बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

लारन्या -कन्या रत्न हमारा

लारान्या 

इंसान का पवित्रतम रूप में
मेरे घर आई है लारा
उसमे प्रेम ही प्रेम भरा है
मेरा आँगन हरा भरा है
उसकी आँखे विस्मित करती
देखें है मुझे एकटक सी
प्रेम को पढ़ लूँ यह बतलाती
मुस्कानो से लकदक उसकी
तुतली तुतली हर भाषा
छम छम सी फुदक रही है
चिड़िया सी चहक रही है
सम्पूर्ण प्रेम समर्पण है उसकी
हर उसकी आलिंगन भाषा
वह परी किसी नभ् की है
जगमग जगमग करती कोई आशा
उसके शब्द सभी सुंदर हैं
है नयी नयी कोई भाषा
वह कोमल मस्त कली सी
सुगन्धित  सा कोई मदरसा
मैं भी सीख रही हूँ उस से
बस प्यार ही प्यार लुटाना
रिश्ते सब समझ रही है
पापा नाना और मामा
ईश्वर रूपा साक्षात  है
मनुष्य की पवित्रतम अवस्था
बच्चों में ढूंढी तो मिली है
रचना रब की रब जैसी
ये कन्या रत्न आई है
देने खुशिया चौतरफा
तुम ईश्वर की परिभासा
जब जब किलकारी गूंजी
मिली अनहद नाद की पूँजी
लारान्या तुम जान मेरी हो
मैं वारी वारी जाऊं सा

सुनिता धारीवाल 

झंझावत
















मेरे दिन कितने चुप चुप हैं
कितनी उदास हैं शामें
हैं सन्नाटा सी रातें
और सुबह थकी थकी सी
यादों में हंगामे हैं
आँखे है तपी तपी सी
यूँ तो हासिल सब कुछ है
पर  है  कुछ  कमी कमी सी
मेरा मन आँगन तांडव सा
कभी मौन सी कथकली
दिल उछल रहा सागर सा
साँसे मीन सी मचल रही है
झंझावात है सपनो में
माथे पे रेखाएं उभर रही है
जाने कौन गली है बुलाती
किस शहर मुझे जाना है
कोई माझी नहीं नाव का
पर उस पार मुझे जाना है
जहाँ शून्य में इक शून्य है
उस तमस उत्तर जाना है
मैं चल दूंगी मैं पथिक हु
अभी दूर मुझे जाना है
भीतर की राह कठिन है
यायावर होती जाना है
सतहें जितनी ब्रमांड में है
सबमे हो कर आना है
बस प्रेम फैलाना था मुझको
उस से ज्यादा पाना है
भवर  कितने  भी  आयें 
तनिक भी  नहीं  डरूंगी
उनसे  भी गले  मिल लूंगी

सुनीता  धारीवाल  



सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

धरती और औरत की क्या जात फिर भी "जाति है कि जाती नहीं"

धरती और औरत की क्या जात फिर भी "जाति है कि जाती नहीं" 



