गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

wild wild country

Wild wild country ओशो के बारे में उसकी विवादास्पद यात्रा के बारे में देख लीजिए netflix पर 
सब माजरा समझ आ जायेगा ।एक कहानी में कई कहानियां है रोचक ,हैरान कर देने वाली , सोचने पर मजबूर करने वाली ।कुल मिला के दिलचस्प है  ।यह सब  उस दौर में तब घट रहा जब मैं अपनी किशोर अवस्था को पार कर रही  थी और ओशो का जिक्र वर्जित था समाज मे टैबू था पर हम ने सिर्फ नाम सुना था कि कोई बाबा है गन्दा आश्रम है उसके बारे में कोई जिज्ञासा और बात नही करनी होती ।मुझे याद नही किस ने मुझे एक कैसेट दी थी ओशो के एक लेक्चर की ।तब 
मैं 30 वर्ष की आयु में  थी तब वह  कैसेट सुनी थी जिस में स्त्री के बारे में थी । कि स्त्री आखिर है क्या ।उस कैसेट के बाकी कंटेंट तो याद नही बस  एक बात जो मैने सीखी और अपनाई वह यह थी कि स्त्री का सबसे खूबसूरत रूप उसका मां हो जाना है वह किसी की भी मां बन सकती है ।स्त्री तब पूर्ण स्त्री है जब कोई कामातुर पुरुष आप के पास आ जाये और आपके सामने आते ही उसकी वासना की ऊर्जा बदल जाये वह आपके  पास आते ही पुत्र हो जाये और आपकी गोद मे सर छुपा कर माँ की सुरक्षित गोद की गर्मी को महसूस करे ।वह नतमस्तक हो जाये घुटनो के बल बैठ कर वह बालक हो जाये ।आपका पति भी आपका बालक हो जाये वह मां की ऊर्जा को महसूस करे ।तभी स्त्री की सार्थकता है ।
मुझे यह बात बहुत असर हुआ कि मैंने सब की मां हो जाना स्वीकार किया ।कि मन मे कभी किसी के लिए यदि भाव बनने लगे तो भावों को मां बनने की ओर केंद्रित कर दो ।अनेक बार जीवन मे मैंने इस मां के रूप को जीवंत किया है बहुत से लोगो के लिए ।जब हम मां हो जाते है तो सिर्फ आपको मातृत्व प्रेम से भर जाना होता है ।हम सब गलतियां माफ करती रही जीवन भर ।माँ हो कर देखने भर से ही हम कितने लोगों के प्रति दया और प्रेम महसूस कर के उन्हें माफ करते है ।
सच में मेरे जीवन मे यह कारगर हुआ ।जब आप एक बेहद सुंदर और आकर्षक युवा महिला है तब ऐसे किसी भाव से या कहो तकनीक से लैस हो जाना एक वरदान होता है जो हमें बहुत से अनचाहे अनुभवों से बचा लेता है ।यह मां हो जाने की सोच एक बहुत बड़ा सुरक्षा कवच है जिसका इस्तेमाल मैंने बहुत किया ।यह कम योगदान नही है ओशो का मेरे जीवन में

सोमवार, 27 अप्रैल 2020

जिसे जरूरत का मेरी 
कभी कोई अंदाजा नही

उसी से दोस्ती करने का 
अब मेरा भी  इरादा नही 

रूह की तरंगे  नही  समझा 
ज़ुबान क्या खाक समझेगा 

जो आहो को नही समझा 
आंसू क्या खाक समझेगा 

जो फुर्सत में ही सुनेगा  मेरी 
उसे मैंने अब  क्यूं ही कहना है 

अकेली कोमल नदी हूँ मैं
मुझे चट्टानो में बहना है 

कहीं पर चोट खाना है 
कहीं पर मोड़ खाना है 

समुंदर तुम नही शायद 
जहां मुझ को मिल जाना है 

जब  जहां हवाऐं ले जाएं 
उसी दिशा मुझ को बहना है 

मेरी हर उम्मीद पर उसने 
करना हर रोज बहाना है 

गली है  गर संकरी तेरी 
मुझे क्यों उस मे जाना है 

मिलो जो गैर की तरह 
तो क्यूं मिलना मिलाना है 

शेष फिर 

सुनीता
न आंसू समझता है न खामोशी समझता है 
थक गए  मेरे शब्दो की न बेहोशी समझता है ।
 मेरी सपनीली आँखों की न मदहोशी समझता है 
समझता है कि मैं समझती हूं कि वो कुछ भी नही समझता है
इतनी बॉवली भी कोन्या 
सुनीता धारीवाल
सुरक्षा नामक 
सभी हथियारों का  
खूब पता है मुझे 
आजीवन सश्रम 
 सुरक्षा कारवास में 
मुझे नहीं रहना 

सुनीता धारीवाल जांगिड़
पैरो पे खड़े हो
शहतीर इक्कठा करो 
छत में हिस्सा 
पगली आसान नहीं है 

