वह अपनी बच्चो को लिए शरण पाए हुए है और उसका कोई ठिकाना नहीं .ऐसी कितनी ही अनगिनत अनुभव  आये दिन हम अखबारों के माध्यम से पढ़ते हैं और अपने आस पास सुनते रहते हैं .अक्सर औरतो के मुंह से यह बात सुनने को मिल ही जाती है की अगर उसके पास कोई ठिकाना होता तो वह कब की इस यातना  बंधन से छूट जाती और कोई उसे बेघर करने की धमकी नहीं दे पाता .आज भी माता पिता की यह सीख कि ससुराल से  लड़ कर पिता के घर वापिस कभी मत आना जो तुम्हे मिला है तुम्हारी किस्मत अब तुम वहीँ एडजस्ट करों यही तुम्हारी जिम्मेदारी और बहादुरी भी  है .हर कठिनाई सहना ही तुम्हारी बहादुरी है .पलट कर मत देखना जीना अपनी जिंदगी वहीँ .यह दरवाजा बेटियों की रुखसती और बहुयों के आगमन के लिए है .महानगरो की आधुनिक समाज में पली बढ़ी  बेटियों के लिए यह मात्र  बम्बइया फ़िल्मी डायलोग है पर गाँव और कस्बों की युवतीयों के लिए आज भी उतना ही इस्तेमाल होता है जितना हमारे समय में 35 साल पहले और मेरी माँ के समय 55 साल पहले और हमारी दादीयों  ने भी यही सुना है और अपने जीवन में  सीख के इस सूत्र को गाँठ बाँधा बांध लिया होगा .कई सौ साल से महिलाओं के घर एक मुद्दा है खासकर उन समाजो में जहाँ पितृ सत्तात्मक  व्यवस्था व्यवहार में लायी जाती है और इस व्यवस्था में महिलाओं के घर के मालिकाना हक़ की कोई व्यवस्था आज तक नहीं है चाहे कानून में  महिलाओं को अधिकार मिल भी गए है पर समाज में इसे व्यावहारिक रूप लेने  में बहुत सामाजिक व् भानात्मक अडचने है 
.इसके एकदम विपरीत जिन समाजो में  मातृसत्तात्मक या मातृवंशी व्यवस्था है वहां घर महिला के  पास है. मेरे लिए भारत के उतर पूर्व में स्थित  मेघालय राज्य का  सबसे पुरातन स्त्री स्तात्मक समाज किसी आश्चर्य से कम नहीं था क्यूंकि वहां हर सम्पति ,घर वयवसाय पर स्त्री का ही अधिकार होता है और महिलाये इस व्यवस्था को किसी भी कीमत पर बदलना या छोड़ना नहीं चाहती . गत वर्ष अपने मेघालय दौरे के दौरान चेरापूंजी में मैंने एक महिला से पूछा कि घर औरत को क्यूँ मिले तो तपाक से जवाब दिया था खड्डू ने कि घोंसला चिड़िया का होता है कि चिडे का – बच्चे किस को बड़े करने है चिड़िया को  ही न –घोंसला चिडे को दिया तो क्या पता  कब नई मादा ले आएगा और आपके व् आपके बच्चो को चोंच मार मार घोंसले से गिरा देगा .हम तो प्रकृति को देखते हैं समझते है उसी तरह से हमारे सारे सामाजिक  नियम भी प्राकृतिक है –उसका कहना था कि हम महिलाएं पुरषों पर भरोसा नहीं करती कम से कम घर के मामले में और कह कर हंस दी .पर मेरी समझ में आ गया की घोंसला क्यूँ ज़रूरी है – वह सभी स्त्रियाँ जिन्हें न पति ने रखा और न पिता ने भाई भाभी ने फटकने भी न दिया एक फ़िल्मी रील की तरह मेरी आँखों के आगे तैरने लगी .तभी सोच लिया कि बेटियो को घर तो देना होगा .हरियाणा ,पंजाब ,उत्तरप्रदेश व् लगभग सारे भारत में बेटी को सम्पति का हिस्सा देना बड़ा विवाद है, अस्वीकार्य है और बेटियों के अपना सम्पति में पैतृक हक़ माँगना निंदनीय है ,यह स्थापित सामजिक व्यवस्था का हनन है जिसमे बेटी को पति के घर में ही रहने में सम्मान है ,जो माता पिता विवाह उपरांत अपनी बेटी को अपने घर में रखें हुए है उन्हें सम्मानित नजर से नहीं देखा जाता –अन्य छोटे बच्चो के रिश्ते तय करते वक्त यह बात सामने आती है की पहले से  ही इनकी एक  लड़की घर बैठी है दूसरी क्या बसेगी  ,और बेटी जो किसी अपरिहार्य कारणवश पिता के घर में शरण पाए है वह कितना अपमानित होती है आती जाती नज़रों से ,रिश्तेदारों के सवालो से और समाज के व्यवहार से .