सोमवार, 30 मार्च 2020

एक था वो 
जो आज नहीं रहा 
जिसे मैंने 
मुझ को 
चाहने की इज़ाज़त 
कभी नहीं दी  
चला गया
 अगले जन्म 
भी इंतज़ार करेगा 
ये वादा कर 
और मैं हूँ 
हतप्रभ 
सफ़ेद 
जिसे देख 
आँखे गुस्से से लाल 
हुआ करती थी 
आज भीग कर 
लाल हुई जाती है 
भीतर है 
जाने कैसी 
छटपटाहट
जो रिश्ते 
कभी बनाना 
नहीं चाहे 
पूछ रही हूँ 
खुद से 
क्या 
सच में 
नहीं बना था 
कोई रिश्ता
वहां सुकून का झोंका
 बड़ा अच्छा था
चाहे घर मेरा वहां 
अभी तक कच्चा था
मेरे अपनो ने जो
 घोंपा था छुरा वो भी सच्चा था
तूफानों से जूझने का 
मेरा हुनर भी तो अभी बच्चा था
आज भी है उस शहर से 
है मेरा करीबी नाता
जहां मैंने जाना
 रिश्तों को बनाना
हर हाल निभाना
जहां मैंने जाना 
मेरी ताकत क्या है
अकेली औरत को रहने 
में है आफत क्या 
नारी हठ से जो मिलती है 
वो है ताकत क्या
ताज़ी रचना गौर फरमाइए जरा 

खुद पे एतबार कर बैठी 
मैं उन से प्यार कर बैठी 

लगा था पाउंगी  मन चाहा 
ये किस की चाह कर बैठी 

दो ही बहुत थी आँखे तो 
क्यों आँखे चार कर बैठी 

दिल ही तो था मजबूत मेरा 
उसे ही  बीमार कर बैठी 

कह दी उसे कुछ  बाते ऐसी 
उसका जीना दुश्वार कर बैठी 

उसी को जीतने की खातिर 
मैं अपनी हार कर बैठी 

वो राही डगर दूसरी का 
हाय किसका इंतज़ार कर बैठी 

वो गया ही कहाँ है जो लौटेगा 
 दिल उसका घरबार कर बैठी 

रस्मो रिवाज समाज की सरंक्षक मैं 
उसी रस्म ए दुनिया को ललकार बैठी 

इस  बार इस साहस से भी 
हाथ दो चार कर बैठी 

न मंजिल वो न मंजिल मैं
 उस को ही हमराह कर बैठी 

वो भी तो टूटने  लगा है 
ये कैसा वार कर बैठी 

वो अलग बाग़ का है माली 
क्यों उसे अपना पहरेदार कर  बैठी 

सुनीता धारीवाल

सोमवार, 23 मार्च 2020

धत तेरेकी 
ओ कान्हा इस होली
मैं तेरी फिर से हो ली
तेरी मेरी तकरार 
जो होनी थी सो हो ली
फैंकी थी जो तूने कीचड़ 
मुझ पर सालों साल 
ओ माँ के लाल
देख इधर मेरी अंगिया
 मैंने फिर धो ली
फिर से डाल  सबरंग 
या चाहे उड़ेल फिर कीचड़
 पागल मैं दीवानी तेरी 
  इस होली फिर से हो ली
धत तेरे की
यूँ ही लिखा 

ज़रा मेरा  हिसाब तो रखना 
इकतरफे  इश्क़ की किताब में रखना 

कितनी रातें जागी मैं 
फिर भी रही अभागी मैं

कितने ही दिन तड़पी मैं 
कितनी बार तुमसे झड़पी मैं

कितना मर मर जिन्दा मैं 
घायल एक परिंदा मैं 

कितना तुम को चाहा है 
फिर भी  कौन सा पाया है 

कितने दिन में उदास रही 
फिर भी पाने की आस रही 

कितने पल तेरा नाम लिया 
 इक पल भी  दिल ने न  आराम किया 

हर घड़ी आँखे दरवाजे पर 
घट घट तेरा इंतज़ार किया 

झर झर बहते जज्बात मेरे 
हर बूँद से मैंने इजहार किया 

कब  ऊँच नीच जानी मैंने   
बस तुमसे मैंने है  प्यार किया 

राह मेरी भी आसान कहाँ थी 
हर बाधा को मैंने पार किया 

साहस है मेरा मैं कहती रही 
तुमने न कोई इजहार किया 

ये तो मैं हूँ  बिन मदिरा बौराई सी
तुम ने था कब कोई जाम दिया 

हर बार कही मैंने ही कही 
तुमने न कोई पैगाम दिया 

तुम आसानी से  खाली रह लेते हो 
मैंने तो है दिल को सब काम दिया 

हिसाब किताब मुझे कब आया कभी 
मैंने हर खाता तेरे नाम किया

सुनीता धारीवाल
क्यूँ शब्दों पर आ जाते हो 
कुछ आँखों ने भी तो कही होगी 
अपने  दुःख में हिस्सेदार बना 
मेरी तो  ख़ुशी यही होगी
तुम भीड़ में निपट अकेले हो 
यह बात भी  तुम ने  कही होगी 
माना की मुख न खोला तुमने 
बिन कहे मैंने ही सुनी होगी
वो बरगद सा खड़ा रहा
 मैं  कुसुम लता सी लिपट गई 
वो बारह मासा वही रहा 
मैं इक पतझड़ में निपट गई