हरियाणा में वर्तमान में जाति का तिल्लिस्म धीरे धीरे टूटने लगा है खासकर इन तीन वर्गों में पहले  तो हैं  अति सम्पन्न नव धनाड्य परिवार  जो अपने  बच्चो के रिश्तों के लिए बराबर के  धन कुबेरों को किसी भी जाति में ढूढ़ रहे है.  दुसरे उच्च आय उच्च पदों पर नियुक्त हुए युवक युवतियों  के अभिभावक जो  उन्ही के समान्तर पदों पर चयनित युवक युवतियों के संजोग किसी भी जाती में  बैठा रहे है और तीसरे  निम्न आय वर्ग के लोग या  मध्यम वर्ग के लोग जिन्हें  अपनी जाति  में कोई रिश्ता नहीं मिल रहा है और यह कहीं से भी बिना जाती पूछे लड़की  बयाह कर लाने में सफल हो रहे हैं .रिश्तो के लिए  जाति संज्ञान का  अनुपात 20 :55:25 का दिखाई पड़ रहा है.20 प्रतिशत  जो जाति  को दरकिनार कर रहें है 55 वह जो आज भी जाती से बाहर नहीं जाना चाहते और 25 प्रतिशत वह जिन्हें बहु चाहिए चाहे किसी भी जाती की हो ,बस अदद  महिला हो जो संतान उत्पन्न कर सके .यह अनुपात मेरा व्यक्तिगत आंकलन है जो समाज में रहते हुए मैंने अनुभव किया है यह किसी शोध का परिणाम कतई नहीं है
धन कुबेरों और उच्च पदासीन अधिकतर  लोगो को तो गावं में रहना ही नहीं हैं  उन्होंने ने तो  तो देश के बड़े शहरो में या विदेशों में ठिकाने कर लिए है और गाँव में कभी कभी छुट्टी मनाने या धन प्रदर्शन करने आना होता है या फिर अपनी जड़ो  का मोह उन्हें कभी कभार खींच कर ले आता है. ऐसे ही उच्च पदासीन अधिकारी वर्ग भी शहरो की ओर पलायन कर गया है पर यह जो तीसरा वर्ग है जिसे गाँव में ही रहना है और  जिसे  शादी के लिए लडकिया उपलब्ध ही नहीं हो रही है उसको तो उसी के स्तर पर समाधान खोजना है .आज समाज को गहराई से समझने की कोशिश करें  तो पाएंगे की आज भी  हरियाणा का समाज कट्टरता से जाति वयवस्था को प्रभावी बनाये रखे हुए है काम के आधार पर बनी जातियों ने चाहे अपने पुश्तैनी काम धंधे बदल लिए है “पर जाति  है कि जाती नहीं “यह लोगों के जहन में स्थायी घर बनाये हुए है. सामजिक व्यवहार में समजाति का पक्ष लेना, जाती के लिए संगठित होना आज भी होता है. यहाँ  सत्ता जाति  की सीढिया चढ़ कर ही हासिल होती रही हैं. समाज की  मुख्य नीवं  में जाति है. जाति  हर ओर है गाँव  में हर जाति  की अलग अलग थयाही यानि सामुदायिक भवन है हर किसी जाति  की बारात उसी की जाति की थयाही में रुकती है. दरअसल समाज अपनी पुरानी मान्यताओं को अपने पूर्वजो की दी हुई सीख को  ज्ञान सम्पति मान कर उनकी रक्षा करता है और वह इन्ही पुरातन सामजिक नियमो व्  मान्यताओं से भावनात्मक रूप से गहरे से जुड़ा है और इन्ही मान्यताओं की श्रधा से रक्षा करता है .अपने पुरातन सामजिक नियमो और मान्यताओं  को तोडने का मतलब अपने  पूर्वजो का अपमान करना माना जाता है –जिस समाज में हर खुशी या गम में हर त्यौहार में श्राद्ध में पूर्वजो को याद किया जाता हो और उनसे प्रार्थना की जाती हो कि हे पूर्वजो अपनी कृपा व् आशीर्वाद बनाये रखिये . तो कया वहां पूर्वजो द्वारा स्थापित नियमों को आसानी से तोडा जा सकता है बिलकुल नहीं .समय अनुसार थोडा बहुत बदलाव होगा परन्तु मूल नहीं बदलेगा कभी क्यूंकि जाने अनजाने हम सब भी उन मान्यताओं में विश्वास करते है जो पूर्वजों ने बनाये हैं .वर्तमान में हरियाणा का समाज तेजी से बदल रहा हैं और परम्पराएँ बदलने लगी हैं आज सामजिक पुरातन मान्यताओं के कट्टर पंथी समर्थक घुटने टेक गए है जब बेटो के विवाह के लिए लड़कियां ही नहीं मिल रही . केवल और केवल अपनी जाति  में ही ब्याहने  की जरूरत हवा होने  लगी हैं .आज वंश चलाने की इच्छा को पूरा करने के लिए  आँखे मूँद कर किसी भी प्रदेश की किसी भी आयु वर्ग की लड़की को धन के बदले प्रदेश में ले आने का चलन जोरो पर हैं .लिंग अनुपात की बड़ी कमी के चलते समाज को यह उपाय करना पड़ रहा है .यूँ तो हरियाणा में लड़कियों की संख्या सैंकड़ो सालो से कमतर ही रही है सामजिक कारणों से इतर मैं मानती हूँ इसका कोई  अनुवांशिक ,जैविक कारण भी हो सकता है. खान पान ,मिटटी ,मौसम या पर्यावरण यहाँ पर मादाओं की उत्पति कम ही कर पाया है. यह भी एक शोध का विषय है जिस दिशा में अभी कोई औपचारिक जांच या स्टडी सामने नहीं आई है .
भारत की पहली जन्गणना से आज तक इस क्षेत्र में लड़कियों की संख्या कम ही पाई गई है और शायद पहले भी इसी प्रकार से लड़कियों  की पैदाइश किसी अनुवांशिक या जैविक कारणों से कम हुई होगी या आज भी कम ही होती है . यहाँ यह जरूर कहना होगा कि पूर्व समय में कन्या शिशु हत्या और आजकल कन्या भ्रूण हत्या का  घृणित अपराध का होना भी लड़कियों की कम संख्या को कमतरी की भयानक स्तिथि तक पहुँचाने में पूरा जिम्मेदार हैं .
