बुधवार, 30 मार्च 2016

नहीं रहा














एक था वो
जो आज नहीं रहा
जिसे मैंने
मुझ को
चाहने की इज़ाज़त
कभी नहीं दी 
चला गया
अगले जन्म
भी इंतज़ार करेगा
ये वादा कर
और मैं हूँ
हतप्रभ
सफ़ेद
जिसे देख
आँखे गुस्से से लाल
हुआ करती थी
आज भीग कर
लाल हुई जाती है
भीतर है
जाने कैसी
छटपटाहट
जो रिश्ते
कभी बनाना
नहीं चाहे
पूछ रही हूँ
खुद से
क्या
सच में
नहीं बना था
कोई रिश्ता

सुनीता धारीवाल जांगिड 

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जानिए मुझे यदि उत्सुकता है कि मैं कौन

पढना ज़रूर गलतफ़हमियां दूर करने केलिए -for those who wish to know about me -who am i -let me help you and make your search  easy

मेरी टैग लाइन-
प्रकृति की प्रतिकृति
ब्रांड मेरा मैं खुद हूँ
पता है-निर्विघ्न अंतस समाधि

न मैं उतनी स्वतंत्र जितना लिखती हूँ न उतनी परतंत्र, न उतनी स्वछन्द न उतनी उदण्ड. न उतनी शील न ही उतनी शल्य जितना अभिवयक्ति में होती हूँ
मैं बस मैं हूँ प्रकृति की प्रतिकृति पल पल समय के साथ चलती हूँ रंग ढंग बदलती  हूँ मिटटी हूँ पानी हूँ हवाओ की पेशानी हूँ लहरों की रवानी हूँ-मुझे परिभाषित नहीं किया जाता प्रकृति की तरह कितने ही पात्र निभाती हूँ तभी कहलाती हूँ धरती औरऔरत एक जात जिसकी थाह नहीं सच में मैं अथाह हूँ क्यूंकि मैं स्त्री हूँ मैं जटिलताओ में सरल और सरलताओं में जटिल होती हूँ देवी भी मैं अप्सरा भी मैं चंडालिका भी मैं रसतालिका भी मैं -मत कयास लगाओ की मैं कौन हूँ
गौर करो भाई मित्रो
ज़रूरी नहीं की लेखक जो भी लिखता है वह अपनी ही कहानी लिखता है उसके लेखन से  उसके परिवार को उसकी व्यग्तिगत परिस्थितियों को उसके पारिवारिक मान सम्मान को उसके वयाक्तितव को जज करना -उसका व्ययाक्तिगत आंकलन करना सही नहीं होता
ऐसा करने वाला  व्यक्ति अपरिपक्व पाठक  होता है 
२- ज़रूरी नहीं जो भी हम लिखें  आपबीती ही है
३- हम लेखक तभी हैं जब हम भावुक मन के मालिक हैं यानि हम मंझे हुए कलाकार हैं और हम किसी भी पात्र को कभी भी अपने  भीतर उतरने की इज़ाज़त देते रहते है और पात्र में रम कर लिखते है
4-दूसरों के अनुभव हम बड़ी आसानी से अपने बना सकतेहैं
5-हमारी कल्पना में कई पात्र भी आपस में विमर्श कर रहे होते है
6-बहुत कुछ ऐसा लिखते हैं जो हमारे मन ने कहीं गहरे सुना होता है और वे सदा के लिए हमारी हार्डड्राइव में स्टोर हो जाते है और हम चूँकि कहना जानते हैंइसलिए कह देते हैं
7-महिला लेखकों के सन्दर्भ में ज़रूरी नहीं जो पीड़ा मैं बन कर अभिव्यक्त कीगयी है उसी की हो हाँ पर वो किसी औरत जात की ज़रूर होतीहै
8-बहुत बार दुसरे की बात मैं में लिखना आसान होता है क्यूंकि वह किसी व्यक्ति विशेष को इंगित नहीं करता -जिस से उसकी पहचान गुप्त रहती है
9-कोमल मन में कोमल विचार जगह बनाते है
10- जब कोई लेखक या कलाकार कोई भी रचना करताहै उस वक्त वह खुद तो होता ही नहीं एक  समाधी होती है जिसका सीधा तार दुनिया के रचनाकार से जुड़ जाता है और  तब मैं या कोई भी कलाकार  ऐसी रचना करने में सक्षम  हो जाता है जिसका उसे खुद भी भान नहीं होता -अनेक बार हमें अपने लिखे पर भी यकीन नहीं होता कि मैंने लिखा है ?पर उसे समाधि लिखवाती है चाह कर भी हम ऐसे ही कुछ भी लिख दो कर नहीं पाते
11-कलाकार होना रचनाकार होना कहीं पूर्व जन्म के संस्कार हैं जो चले आते है और बिना सिखाये सीखे भी इंसान समाधि पा जाता है और रच देता है
12-हम लोगो को सिर्फ सुनते नहीं महसूस करते है और उनकी जुबान बन जाते हैं
13-मुझे भीबहुत लोग कहते है -जे बात अरे बहन मैं भी बस यही कहना चाहती थी आपने शब्द दे दिए-और शब्द मैं कहाँ देती हूँ समाधि देती है
14-हम चर्चित रहने के लिए और धन के लिए भी नहीं लिखते  कृत्रिमता होती नहीं इसलिए सीधे दिल तक पहुँच जाते हैं
15- न ही हम तालियां बजवाने के लिए लिखते हैं-न आलोचना या प्रसंशा के लिए
बस खुद का मन विचारो की गठड़ी लिए बोझ मरने लगती हूँ तो उस भार को हल्का करने के लिए लिखती हूँ  

