शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

कहाँ रुकी मैं





कविता -कहाँ रुकी मैं 
सन्दर्भ - स्त्री और पुरुष दोनों का परस्पर सम्बन्ध तभी तक ही खुशनुमा हो सकता है जब दोनों में से कोई भी किसी दुसरे तो अपना मालिक न समझे और न ही दुसरे को अपना गुलाम बनाए  और उस  से  तुच्छ सा  व्यवहार  न करे ,भारतीय मातृसत्तात्मक व्यवस्था में पुरुष को स्त्री का मालिक यानि हाकिम यानि  उसका धनी स्त्री  तो उसकी जीती जागती  वस्तु , जिसके शरीर व् सोच पर भी उसके मालिक पुरुष का नियंत्रण होता है -सदियों से यही व्यवस्था व्यवहार में लायी जाती रही है ,पुरुष को मालिक स्वीकारना स्त्री की सहज परवरिश में शामिल हैं ,परन्तु स्त्री व् पुरुष का सम्बन्ध तो पूर्णत्या जैविक है प्राकृतक हैं जहाँ ऊँच नीच मालिक नौकर की कहीं भी सम्भावना नहीं होती ,प्राकृतिक तौर पर स्त्री पुरुष में ही अपनी पूर्णता महसूस करती है व् आनंदित होती है जो स्वाभाविक है परन्तु लिंग भेद के अप्राकृतिक सामजिक नियमो के तहत ही पुरुष को यह मानने की सीख  मिली है की वह सर्वश्रेष्ठ है और स्त्री हीन ,और वही उसका मालिक है सो जो चाहे जैसा भी व्यवहार करे व् उसे नियंत्रित करे ,स्त्रियों पर हिंसा और उत्पीडन इसी सोच का नतीजा है -पर स्त्री ने साबित किया है की वह अधिक बल रखती है बार बार उत्पीडित होने के बाद भी वह दुःख भुला फिर दोबरा उसी पुरुष जाती का सानिध्य ढूंढती है उसे माफ़ करती रही है और बार बार गिर कर भी उठती रही है -कहाँ रूकती है वह पुरुष को हर हाल में अपनाने से, यह कविता स्त्री की यही प्राकृतिक बाध्यता व् ताकत की ओर इंगित करती है -
और  मेरे जैसी आज की स्त्री जो  गवाह है बदल रहे समाज की और परिवर्तन के लिए उठ खड़ी हो गई है उसके द्वारा दी गई समझाइश भी इस कविता में प्रस्तुत है कविता -

कहाँ रुकी मैं


कहाँ रुकी मैं
तुम्हे  अपना  हाकिम मानने से 
तुम्हारी बाहों में खुद को कैद करने से
 तेरे आलिंगन में मदमस्त होने से
कहाँ रुकी मैं

अग्नि परीक्षा ली तुमने
 तुमने ही मुझको शिला बनाया 

खटिया के पाए के  नीचे
 पैदा होते ही गला दबाया

 कांच भरा मेरे मुख में
 घुट्टी की जगह सीसा था चखाया

 नमक भरा  था मेरे कोमल से मुख  में
जीते ते जी गाड़ा -मेरा स्वास मिटाया

फिर भी कहाँ  रुकी मैं
इस धरती पर जन्मने से 
और जन्माने से तुमको दाता बतलाने  से

समझोतों में बयाही मैं 
कितने मैंने थे राज बचाए

कोई हाथ लगाये न मुझको
कितने मैंने जौहर अपनाये

मैं रूप कवर मैं  जल बैठी
मैं मैया सती भी बन बैठी

बस तेरा धर्म निभाने को
मैं थी बस  तेरी कहलाने को 
  
 फिर भी  कहाँ  रुकी मैं
तेरे आलिंगन में दुनिया पाने से

तू जाने न था कौन हूँ मैं
फिर भी पगलाई रहती हूँ 

तेरे दर्शन को तेरे नैनों से
अपने यह नैन मिलाने को

मैंने महल दोमहले छोड़ दिए 
भगवा बाणा पग में घुँघरू कांटे

कहाँ रुकी मैं
मंजीरे खडताल बजाने से
बस गीत तुम्हारे गाने से
और जहर के प्याले पीने से
कहा रुकी मैं