जाहिर है लडकियां कम है तो विवाह के लिए उपलब्धता  भी नहीं है देखिये समाज कितना विचित्र होता है अपनी आवश्यकता अनुसार नए नियम बनाता भी है और पुराने तोड़ता भी है पर सिर्फ तब- जब स्तिथिया उसके  नियंत्रण से बाहर हो जाती हैं .ज्यादा समय नहीं हुआ है आज से केवल 10 या 15 साल पूर्व अपनी जाति  से बाहर शादी करने या करवाने वालो का बहिष्कार कर दिया जाता था .उनसे बोलचाल हुक्का पानी बंद कर दिया जाता था .कितनी बेटियों को  कितने नव युगलों को चुपके से मौत के घाट उतार दिया गया. परिवारों व् जातियों के समूहों में  स्थाई दुश्मनी हो गयी थी ,पर अब क्या ? जनाब आज स्तिथी ऐसी हुई कि समाज में परम्पराओं की दुहाई देने वाले ठेकेदारों को सांप सूंघ गया . बड़ी बड़ी पंचायतों में फरमान सुनाने वालो की बोलती बंद हो गई है जब बंगलादेश, केरल ,महाराष्ट्र  ,उतर पूर्व असम, सिक्किम  ,नेपाल भूटान ,हिमाचल, झारखंड प्रदेशों की लडकियां गावं में बहु बन कर ले आई जाने लगी .दस हजार से 50 हजार से एक लाख तक ,रंग रूप, कद,सेहत, इलाके अनुसार लड़कियों के मूल्य तय होने लगे जिसकी जितनी आर्थिक क्षमता वह ले आये कहीं से भी .नहीं भूल सकती हूँ मैं आज का  यह समय जहाँ हरियाणा में  लोग बाग़ एक भैंस की कीमत डेढ़ लाख  चुकाने और लड़की बीस हजार में लाने में सफल हुए हैं अब जब बस नहीं चल पाया तो मजबूरन कुछ गोत्र पंचायतों ने विवाह के पारम्परिक नियमों में जाति को ढील दे दी है या अपनी रोक हटा ली है परन्तु  सम गोत्र में शादी करने का विधान नहीं बदला है बल्कि एकजुटता से भारतीय  संविधान के हिन्दू विवाह के अधिनियमों में इस विधान को शामिल कर इसे वैधानिक जद में लाने की मांग जोर पकड़ने लगी है .जाहिर है समाज में जैसी स्थितियां उत्पन्न हुई उस से समजाति  में विवाह के विधान को बड़ा झटका लगा है और कट्टरपंथी समाज समगोत्र में विवाह के नियम के टूटने को ले कर शंकित भी असुरक्षित भी  है और इस विधान की  रक्षा करने को कृत संकल्पित है. हाल ही में वर्ष 2013 के सितम्बर माह में रोहतक के गाँव गरनावाठी में समगोत्र में सम्बन्ध बनाने वाले युगल को लड़की के परिजनों ने  सरे आम काट दिया गया और उनके शव ट्रेक्टर ट्राली में रख कर सारे गावं में घुमाये और फिर गली में फैंक दिए यह एक सामजिक तांडव था जहाँ सभी के लिए सबक ले  लेने का और दबाव  बनाने का प्रदर्शन था की कोई समगोत्र  निकट सगे सम्बन्धियों में ऐसा करने न सोचे.यह हत्या अपराध करने वालो के माथे कोई शिकन न थी क्यूंकि उन्होंने ऐसा कर सामाजिक विधान की रक्षा कर सम्मान कमाया था ,ऐसी अनेक घटनाये समय समय पर होती रही है.गोत्र का विधान आज भी अटल है पर अब समजातिय विवाह  की अनिवार्यता कुछ ढीली पड़ी है .सोचने की बात ये है कि जिन परिवारों को अपने बेटे के लिए कोई रिश्ता नहीं मिल रहा वह अन्य प्रदेशों से तो खरीद फरोख्त के माध्यम से लड़कियों को ला कर अपने घर की बहु बना रहे है परन्तु अपने  ही प्रदेश की निम्न व् दलित जाति  की बहु लाने से पूरा कतराते है ,अभी भी यह बात कतई गवारा नहीं की कोई दलित जाती की लड़की इस घर की बहु बने , जींद जिले के गाव शाहपुर की 65 वर्षीया महिला धनपति देवी चार बेटो की माँ है और जो अब तक सभी कुवारें थे  दो की तो आयु निकल गयी है पर वह अपने तीसरे अपने बेटे के लिए बिहार से बहु ले आई है और चौथा भी अभी कुवारा है मैं ऐसे परिवारों से मिलने खुद गाँव में गयी  जब मैंने पुछा की क्या तुम्हे इस बहु की  जाति  पता है तो धनपति का कहना था की सुना है यह बनिए की है पर पक्का पता नहीं .मैंने सवाल किया की आप के तीन बेटे और हैं क्या आप इनकी शादी किसी गरीब दलित कन्या से करेंगी तो तपाक से जवाब मिला कि- कभी नहीं मुझे जग हंसाई नहीं करवानी हैं ,जब मैंने कहा कि आप जो बहु लाये हो वो क्या पता वो भी नीची जात से  ही हो तुम्हे  क्या पता? तो धनपति का सीधा सरल जवाब था कि देखो बेटी आँखों देखि माखी निगलना बहुत मुश्किल है दूर से चाहे जैसी भी हो किसी को नहीं पता न ही कोई उनसे बरतेगा न जानेगा  ,बस लड़की मिल गई है और आते साल एक में पोता भी हो गया है सो मेरे तो मन की पूरी हो ही गई है –हमारा नाम रह जायेगा पीढ़ी चल पड़ेगी .