सुनीता धारीवाल जांगिड़
जिस्मो के बाज़ार में 
चीखने पर कौन रुकता है 
कौन ठहरता है 
सिसकियों के गीत पर 
बढ़ जाता है उन्माद 
आवाज तेज होते ही 

सुनीता धारीवाल जांगिड़

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

ओढ़ लिए हैं
बुर्के मैंने 
आँखों पर
ढक लिया है
दिल भी
छुपा लिया है
मन मतवाला
घूंघट में
वाह 
बढ़ गयी हैं
आसानिया
आह
बढ़ गयी हैं
 उदासियाँ 

सुनीता धारीवाल जांगिड

सोमवार, 20 अप्रैल 2020

बहुत किया 
बेहिसाब 
आ 
अब हिसाब करते है 
ए जिंदगी
बार बार 
नजर बचाई 
कभी झुकाई
कभी मिलायी 
फिर एक दिन 
नज़र लग गयी
और  
नज़र जाती रही
बहुत कुछ होता है 
एक औरत के पास 
धन सम्पति के
के  अतरिक्त भी
जिसे लूटने की फ़िराक में 
होता है जहान
जब 
वह अकेली होती है 
तब 
पात्र बन विश्वास का 
उकेरते है 
परत दर परत 
उसका सब 
तन मन धन 
अब 
वो खाली भी होती है 
अकेली भी
वो एकतरफी पक्की सड़क 
मैं कच्चा रास्ता 
सैंकड़ो पगडंडियों वाला 
उबड़ खाबड़ झाड़ झंखाड़
अस्त व्यस्त अभ्यस्त

प्रिय पतिदेव को समर्पित
तुम्हे क्या पता 
कितनी बार मरी वो 
मरने से पहले 
शर्म से 
उपहास से 
आत्मग्लानि से 
अवसाद से 
अनदेखी से 
जीने के लिए 
चाहिए ही क्या था उसे 
बस थोड़े से 
प्रेम 
विस्वास 
सरंक्षण 
और सम्मान के सिवाय
आँखे तुम्हारी@ बिछे हम जाते है

सोमवार, 13 अप्रैल 2020

बहुत मजबूत डोर से बंधा 
भाई मेरा 
भोगौलिक दूरी पर 
आज मुझे ताकता है 
और पा लेता है 
आती जाती ध्वनियों में 
तरंगो में 
और हम बात भी करते है 
बिना कुछ कहे सुने 
अति सूक्षम कुछ अहसास
 हम करते है 
बिना कलाई को छुए
 और बिना किसी धागे
और मनाते है साल दर साल 
यूँ ही खूबसूरत सा 
बिना औपचारिकता 
रक्षा बंधन 
जानती हूँ वो प्राण है 
मैं देह।। निसंदेह

बुधवार, 8 अप्रैल 2020

न मैं जमीन पर हूँ न आसमाँ पर हूँ 
प्यार है तुमसे और तुम्हारी जुबां पर हूँ
ए औरत 
तू बेल 
अंगूर की 
 माली का छद्म वेश धरे 
व्यापारी से बच 
निवेशक से बच 
वो सीचेंग 
धैर्य से 
एक दिन 
तेरा मर्दन कर 
मदिरा के लिए 
तू बच 
दूर निकल जा 
व्यापारी की 
पंहुच से दूर 
चिल्लाने दो 
खट्टे अंगूर हैं अंगूर खट्टे हैं 
सम्भालो 
फल  अपने 
व्यापार के लिए 
नही 
देव समर्पण के लिए हैं 
ऊंची उठो 
बहुत ऊंची
पँहुच से बाहर
हो जाओ 
और जियो 
अपनी स्वतंत्रता 
अपनी नियति
तुम वस्तु नही हो 
जीवन है तुम में 
जियो अपने मन से 
छद्म धूर्त साधु संत 
तुमको मिलते रहेंगे अनन्त 
बढ़ी चलो ..

मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

शक्ति हूँ मैं 
अवतरित होती हूँ 
जब बन आती है 
मेरी अस्मिता पर 
और तब 
पूजने लगते हो तुम

सोमवार, 6 अप्रैल 2020

कोई तो ऐसा लम्हा हो 
जिसको दोहराना चाहूँ मैं 

कोई रूठे तो सच में मुझसे 
जिसको मनाना चाहूँ मैं 

हूँ राम रची में मैं राजी 
पाया सब अपनाना चाहूँ मैं
वो कहाँ कब मेरी ओर झुका
मैं  लिखा समझ कर झुकी रही 

इतना अनजान कहाँ है तू 
यह मान के मैं तो छुपी रही 

जा कर ले जो तूने करना है 
इस जन्म का यहीं भरना है

तू दाता है जो मर्जी दे 
बस थोड़ी सी खुदगर्जी दे 

कुछ कागज़ मेरे फिर से लिख दे 
न फेर नज़र ये अर्जी ले 
 
कुछ तो  रहता  है थोडा ही सही 
आखिरी  बार मुझे मन मर्जी दे 

सुनीता धारीवाल

रविवार, 5 अप्रैल 2020

ऐ साहिब.....!!
तुम्हीं तो हो मेरे यकीन 
बस तुमसे ही  करूँ मैं मेरी शिकायते 

ए साहिब 
तुम ही तो हो 
मेरी भोर अलसाई सी 
तुम पर बिछ जाऊँ
 मैं ओस बन के 
ए साहिब 
तुम ही तो हो 
सुबह का सूरज 
तुम्हे ही दूँ मन अर्घ्य मेरा
ए साहिब तुम ही तो हो 
..