सुनीता धारीवाल

रविवार, 22 मार्च 2020

बदरी बाबुल के अंगना जइयो
जइयो बरसियो कहियो
कहियो कि हम हैं तोरी बिटिया की अँखियाँ

बदरी बाबुल के अंगना जइयो . . .
मरुथल की हिरणी है गई सारी उमरिया
कांटे बिंधी है मोरे मन कि मछरिया
बिजुरी मैया के अंगना जइयो
जइयो तड़पियो कहियो
कहियो कि हम हैं तोरी बिटिया कि सखियाँ

बदरी बाबुल के अंगना जइयो . . .
अब के बरस राखी भेज न पाई
सूनी रहेगी मोरे वीर की कलाई
पुरवा भईया के अंगना जइयो
छू-छू कलाई कहियो

कहियो कि हम हैं तोरी बहना की राखियाँ 

कुँवर बेचैन जी की कविता

शनिवार, 21 मार्च 2020

रंगो से रंगे है गली नुक्कड़ बाज़ार 
अबीर गुलाल लाल पीले नीले हरे 
ढेरो खुशबूओं वाले रंगीन पानी 
खाली भरी पिचकारी 
सब देखा आँखों से 
छू कर भी देखा 
कैद किया आँखों में 
जो भी रंग और मेले है 
चन्द लम्हों में धूल गए 
जब याद तुम्हारी आई 
वो नन्ही सी पिचकारी 
जो मैंने ले कर दी थी  
जब तुम्हे पकड़नी भी नहीं आती थी 
चलाना तो दूर की बात थी 
और ठिठक कर घुल गए सभी रंग 
मेरे गाल पर टपकी दो बूंदों में 
और हंस दी मैं अपने आप 
जब पीछे से पुकारा था तुमने 
रंग लगवा लो प्लीज माँ

शनिवार, 14 मार्च 2020

आज तक हरे थे 
अभी कहाँ भरे थे 

पावँ के छाले 
सब देखे भाले 
खूब संभाले 

मैं अंग अंग रिसीे थी ।
कुचली थी और पिसी थी 

मरहम से लगे तुम 
सो लगा लिया 
बिन सोचे  समझे 

आज मरहम हटाई है 
तल में दर्द दुहाई है 

जो गहरे थे कहाँ भरे है 
जख्म तो अपने  हरे भरे है 

बाकि फिर कभी
@sd

रविवार, 8 मार्च 2020

पागलपन वाला प्यार 
वो तो मुझे हुआ था 
उस ने तो बस 
छुआ था मुझे 
मेरे आग्रह करने पर 
उसके पैरों में जंजीरे थी 
और मैं 
उड़ना चाहती थी 
उसका हाथ पकड़ कर 
सात आसमानों में 
जो हो नही सकता था 
उसे जंजीरों से प्यार था 
और मुझे उस से 
वह वहीं रहा 
मैं आगे बढ़ गई 
थोड़ी सी वहीं रह गई 
उसी के पास 
बाकी जो थी 
वह चल दी थी 
भीड़ के पीछे 
कहीं भी नही जाने को
बस चल रही थी 
रेंगते हुए 
उड़ने का ख्याल भी 
पांव के छालों में 
घुल कर पीड़ा देता है 
अब नही होता 
उड़ना चलना और रेंगना 
अब तो बस बैठ गई हूं 
सड़क  के एक किनारे 
सड़क चल रही है 
मैं नही
तालुक्क् है आजकल मेरा जिस यार से 
कम ही देखता है मुझे प्यार से

रोके से मेरे भी रुकता नहीं 
निकले है बाहर मेरे इख़्तियार से

डरता है बढ़ जाएँ न  मुश्किलें कही
एतबार नहीं करता किसी ऐतबार पे  

टूट कर चाहेगा जब एतबार कर लेगा 
अभी तो शक है उसे मेरे करार पे

पाले है वो तूफान  हकीकतों के साथ 
आये न उसका मन किसी खुशगवार पे

कितना आदी है वो जमीं पे चलने का 
वो रखता नहीं नज़र किसी भी सवार पे

चन्द रोज बस चलना था संग मुझे 
करता नहीं वो साँझ अस्थाई खुमार से

फूंक फूंक रखे है हर कदम अपना 
अक्ल ज्यादा रखे है मुझ समझदार से

क्या जानू मैं उसके दिल की बात 
रखे है दूर खुद को मेरे बुखार से

सुनीता धारीवाल 

नए मिजाज की है यह पुरानी कविता