ऐसे ही नरवाना के पास कारोदा गाव में केसरी भी पश्चिम बंगाल  बहु ले से आई है वह अभी तो  अभी बिलकुल नई नई आई है बस एक महीना ही हुआ है  मैं भी पहुँच गयी उस से मिलने .मैंने उस से बात की तो उसने बताया की उसे भाषा नहीं समझ नहीं आ  रही ,उसे खाना पसंद नहीं आ रहा ,वह कई बार भूखी रहती है क्यूंकि उसे रोटी नहीं भाती उनके यहाँ तो मच्छी चावल बनता है ,और उसे सूट पहनने में और घूंघट करने में असुविधा हो रही है और उसे अपने माई बाबा छोटे भाई बहिन याद आ रहें हैं और उसकी आँखों से टप टप आंसू झरने लगे .मैं जानती हूँ उसके पास कोई चारा नहीं वह धीरे धीरे सब सीख जाएगी और यहाँ के रहन सहन की आदत डाल लेगी .गाँव की बड़ी बुढ़ियां जो आज तक जाति में बयाहने की कट्टर अनुपालना करने की ध्वज वाहक थी वह भी ज्ञान देती  सुनाई दी की बेटी धरती और औरत की क्या जात जो बोऔ वही उग जाता है ,कोख तो सब औरतो को दी है राम ने- वंश  की बेल तो बढ़ा ही  देगी औरत चाहे कहीं से ले आओ . अगली पीढ़ी को कुछ न याद  रहेगा कौन आई थी किसको कहाँ से लाये थे .दलित जाति में बेटा ब्याह लाने के सवाल पर  उनका यही जवाब था अपने ही  गाम गुआंड की बाल्मिकी -चमार की धानक- सिकलीगर की नट बाजीगर की छोरी  तो नहीं बिठाई जा सकती न अपने चूल्हे पर इसलिए दूर दराज ही ठीक है आंदे जांदे तो नहीं दिखेंगे इसके घरवाले .
 काबिलेगौर है की पंजाब में ऐसी शुरुआत हो गयी है कि जिन परिवारों को विवाह के लिए लड़कियां नहीं मिल पाई है वह अब गरीब दलित परिवारों की खूबसूरत लड़कियां से विवाह कर घर लाने लगे है पंजाब के संगरूर जिले की सुनाम शहर के वरिष्ठ पत्रकार बलदेव शर्मा (जिन्होंने पंजाब में बहु पति परंपरा और लड़कियों की खरीद फरोख्त पर गहन सामजिक अध्ययन कर मीडिया में लिखा और राष्ट्रीय व् अन्तर राष्ट्रीय  मीडिया का ध्यान खींचने में  भी वे कामयाब रहे हैं )को आग्रह कर पंजाब के कुछ गाँव में मैं खुद गयी और वहां की स्तिथि को समझा और पंजाब और हरियाणा में इसी विषय पर थोडा सा  तुलनात्मक अध्ययन  करने की कोशिश की .हालांकि पंजाब में खरीद फरोक्त  के माध्यम से लड़कियों को ला कर पत्नी बना कर रखने का चलन  काफी पुराना  हैं पंजाब चूँकि पहले से ही संपन्न राज्य रहा है तो निसंदेह उनकी खरीदी की क्षमता भी ज्यादा रही है हरियाणा राज्य  बनने से पहले इस भूमि पर भी शासकीय अनदेखी के कारण गरीबी पसरी हुई थी इसलिए हरियाणा और उत्तर प्रदेश की  गरीब परिवारों की महिलाएं पंजाब के कुवारों की पहुँच में रही .मुझे वहां सुनाम के  पास ही के गावं में हरियाणा की अधेड़ आयु  महिला कमला मिली जो बहु पति परम्परा का निर्वहन कर रही थी .उसके पीहर के परिवार वाले जींद जिले के एक गावं से सम्बंधित थे .जिसमे अब कोई नहीं बचा था उसके अनुसार उसके पिता की जमीन इलाज में बिक गयी थी लाचार माँ ने 12-13 साल की उम्र में उसे पंजाब के एक परिवार को सौंप दिया था , वह उसी परिवार में बड़ी हुई.उसकी सास ने ही उसे घर का हर काम सिखाया.आज वह कमला नाम बदल कर कर्मजीत कौर है और नित्य नियम गुरुद्वारा साहिब के सब नियम करती हैं ,मुझसे मिलने के बाद वह बेहद खुश थी चूँकि मैं हरियाणा से थी उसे कोई बहुत अपना सा लगा ,जाहिर सी बात है बातो बातों में उसका अतीत कुरेदा गया .उसे अपने परिवार व् गाँव से कोई शिकवा नहीं था पर उसे इस बात से जरुर उसकी हिचकी बन्ध गयी की उसके बच्चो की शादी में कोई भात ले कर आने वाला नहीं हैं और वह उस घड़ी बहुत उदास हो जाती है .उसकी बातों से मैं  हरियाणा की गरीबी का अंदाजा लगा पाई जो मुझे बिलकुल भी एहसास नहीं था कि आज से महज 50-60 साल पहले तक  भी हरियाणा  ऐसा भी होता होगा.