शादी शुदा लड़की का पिता के घर में रहना  पिता का सामाजिक अपमान होता है .सारा झगडा घर का है एक अदद सुरक्षित घर का जो लड़की के पास नहीं है और न ही समाज को लड़की का घर देखने की आदत है –यदि  महानगरों या उपनगरों  में भी आज किसी एकल लड़की का अपना घर है भी तो वह सामजिक रूप से  संदिग्ध घर  है सारे मोहल्ले की नजर उस घर में आने जाने वाले की और उस लड़की के क्रियाकलापों की और ,एकल लड़की का घर अछूत  घर है जिसे सब देखते है पर उस से व्यव्हार नहीं करते .उसे पडोसी  ही नहीं मानते .यह नया समाज है जिसके लिए दिमाग में ही जगह नहीं तो दिल में कहाँ बन पाई है .हाँ भारतीय कानून ने बड़ी राहत दी है लड़कियों के लिए यानि बेटियों के लिए पैतृक सम्पति की वयवस्था सुनिशिचित ज़रूर है .हिन्दू उतराधिकार  अधिनियम 1956 में पैतृक सम्पति को लेकर मिलने वाले अधिकारों का उल्लेख है लेकिन बेटियों के लिहाज से इसमें कुछ कमियां थी ,इसलिए सन 2005 में महिला हिन्दु उतराधिकार संशोधन अधिनियम लाया गया .इस संशोधन के बाद पुत्री को भी पिता की सम्पति में बराबर हक़ प्रदान किया गया है हिन्दू परिवारों  जिनमे सिक्ख ,जैन और बौद्ध भी शामिल हैं सभी में जो अधिकार पुत्र को प्राप्त होते हैं वही अधिकार अब बेटियों को भी सामान रूप से प्राप्त हैं .इस संशोधन से पहले बेटी पिता के घर पर रह तो सकती थी पर पिता की सम्पति में जमीन जायदाद पर उसे स्वामित्व का अधिकार नहीं दिया गया था .लेकिन अब जन्म के साथ ही बेटियों को पिता की  पैतृक सम्पति पर अधिकार प्राप्त हो गए हैं .यह नया प्रावधान 20 दिसम्बर से पहले हुए सम्पति के बंटवारे पर लागू नहीं होगा .किसी भी हिन्दू की मृत्यु इस कानूनी संशोधन के बाद हुई हो तो पैतृक सम्पति के उतराधिकार का निर्धारण नए प्रावधानों के अनुसार ही होगा .वसीयत न होने की स्तिथि में भी बेटी सम्पति में  बराबर की हिस्सेदार होगी .नया कानून यह कहता है की बेटी अपनी सम्पति के सारे निर्णय अपने अनुसार स्वयं कर सकती है .पुत्री को उसकी माँ की सम्पति में भी हिस्सेदारी होती है .बालिग महिला का स्वअर्जित सम्पति व् प्राप्त उपहार पर भी उसी का पूरा अधिकार होता है .

इस कानून ने निश्चित रूप से  समाज की ढकी तहों में खलबली मचा दी है घर में चर्चा हो रही है बेटी को सम्पति  कोई कैसे दे सकता है, जब शादी में दहेज़ इतना दिया है सारे तीज त्यौहार निबटा रहें हैं और बेटी के  बच्चो की शादी तक की सभी रस्मो में आर्थिक सहयोग दे रहें हैं गोयाकि बेटे की शादी में जैसे न कोई खर्च होता है न बेटा का परिवार खाता पीता है और न ही उस पर कोई खर्च होता है ,चलिए मान लेते हैं की बेटी की हर जम्मेदारी में पिता या भाई अपना फर्ज पूरा कर रहें हैं पर उन भाइयों का क्या जो कभी एक रुपया भी बहिन को देने न गए और पिता की सम्पति बेच बेच कर खा रहें है या बहनों के साथ कोई रिश्ता ही नहीं रखते और कभी उसकी खोज खबर नहीं लेते .यह विषय बहुत टेढ़ा है एक नई  सामजिक व्यवस्था को बनाने के लिए पुराणी व्यवस्था का हनन हो जाता है और पुराणी वयस्था अपनी उपयोगिता खोने लगती है –परिवर्तन प्रकृति  का नियम है व् सामाजिक परिवर्तन तो आएगा ही यह संवैधानिक  कानूनी अधिकार धीरे धीरे पुरातन सामजिक व्यवस्था  धीरे धीरे को बदल ही देगा भारतीय समाज में मात्र एक क़ानूनी व्यवस्था से सामजिक क्रांति आ जाने की अपेक्षा करना मुर्खता  है .यहाँ बदलाव तभी होते है जब बदलाव के फायदे- नुकसान के आंकलन में फायदे अधिक महसूस होते है और फायदों की सार्वजनिक स्थापना होने लगती है .