कितने स्टोव फटे घर घर
चीखी चिल्लाई  राख हुई

एक पल में मरी हजारो बार
 चमड़ी उधडी बेहाल हुई

कहाँ रुकी मैं
अपना आखिरी  बयान देने से  
 कि मर्द मेरे की कहाँ कोई  गलती हैं  
 कम्बखत निकला बैरी मेरा ही दुपटटा 
जो आग पकड़ मुझे निगल गया 
मैं पिटती हूँ और मिटती हूँ
तन नीला है और काला है

तुमने क्या लेना देना है
मेरा घर मेरा ही घरवाला है

गलती  मेरी मैं - मैं कुलटा हूँ
मैं फिसल गई ज़रा बहक गई

मेरी सांस पे  हक ये तुम्हारा है
 चलो घोंप दो छुरे और तलवारें

सबक यही ये हमारा है
कहाँ रुकी मैं
मौत को गले लगाने से 
तुमको सच्चा दिखलाने से 

जब चाहा मैं चांडाल हुई
खाए पत्थर लहू लुहान हुई

मंडी में मुझ को बेच आये
कोड़े भी मुझ पर बरसाए

काले पर्दों में घुटी रही
चाकरी में तुम्हारी  जुटी रही

कहाँ रुकी मैं 
 घूंघट के पट में इतराने से
तेरी आँखों से शर्माने से

सरे आम गोंव में नंगा कर
अपनी मूछों को घुमाया है

यह गुफा जहाँ से जन्मे हो
लोहे की छड़ से नपवाया है

मेरी आंत खींच ली  हाथो से
 पर अंत मेरा न आया है

कहाँ रुकी हूँ मैं 
बॉयफ्रेंड बनाने में और रात को पिक्चर जाने से

जार जार मैं रोती हूँ  
जब जाँच भ्रूण की होती है

शमशान कोख का बनवाया 
चाहे लाश बनी मेरी काया

 मेरे अंग अंग में राध भरी 
 बिस्तर तेरा फिर भी गरमाया

फिर भी कहाँ रुकी मैं
नसबंदी  भी अपनी करवाने से
चंद्रमा को अर्घ्य चढाने से 

बात बात पे गाली बकते थे
मुंह खोलो तो घूंसे पड़ते थे

 लड़खड़ाते रात को घर आना 
 मुह की दुर्गन्ध को अपनाना
 जब मैली चादर मैं धोती  थी
कितनी उबकाई होती थी 

 हाय कितनी निढाल मैं होती थी
घर में बेहाल न सोती थी 

एक दिन फिर सब बदल गया
तेरा नशा गुर्दे को निगल गया

अब बिस्तर तुम्हारा ठिकाना था  
और मैंने ही  तुम्हे बचाना था

फिर भी कहाँ रुकी मैं
जान मेरी का सौदा कर बस  तेरी जान बचाने से
गुर्दे अपने निकलवाने से 

देखो सदी बदलती जाती है 
और समझ मुझे भी आती है 

बस बहुत हुआ अब न होगा
ये मैं थी या मेरी माँ थी

मेरी माँ की माँ या पडनानी थी
 अब न  ये सब दोहराया जायेगा 
क्यूंकि मैं मिटा  रही हूँ हर रोज
 मेरी माँ दादी नानी की खींची सब लकीरें

अनसुनी भी कर  रहीं हूँ
तुम्हारे रचे समाज की सब तकरीरें

मैं नया कायदा लायी हूँ
मैं न्य इरादा लायी हूँ

मैंने भाषा नई बनायीं है
नई आशा मैंने जगाई है

मेरा हरेक  पहाडा उल्टा है
उस से सब कुछ सुलटा है

मेरा गूंगा बड़ा नगाड़ा हैं
मैंने तेरा काम बिगाड़ा है  

न चुप रहना सिखलाती हूँ
न छुप रहना बतलाती हूँ  

,मैं तुतलाती सी लड़की को
 रानी झांसी दिखलाती हूँ

फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता में
 उसे दुर्गा या काली ही बनाती हूँ

