लोक संगीत जीवन का उत्सव है उन में छंद हैं ताल है जीवन थिरकता है उस मे ।साहित्य भी है उसकी रचनाओं में और रचनाकार अपनी रचना समाज को अर्पित कर देता है वह गीत सभी का हो जाता है समाज का हो जाता है वह रचना सभी की सांझी हो जाती है रचयिता गुमनाम रहता है ।
यह लोक समर्पण है और सब लोक रंग बहुत रंगीले हैं ।जब जब कुछ भी रचा गया वह उस देश काल के समाज का हस्ताक्षर है वही साहित्य आईना भी है समाज का ।समाज की मान्यताओं का समाज के व्यवहार का समाज के रंजन का अद्भुत प्रकल्प है ।लोक संगीत माटी की खुशबू से सना रूह का आनन्द है इसकी स्वर लहरियां , समूह में गाते बोल , ताल पर थिरकते कदमो की धमक आध्यात्मिक कीर्तन का स्वरूप हैं जहां भागीदार भी आनन्द से विभूत होता है और देखने सुनने वाले का मन भी नर्तन करता है ।
आनंद की हिलोर से सहज ही निकले बोल भाव सहज ही पद ताल , एड़ी का बजना दुनियावी भौतिक आनन्द से ऊपर का अनुभव है
कुछ माह पहले की बात है हम एक सांस्कृतिक कार्यक्रम की रिहर्सल कर रहे थे जिस में पहले फिल्मी गीतों को गाया गया फिर लोक संगीत की बारी आई तो मैं अनायास ही झूमने लगी लोक संगीत भी हरियाणा ही का था जो भी मेरी रूह ने प्रतिक्रिया दी वह प्रकृतिक ही थी। मेरा फिल्मी गायन के प्रति उदासीन रहना फिल्मी गायन वालो को थोड़ा नागवार गुजर गया और मुझ पर तंज कसा गया कि मैडम आप तो सिर्फ हरियाणवी की ही प्रसंशा कर सकते हो क्योंकि आपने सुना ही वही है और आपको ज्ञान ही बस उतना है यही आपकी सच्चाई है ।अवहेलना किसे अच्छी लगेगी ।उन्हें मेरा रुचि न लेना अवहेलना ही लगा तो उक्त कलाकार ने क्षोभ और आवेग में कह दिया मुझें हरियाणवी के सिवाय कुछ नही आता ।एक दिन उस वाकये को याद कर के यकायक मेरे मन ने सोचा कि क्या सच मे मुझे सिर्फ और सर्फ हरियाणवी ही समझ आता है और मुझे इतना ही पता है ।मैंने स्वयं में उत्तर खोजा कि मुझे तो अभी हरियाणवी भी अच्छी तरह नही सुनना आता।मैंने कभी गौर से कंठस्थ करलेने की हद तक रूह में उतारा ही नही ।
मुझे अब जानना था गहराई से कि क्या चमोला, बहरे तबील, काफिया, अली बख्श चमोला, सोहणी, कड़ा, मंगलाचरण, चौपाई, शिव स्तुति, गंगा स्तुति, गुग्गा स्तुति शब्द, ख्याल, लामणी, हाथरसी चमोला, आल्ला, सोरठा, निहालदे, झूलणा, ढोला, ढोली, उल्टबांसी, पटका, बारामासा, नौ दो ग्यारह, त्रिअक्षरी, दौड़, रागनी, राधेश्याम, साक्खी, छोटा देश, साका, नशीरा, देव स्तुति, दोहा, बारहमासे गीत ,संस्कार गीत , ऋतुओं के गीत ,उत्सवों के गीत ,लोक नाट्य के गीत ,उनके राग उनकी उतपति उनका प्रभाव उनका साहित्य दर्शन अभी तक गहराई से कहाँ सुना मैंने ।जब मैने ही नही सुना तो मैं अगली पीढ़ी को क्या दे जाउंगी।क्या समझ दे सकूँगी ।किसी भी बात का भान होने में और उसका ज्ञान होने में अंतर होता है ऐसे ज्ञान होने में दक्षता हासिल करने में अंतर होता है और दक्षता हासिल होने पर उस विधा का सेवक होने में अंतर होता है । अनेक बार हमें भान तो होता है पर ज्ञान नही ।और ज्ञान की तो बस पिपासा होनी चाहिए माँ सरस्वती हाथ पकड़ ही लेती है ।
सुनीता धारीवाल
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