चलिए लौटते हैं बात चली थी खरीद फरोख्त की तो पंजाब में यह चलन बीस पच्चीस वर्ष पहले ही जोर पकड़ गया था और ये आम सी बात लगने लगी थी कुछ घटनाएँ ऐसी हुई की खरीद कर लायी पत्नी जेवर और कीमती सामन ले कर रफुचक्कर  होने लगी और दलालों ने भी कीमतें कुछ ज्यादा ही ऊँची कर दी और सरकार ने भी सख्ती दिखाई . बलदेव शर्मा जैसे जुझारू पत्रकारों द्वारा कुछ समय पहले जब इस वयवस्था की राष्ट्रीय व् अंतरास्ट्रीय रिपोर्टिंग होने लगी तो तत्कालीन सरकार की किरकिरी होने लगी ,सरकार पत्रकारों की रिपोर्टिंग को ठुकराने लगी और कानूनी चुनौती  देने लगी और साथ ही सरकार ने पुलिस बल का प्रयोग कर ऐसी सभी औरतो को जबरन सरकारी खर्चे पर उनके मूल निवास और गाँव में  भेज दिया , आये दिन पुलिस की रेड और दबाव के चलते  समाज में बाहर प्रदेशों से लायी जा रही औरतो के प्रति आकर्षण कम हुआ और लोगो ने अपने ही प्रदेश की दलित वर्ग की सुन्दर और पढ़ी लिखी लड़कियों को अपनाना शुरू कर दिया है वहां के स्थानीय जत्थेदार के अनुसार दलित वर्ग की कन्या ले कर आना ज्यादा सुरक्षित है बनिस्बत इसके कि दूर दराज की अनजानी लड़कियों या औरतो से जो कभी भी लूटपाट कर जाएँ या अपराध कर डालें  .धीरे धीरे  दलित कन्या समायोजन की नई व्यवस्था भी चलन में आ गयी है .जिस से हरियाणा अभी को दूर है अभी जल्दी से  निम्न जाति कन्या अपनाना हरियाणा के  समाज के अजेंडा में अभी  नहीं हैं.बहुत से लोग गाँव में तो यह भी नहीं जानते कि लड़कियों को खरीद कर लाना मानव तस्करी है जो कानूनन अपराध है.उन्हें सिर्फ इतना ज्ञान है कि यह सुविधा लोगो के घर बसा रही  है.तस्करी से आई हुई किसी लड़की का कोई परिजन यदि ढूंढते ढूंढते पुलिस को ले कर उस घर तक आ भी जाता है तो गाव वाले लठ्ठ उठा कर बैठ जाते है आओ देखते है कौन ले जाता है हमारी बहु को .यदि कोई लड़की पुलिस बल के हस्तक्षेप से वापिस भी गयी है तो कुछ समय बाद  लौट आई है क्यूंकि मानव तस्करी के व्यापार में  गर्भवती और विवाहित कन्या की तो कीमत बहुत गिर जाती है,और वह कहीं की भी नहीं रहती यहाँ सर ढकने को छत  और रोटी तो समय से मिल ही जाती हैं 
आज जो भी हो रहा है जिस प्रकार का भी सामजिक परिवर्तन हो रहा है उसके अच्छे और बुरे दोनों ही असर होंगे पर मैं एक सामजिक दृष्टा के नाते भांप रही हूँ और हरियाणा के भविष्य के समाज को देख पा रहीं हूँ और चिंतित हूँ जो समाज आज भी जातिवाद में आकंठ तक डूबा है उसी समाज में सामजिक स्तरीकरण की एक और सतह बनेगी जहाँ इन मोल लायी गयी औरतों के बच्चे होंगे जिन्हें बाकी मूल हरियाणवी बच्चो से अलग कर देखा जायेगा और अच्छे खासे कटाक्ष होंगे . खालिस हरियाणवी खून का अच्छा खासा प्रदर्शन होगा और उन बच्चों को उन युवाओ का सार्वजनिक परिहास होगा जैसे अबे ओ मोलकी के भैयन के या केरली के या कुछ भी कुछ भी जो उनकी माँ की मूल नस्ल से जोड़ कर पुकारा  जायेगा . कुछ युवा घर परिवार गाँव से पलायन करेंगे कुछ संगठन करेंगे ,हरियाणा में बहुत से बच्चो की मातृभाषा मलयालम ,बिहारी ,कोंकणी या फिर असमिया या खासी होगी और पितृ भाषा हरियाणवी और स्कूलों में वे हिंदी अंग्रेजी पढेंगे .मुझे यह सोचने में बिलकुल अचरज नहीं कि या बच्चे कई भाषाओँ के जानकार होंगे .कैथल जिले में गूजर समुदाय बहुल बहुत बड़ा गावं है कयोड़क वहां जाते ही उत्तर प्रदेश के किसी गाँव में  पहुँच जाने का एहसास होता है वहां अधिकतर बहुएं उत्तर प्रदेश की है और उनके बच्चे  छोरा छोहरी की जगह लौंडा लौंडी शब्दों का इस्तेमाल धडल्ले से करते है अपनी माँ के  साथ बातचीत में और उनका आपस में बात करने का लहजा और शब्दावली बिलकुल उत्तर परदेश वाला है पर जब कोई बाहर से आता है तो वह युवक युवतियां  चौकन्ने हो जाते हैं और स्थानीय कैथल वाले लहजे में बात करते हैं .मैं देख पा रही हूँ हरियाणा में कितने लहजे होंगे ,एक नए समाज का एक नए वर्ग का इंतज़ार करिए जो आजकल जन्म ले रहा है पालने में झूल रहा है .यह नवोदित वर्ग भी कई तरह की ऊँच नीच भेदभाव का साक्षी बनेगा .और असल व् मिलावट की नस्लों जैसी बातें होंगी ,जब जाति के नाम से संबोधन आज तक नहीं छूटे तो नए  समय में नए संबोधन  भी बनेंगे .
समाज में एक नई सतह बन जाने के हम साक्षी होंगे .