मैं सीना तान खड़ी हु अब
बहु बेटियां अपनी बचाने को

उनकी आवाज सुनाने को
गुलाबी परचम फेहराने को

 आज मैं  नगर गुलाबी आई हूँ
नया स्वैग गुलाबी लायी हूँ

ओ नगर गुलाबी की बेटी

तुम टांगो ओढ़नी खूंटी पर –
बक्से में धरो लहंगे चूड़े

तुम चढो सियाचिन की चोटी
और बर्फ स्कूटर दौड़ा लो

दस दस फुट ऊँची बर्फ में तुम
बन्दूक निशाने ले लेना

पहनो तुम वर्दी झक सफ़ेद
झटपट  स्नोमैन बना देना

जाओ पहनो स्किन टाइट डाइविंग कॉस्टयूम
और हाथ कैमरा ले जाना

सागर में  मारो  गहरा गोता
एक सीप और मोती ले आना

खेलो आँख मिचौली पनडुब्बी में
तुम तट रक्षक ही बन जाना

 युद्ध पोत की अगली रेलिंग पर
देना टांग गुलाबी तुम झंडा

टाईटैनिक पोस बना लेना
जयपुर की याद दिला देना

तुम पहनो जम्पसूट पायलट का
और फाइटर प्लेन उड़ा लेना

निकलेगा  धुआ उस जेट से जो  
उसमे रंग गुलाबी मिला देना

तुम्हे आकाश नापते देखूं मैं
कभी देखूं तुम्हारे बक्से को

तुम करो सवारी टैंको की
धरती को तुम ही  कंपा देना

तुम्हे तोप लगेगी गुडिया सी
असले से उसे सजा देना 
तुम मोह छोड़ दो रंगों का
काली वर्दी भी जच जाएगी

ज़रा बनो कमाडो खोलो पैराशूट
तेरा हेलमेट ही केश सज्जा बन जाएगी 

काली को काली वर्दी में देख
आतंकवाद की माँ मर जाएगी 
तुम पहनो काले रंग का कोट
मिटा दो  न्याय वयवस्था के सब खोट

इनजिनिअर,टीचर,डॉक्टर या वैज्ञानिक बनो
 चाहे अन्तरिक्ष की परी बनो

गर सृष्टि तुम्हे बनानी है
तो धरती भी तुम्हे बचानी है

तुम जो भी बनो बस बन जाना
मैं न तुमको कभी रोकूंगी

कहीं भी पढना कहीं भी सीखना
चाहे हॉस्टल में रहो या पी जी में

 चाहे कमरा किराये ले ले लेना
मैं न तुमको कभी टोकुंगी

तुम फिल्म करो या नौटंकी
या टीवी की एक्टर बन जाना

चाहे चढ़ना संसद की सीढ़ी
चाहे मेयर बनो या करो सरपंची 
बस अपना सौ प्रतिशत देना
मैं लड़ लुंगी सारे जग से

बस तुम सपने बुनती जाना   
मैं न कहूँगी कभी बोझ हो तुम

बेधडक कभी भी आ जाना
ताउम्र ये घर भी तुम्हारा है

 जब चाहो  तभी चली आना
गर नैन मिलाना जो चाहो

 तो वह भी तुम आजमा लेना
 नौबत गर आ जाये टूटन की

पहले तुम खुद  को बचा लेना  
फिर बाद में घर की सुध लेना

और पंख समेटे आ जाना  
मैं सिखलाऊंगी फिर उड़ना

उड़ना और नभ पर छा जाना
मैं  नहीं दूंगी वास्ता कभी

तुम्हारे  पिता की पगड़ी का
कभी बिरादरी के नियमो का

बस बेटी अपनी बचाऊगी
उसको उड़ना सिखलाऊगी

समझौतों की बलि से बचाऊगी
तुम्हे जीवट मैं ही बनाउंगी

तुम गाँठ बाँध लो शिक्षा ही
तुम में स्वाभिमान जगाएगी

आत्मनिर्भरता और आत्मरक्षा
के सारे गुर तुमको सिखलाएगी

तुम करोगी नेतृतव जग का
और जन नेता बन जाओगी

देख तुम्हारी आभा को 
मैं  वारी वारी जाउंगी

जो कोई प्यार से मुझे बुलाएगा 
मैं दौड़ कर चली आउंगी

सारे देश की कुड़ियों चिड़ियों में  
मैं  स्वैग गुलाबी दे  जाऊंगी 

तुम्हारे सपनो की रंगीन सी दुनिया में 

मैं भी ब्लैक एंड वाइट सी चली आउंगी

सुनीता धारीवाल जांगिड 

यह कविता मैंने जयपुर स्थित कनोडिया महिला महाविद्यालय के वार्षिक पारितोषिक वितरण समारोह में अपने संबोधन हेतु लिखी थी जो खासी चर्चित और प्रशंषित भी हुई 


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