अभी तो सम्पति में अधिकार मांगने वाली  यह व्यवस्था घर तोड़ने वाली भाई बहिन या माता पिता व् बेटी के रिश्तों में कडवाहट लाने वाली ही मानी जा रही है ,जो बेटियाँ पिता की सम्पति में अधिकार मांग रही हैं उन्हें लालची और भाई भतीजों का हक छीनने वाली डाकिन ही कहा जा रहा है .उसका बहिष्कार किया जा रहा है .उसके घर आना जाना छूट गया है जो लड़की माँ बाप भाई भतीजों को कोर्ट कचहरी खींचे उसकी जम कर आलोचना हो रही है -और उससे रिश्ते तोड़े जा रहें है 
रिश्तों के मोल जमीन जायदाद से तुलने लगे है -कि तुम्हे भाई ज़रूरी है या पिता की सम्पति ?
बहनों से बोलचाल खतम हो रही है उसे ताने और उलाहनो से प्रताड़ित किया जा रहा है .
दुखद बात यह है जिस पर गौर करना भी ज़रूरी है अभी तक अधिकतर उन  महिलाओं ने पिता की सम्पति में अपने हक़ मांगे है जिनके पति या तो पिता व् भाई की तरह सफल नहीं हैं या वह किसी ऐब में हैं या ऐययाश किस्म के हैं और वह अपनी पत्नी पर भावनात्मक दबाव बनाते है कि यदि वह पिता की सम्पति में से कुछ हासिल कर ले तो उसके परिवार की स्थिथि सुधर सकती है और उनके बच्चे अच्छे से रह सकते है पढ़ सकते हैं .ऐसे प्रोत्साहित की गई महिलाओं ने अपने हक मांगे चाहे गिडगिडा कर चाहे प्यार से या दबाव से पर उन्होंने शुरुआत कर दी और माकन ज़मीन अपने नाम करवाने में सफल रही पर उनकी स्थिथि में फिर भी सुधार नहीं हुआ .निठल्ले पति ने औरत को बहला फुसला कर वह ज़मीन जायदाद पत्नी से अपने नाम करवा ली की वह अब नया व्यवसाय करेगा और उस सम्पति को दुगुना कर उसकी बाकी जिन्दगी को सरल बना देगा परन्तु ऐसा हुआ नहीं ,अधिकतर महिलाओं ने मिली ज़मीन पति के हवाले कर दी और सम्पति से हाथ धो बैठी न तो पति कुछ कर पाया और पीहर का भाईओं का भी सहारा जाता रहा .न घर के रही न घाट की 
-हालात फिर भी वहीं के वही बल्कि विपत्ति में उपलब्ध  जो एक दरवाजा पीहर का था वह भी बंद हो गया .कमी हमारी परवरिश में है हमने लड़कियों को अर्थ उपार्जन व् उसकी सुरक्षा करना निवेश करना सिखाया ही नहीं .आर्थिक स्वतंत्रता की समझ नहीं दी कभी बेटिओं या पत्नियों को धन की वयस्था करना धन को सही संभालना भी नहीं सिखाया इसलिए आई सम्पति और धन को कुंडली मार कर बैठना नहीं आया और मार खा गयी .आज भी महिला के पढ़ लिखने के बाद भी सोना खरीदने या सम्पति खरीद बेच के काम में पुरुष ही अग्रणी भूमिका में होते है औरतों से तो राय भी नहीं ली जाती ,बहुत कम स्त्रियाँ बड़े लेनदेन में भागीदारी कर पाती हैं 
महिला सशक्तिकरण के उपायों में पहला उसकी शिक्षा दूसरा आर्थिक स्वतंत्रता व् अर्थ की  सार्थक समझ  व् उसका अपना घर का होना भी ज़रूरी हो गया है .बाकि अन्य जैसे  भ्रमण की स्वतंत्रता,अपने मुख्य निर्णय लेने की क्षमता इतियादी भी इसी उपायों के साथ पीछे पीछे हो लेंगे 
 फिलहाल बस अपनी बेटियों को घर दीजिये घर की समझ दीजिये इस चिड़िया को  घोंसला विहीन मत बनने दीजिये और उन्हें शिक्षा से सशक्त कीजिये  
सुनीता धारीवाल 

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