सुनीता धारीवाल जांगिड 

०९८८८७४१३११  



शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

कहाँ रुकी मैं





कविता -कहाँ रुकी मैं 
सन्दर्भ - स्त्री और पुरुष दोनों का परस्पर सम्बन्ध तभी तक ही खुशनुमा हो सकता है जब दोनों में से कोई भी किसी दुसरे तो अपना मालिक न समझे और न ही दुसरे को अपना गुलाम बनाए  और उस  से  तुच्छ सा  व्यवहार  न करे ,भारतीय मातृसत्तात्मक व्यवस्था में पुरुष को स्त्री का मालिक यानि हाकिम यानि  उसका धनी स्त्री  तो उसकी जीती जागती  वस्तु , जिसके शरीर व् सोच पर भी उसके मालिक पुरुष का नियंत्रण होता है -सदियों से यही व्यवस्था व्यवहार में लायी जाती रही है ,पुरुष को मालिक स्वीकारना स्त्री की सहज परवरिश में शामिल हैं ,परन्तु स्त्री व् पुरुष का सम्बन्ध तो पूर्णत्या जैविक है प्राकृतक हैं जहाँ ऊँच नीच मालिक नौकर की कहीं भी सम्भावना नहीं होती ,प्राकृतिक तौर पर स्त्री पुरुष में ही अपनी पूर्णता महसूस करती है व् आनंदित होती है जो स्वाभाविक है परन्तु लिंग भेद के अप्राकृतिक सामजिक नियमो के तहत ही पुरुष को यह मानने की सीख  मिली है की वह सर्वश्रेष्ठ है और स्त्री हीन ,और वही उसका मालिक है सो जो चाहे जैसा भी व्यवहार करे व् उसे नियंत्रित करे ,स्त्रियों पर हिंसा और उत्पीडन इसी सोच का नतीजा है -पर स्त्री ने साबित किया है की वह अधिक बल रखती है बार बार उत्पीडित होने के बाद भी वह दुःख भुला फिर दोबरा उसी पुरुष जाती का सानिध्य ढूंढती है उसे माफ़ करती रही है और बार बार गिर कर भी उठती रही है -कहाँ रूकती है वह पुरुष को हर हाल में अपनाने से, यह कविता स्त्री की यही प्राकृतिक बाध्यता व् ताकत की ओर इंगित करती है -
और  मेरे जैसी आज की स्त्री जो  गवाह है बदल रहे समाज की और परिवर्तन के लिए उठ खड़ी हो गई है उसके द्वारा दी गई समझाइश भी इस कविता में प्रस्तुत है कविता -

कहाँ रुकी मैं


कहाँ रुकी मैं
तुम्हे  अपना  हाकिम मानने से 
तुम्हारी बाहों में खुद को कैद करने से
 तेरे आलिंगन में मदमस्त होने से
कहाँ रुकी मैं

