बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

झंझावत
















मेरे दिन कितने चुप चुप हैं
कितनी उदास हैं शामें
हैं सन्नाटा सी रातें
और सुबह थकी थकी सी
यादों में हंगामे हैं
आँखे है तपी तपी सी
यूँ तो हासिल सब कुछ है
पर  है  कुछ  कमी कमी सी
मेरा मन आँगन तांडव सा
कभी मौन सी कथकली
दिल उछल रहा सागर सा
साँसे मीन सी मचल रही है
झंझावात है सपनो में
माथे पे रेखाएं उभर रही है
जाने कौन गली है बुलाती
किस शहर मुझे जाना है
कोई माझी नहीं नाव का
पर उस पार मुझे जाना है
जहाँ शून्य में इक शून्य है
उस तमस उत्तर जाना है
मैं चल दूंगी मैं पथिक हु
अभी दूर मुझे जाना है
भीतर की राह कठिन है
यायावर होती जाना है
सतहें जितनी ब्रमांड में है
सबमे हो कर आना है
बस प्रेम फैलाना था मुझको
उस से ज्यादा पाना है
भवर  कितने  भी  आयें 
तनिक भी  नहीं  डरूंगी
उनसे  भी गले  मिल लूंगी

सुनीता  धारीवाल  



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