शनिवार, 4 अप्रैल 2020

लोक संगीत

लोक संगीत जीवन का उत्सव है उन में छंद हैं ताल है जीवन थिरकता है उस मे ।साहित्य भी है उसकी रचनाओं में  और रचनाकार अपनी रचना समाज को अर्पित कर देता है वह  गीत सभी का हो जाता है समाज का हो जाता है वह रचना सभी की सांझी हो जाती है रचयिता गुमनाम रहता है ।
यह लोक समर्पण है और सब  लोक रंग बहुत रंगीले हैं ।जब जब कुछ भी रचा गया वह  उस देश काल के समाज का हस्ताक्षर है वही साहित्य  आईना भी  है समाज का ।समाज की मान्यताओं का समाज के व्यवहार का समाज के रंजन का अद्भुत प्रकल्प है ।लोक संगीत माटी की खुशबू से सना रूह का आनन्द है इसकी स्वर लहरियां , समूह में गाते बोल , ताल पर थिरकते कदमो की धमक आध्यात्मिक कीर्तन का स्वरूप हैं जहां भागीदार भी आनन्द से विभूत होता है और देखने सुनने  वाले का मन भी नर्तन करता है ।
आनंद की हिलोर से सहज ही निकले बोल  भाव सहज ही पद ताल , एड़ी का बजना दुनियावी भौतिक आनन्द से ऊपर का  अनुभव है 

कुछ माह पहले की बात है हम एक सांस्कृतिक कार्यक्रम की रिहर्सल कर रहे थे जिस में पहले फिल्मी गीतों को गाया गया फिर लोक संगीत की बारी आई तो मैं अनायास ही झूमने लगी लोक संगीत भी हरियाणा ही का था जो भी मेरी रूह ने प्रतिक्रिया दी वह प्रकृतिक ही थी। मेरा फिल्मी गायन के प्रति उदासीन रहना  फिल्मी गायन वालो को थोड़ा नागवार गुजर गया और मुझ पर तंज कसा गया  कि मैडम  आप तो सिर्फ हरियाणवी की ही प्रसंशा कर सकते हो क्योंकि आपने सुना ही वही है और आपको ज्ञान ही बस उतना है यही आपकी सच्चाई है ।अवहेलना किसे अच्छी लगेगी ।उन्हें मेरा रुचि न लेना अवहेलना ही लगा तो उक्त कलाकार ने क्षोभ और  आवेग में कह दिया मुझें हरियाणवी के सिवाय कुछ नही आता ।एक दिन उस वाकये को याद कर के  यकायक मेरे मन ने सोचा कि क्या सच मे मुझे सिर्फ और सर्फ  हरियाणवी ही समझ आता है और मुझे इतना ही पता है ।मैंने स्वयं में उत्तर खोजा कि मुझे तो अभी हरियाणवी भी अच्छी तरह नही सुनना आता।मैंने कभी गौर से कंठस्थ करलेने की हद तक रूह में उतारा ही नही  ।
मुझे अब जानना था गहराई से  कि क्या चमोला, बहरे तबील, काफिया, अली बख्श चमोला, सोहणी, कड़ा, मंगलाचरण, चौपाई, शिव स्तुति, गंगा स्तुति, गुग्गा स्तुति शब्द, ख्याल, लामणी, हाथरसी चमोला, आल्ला, सोरठा, निहालदे, झूलणा, ढोला, ढोली, उल्टबांसी, पटका, बारामासा, नौ दो ग्यारह, त्रिअक्षरी, दौड़, रागनी, राधेश्याम, साक्खी, छोटा देश, साका, नशीरा, देव स्तुति, दोहा, बारहमासे गीत ,संस्कार गीत , ऋतुओं के गीत ,उत्सवों के गीत ,लोक नाट्य के गीत ,उनके राग उनकी उतपति उनका प्रभाव उनका साहित्य दर्शन अभी तक गहराई से कहाँ सुना मैंने ।जब मैने ही नही सुना तो मैं अगली पीढ़ी को क्या दे जाउंगी।क्या समझ दे सकूँगी ।किसी भी बात का भान होने में और  उसका ज्ञान होने में  अंतर होता है ऐसे ज्ञान होने में दक्षता हासिल करने में अंतर होता है और दक्षता हासिल होने पर उस विधा का  सेवक होने में अंतर होता है । अनेक बार हमें भान तो होता है पर ज्ञान नही ।और ज्ञान की तो बस पिपासा होनी चाहिए माँ सरस्वती हाथ पकड़ ही लेती है ।

सुनीता धारीवाल