अग्नि परीक्षा ली तुमने
 तुमने ही मुझको शिला बनाया 

खटिया के पाए के  नीचे
 पैदा होते ही गला दबाया

 कांच भरा मेरे मुख में
 घुट्टी की जगह सीसा था चखाया

 नमक भरा  था मेरे कोमल से मुख  में
जीते ते जी गाड़ा -मेरा स्वास मिटाया

फिर भी कहाँ  रुकी मैं
इस धरती पर जन्मने से 
और जन्माने से तुमको दाता बतलाने  से

समझोतों में बयाही मैं 
कितने मैंने थे राज बचाए

कोई हाथ लगाये न मुझको
कितने मैंने जौहर अपनाये

मैं रूप कवर मैं  जल बैठी
मैं मैया सती भी बन बैठी

बस तेरा धर्म निभाने को
मैं थी बस  तेरी कहलाने को 
  
 फिर भी  कहाँ  रुकी मैं
तेरे आलिंगन में दुनिया पाने से

तू जाने न था कौन हूँ मैं
फिर भी पगलाई रहती हूँ 

तेरे दर्शन को तेरे नैनों से
अपने यह नैन मिलाने को

मैंने महल दोमहले छोड़ दिए 
भगवा बाणा पग में घुँघरू कांटे

कहाँ रुकी मैं
मंजीरे खडताल बजाने से
बस गीत तुम्हारे गाने से
और जहर के प्याले पीने से
कहा रुकी मैं

कितने स्टोव फटे घर घर
चीखी चिल्लाई  राख हुई

एक पल में मरी हजारो बार
 चमड़ी उधडी बेहाल हुई

कहाँ रुकी मैं
अपना आखिरी  बयान देने से  
 कि मर्द मेरे की कहाँ कोई  गलती हैं  
 कम्बखत निकला बैरी मेरा ही दुपटटा 
जो आग पकड़ मुझे निगल गया 
मैं पिटती हूँ और मिटती हूँ
तन नीला है और काला है

तुमने क्या लेना देना है
मेरा घर मेरा ही घरवाला है

गलती  मेरी मैं - मैं कुलटा हूँ
मैं फिसल गई ज़रा बहक गई

मेरी सांस पे  हक ये तुम्हारा है
 चलो घोंप दो छुरे और तलवारें

सबक यही ये हमारा है
कहाँ रुकी मैं
मौत को गले लगाने से 
तुमको सच्चा दिखलाने से 

जब चाहा मैं चांडाल हुई
खाए पत्थर लहू लुहान हुई

मंडी में मुझ को बेच आये
कोड़े भी मुझ पर बरसाए

काले पर्दों में घुटी रही
चाकरी में तुम्हारी  जुटी रही

कहाँ रुकी मैं 
 घूंघट के पट में इतराने से
तेरी आँखों से शर्माने से

सरे आम गोंव में नंगा कर
अपनी मूछों को घुमाया है

यह गुफा जहाँ से जन्मे हो
लोहे की छड़ से नपवाया है

मेरी आंत खींच ली  हाथो से
 पर अंत मेरा न आया है

कहाँ रुकी हूँ मैं 
बॉयफ्रेंड बनाने में और रात को पिक्चर जाने से

जार जार मैं रोती हूँ  
जब जाँच भ्रूण की होती है

शमशान कोख का बनवाया 
चाहे लाश बनी मेरी काया

 मेरे अंग अंग में राध भरी 
 बिस्तर तेरा फिर भी गरमाया

फिर भी कहाँ रुकी मैं
नसबंदी  भी अपनी करवाने से
चंद्रमा को अर्घ्य चढाने से 

बात बात पे गाली बकते थे
मुंह खोलो तो घूंसे पड़ते थे

 लड़खड़ाते रात को घर आना 
 मुह की दुर्गन्ध को अपनाना
 जब मैली चादर मैं धोती  थी
कितनी उबकाई होती थी 

 हाय कितनी निढाल मैं होती थी
घर में बेहाल न सोती थी 

एक दिन फिर सब बदल गया
तेरा नशा गुर्दे को निगल गया

अब बिस्तर तुम्हारा ठिकाना था  
और मैंने ही  तुम्हे बचाना था

फिर भी कहाँ रुकी मैं
जान मेरी का सौदा कर बस  तेरी जान बचाने से
गुर्दे अपने निकलवाने से 

देखो सदी बदलती जाती है 
और समझ मुझे भी आती है 

बस बहुत हुआ अब न होगा
ये मैं थी या मेरी माँ थी

मेरी माँ की माँ या पडनानी थी
 अब न  ये सब दोहराया जायेगा 
क्यूंकि मैं मिटा  रही हूँ हर रोज
 मेरी माँ दादी नानी की खींची सब लकीरें

अनसुनी भी कर  रहीं हूँ
तुम्हारे रचे समाज की सब तकरीरें

मैं नया कायदा लायी हूँ
मैं न्य इरादा लायी हूँ

मैंने भाषा नई बनायीं है
नई आशा मैंने जगाई है

मेरा हरेक  पहाडा उल्टा है
उस से सब कुछ सुलटा है

मेरा गूंगा बड़ा नगाड़ा हैं
मैंने तेरा काम बिगाड़ा है  

न चुप रहना सिखलाती हूँ
न छुप रहना बतलाती हूँ  

,मैं तुतलाती सी लड़की को
 रानी झांसी दिखलाती हूँ

फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता में
 उसे दुर्गा या काली ही बनाती हूँ

मैं सीना तान खड़ी हु अब
बहु बेटियां अपनी बचाने को

उनकी आवाज सुनाने को
गुलाबी परचम फेहराने को

 आज मैं  नगर गुलाबी आई हूँ
नया स्वैग गुलाबी लायी हूँ

ओ नगर गुलाबी की बेटी

तुम टांगो ओढ़नी खूंटी पर –
बक्से में धरो लहंगे चूड़े

तुम चढो सियाचिन की चोटी
और बर्फ स्कूटर दौड़ा लो

दस दस फुट ऊँची बर्फ में तुम
बन्दूक निशाने ले लेना

पहनो तुम वर्दी झक सफ़ेद
झटपट  स्नोमैन बना देना

जाओ पहनो स्किन टाइट डाइविंग कॉस्टयूम
और हाथ कैमरा ले जाना

सागर में  मारो  गहरा गोता
एक सीप और मोती ले आना

खेलो आँख मिचौली पनडुब्बी में
तुम तट रक्षक ही बन जाना

 युद्ध पोत की अगली रेलिंग पर
देना टांग गुलाबी तुम झंडा

टाईटैनिक पोस बना लेना
जयपुर की याद दिला देना

तुम पहनो जम्पसूट पायलट का
और फाइटर प्लेन उड़ा लेना

निकलेगा  धुआ उस जेट से जो  
उसमे रंग गुलाबी मिला देना

तुम्हे आकाश नापते देखूं मैं
कभी देखूं तुम्हारे बक्से को

तुम करो सवारी टैंको की
धरती को तुम ही  कंपा देना

तुम्हे तोप लगेगी गुडिया सी
असले से उसे सजा देना 
तुम मोह छोड़ दो रंगों का
काली वर्दी भी जच जाएगी

ज़रा बनो कमाडो खोलो पैराशूट
तेरा हेलमेट ही केश सज्जा बन जाएगी 

काली को काली वर्दी में देख
आतंकवाद की माँ मर जाएगी 
तुम पहनो काले रंग का कोट
मिटा दो  न्याय वयवस्था के सब खोट

इनजिनिअर,टीचर,डॉक्टर या वैज्ञानिक बनो
 चाहे अन्तरिक्ष की परी बनो

गर सृष्टि तुम्हे बनानी है
तो धरती भी तुम्हे बचानी है

तुम जो भी बनो बस बन जाना
मैं न तुमको कभी रोकूंगी

कहीं भी पढना कहीं भी सीखना
चाहे हॉस्टल में रहो या पी जी में

 चाहे कमरा किराये ले ले लेना
मैं न तुमको कभी टोकुंगी

तुम फिल्म करो या नौटंकी
या टीवी की एक्टर बन जाना

चाहे चढ़ना संसद की सीढ़ी
चाहे मेयर बनो या करो सरपंची 
बस अपना सौ प्रतिशत देना
मैं लड़ लुंगी सारे जग से

बस तुम सपने बुनती जाना   
मैं न कहूँगी कभी बोझ हो तुम

बेधडक कभी भी आ जाना
ताउम्र ये घर भी तुम्हारा है

 जब चाहो  तभी चली आना
गर नैन मिलाना जो चाहो

 तो वह भी तुम आजमा लेना
 नौबत गर आ जाये टूटन की

पहले तुम खुद  को बचा लेना  
फिर बाद में घर की सुध लेना

और पंख समेटे आ जाना  
मैं सिखलाऊंगी फिर उड़ना

उड़ना और नभ पर छा जाना
मैं  नहीं दूंगी वास्ता कभी

तुम्हारे  पिता की पगड़ी का
कभी बिरादरी के नियमो का

बस बेटी अपनी बचाऊगी
उसको उड़ना सिखलाऊगी

समझौतों की बलि से बचाऊगी
तुम्हे जीवट मैं ही बनाउंगी

तुम गाँठ बाँध लो शिक्षा ही
तुम में स्वाभिमान जगाएगी

आत्मनिर्भरता और आत्मरक्षा
के सारे गुर तुमको सिखलाएगी

तुम करोगी नेतृतव जग का
और जन नेता बन जाओगी

देख तुम्हारी आभा को 
मैं  वारी वारी जाउंगी

जो कोई प्यार से मुझे बुलाएगा 
मैं दौड़ कर चली आउंगी

सारे देश की कुड़ियों चिड़ियों में  
मैं  स्वैग गुलाबी दे  जाऊंगी 

तुम्हारे सपनो की रंगीन सी दुनिया में 

मैं भी ब्लैक एंड वाइट सी चली आउंगी

सुनीता धारीवाल जांगिड 

यह कविता मैंने जयपुर स्थित कनोडिया महिला महाविद्यालय के वार्षिक पारितोषिक वितरण समारोह में अपने संबोधन हेतु लिखी थी जो खासी चर्चित और प्रशंषित भी हुई