कृपया व्याकरण की अशुद्धियों की अवहेलना करें मैंने अंग्रेजी स्कूल में हिंदी पढ़ी है

बुधवार, 23 मार्च 2016

धत तेरे की तेरी हो ली













धत तेरेकी 
ओ कान्हा इस होली
मैं तेरी फिर से हो ली
तेरी मेरी तकरार 
जो होनी थी सो हो ली
फैंका था जो गुलाल 
मुझ पर सालों साल
ओ माँ के लाल
देख इधर मेरी अंगिया
मैंने फिर से धो ली
फिर से डाल सबरंग
 माटी कीचड़ का हुड़दंग
पागल मैं दीवानी तेरी
इस होली फिर से हो ली
धत तेरे की

लॉयलटी टेस्ट




मंत्री  जी  का  दफ्तर

साहिब मोहतरिमा  ---------  आई  हैं
इनके   आका का  सूरज डूब  गया  है
इन्हें  आपकी सियासती  सरपरस्ती की दरकार है
ओह अच्छा  ,लॉयलटी शिफ्टिंग
कल सांझ ले आईएगा  एक  लॉयलटी टेस्ट तो बनता है
जी जी  सर  समझ  गया
ही  ही  ही- जल्दी  समझ  गए - उसे  भी  समझा  देना  -वर्ना  किसके  पास  समय  है
जी जी -पूछ  लिया
ठीक  है  कल मैं  खुद  उन्हें  पिक  कर  लूँगा  और  ड्राप  भी  कर  दूंगा
और  वह  मंत्री  बन  गयी पार्टी  की  अगली  लिस्ट में

सुनीता  धारीवाल 

कपाल लिपि

माथों के तल पे 
कपाल लिपि में गुदे होते हैं 
आकर्षक,स्पष्ट, गहरे
अबूझ से निराले अक्षर
छेनी माँ के हाथ जो होती
तो अक्षर ये सुनहरे होते
तन राख हुआ न ये मिटे न जले
थोडा सफर किया जा गंगा में मिले

आरक्षण














मुझे भी चाहिए आरक्षण
हस्पताल के किसी फ्रीजर में
जहाँ रख पाओ तुम मरणोपरांत
रंग बिरंगे ,नीले गुलाबी रक्तिमा मेरे अंग
जिन्दा रख सको मुझको किसी की आँखों में 
किसी की गुर्दों में किसी के दिल में
किसी की त्वचा में किसी के बालो में
क्यूंकि मैं तो सिर्फ महकना जानती हूँ
मुर्दा घर की सडांध में भी


सुनीता धारीवाल

त्रिकहा

1-आगे रास्ता खतरनाक है
गोत्र की हद शुरू होती है
प्रेम राही सावधान


2-तू कहाँ अछूत
औरत
और कौन


3- अरे ओ इनमें इतना भूरा कैसे 
 अच्छा  अच्छा ओह 
आपने बुजुर्ग कितने  भूरे होय्याँ करें  थे

4-न जी न 
म्हारे कोई बिचार कोन्या
लुगाई का

5-न जी न 
म्हारे कोई रिवाज कोन्या
समायी का

जीने का ढंग

जीने का यह ढंग हो 
आखों में उमंग हो 
साँसों में तरंग हो 
सपना सुंदर सतरंग हो 
चाल भी अपनी दबंग हो

दो लाइन २

जिसे हासिल सभी कुछ है वह तलाश में क्यूँ हैं
जिसे है होश और संयम वह बदहवास क्यूँ है

मीरा कर दे


दुस्साहस

जिसे सोचने में ज़माने ने ज़माने लगा दिए
वो दुस्साहस कर हम कबके निकल लिए
दुर्गम सी राहों से कब डरना आया था
जो राह सुरक्षित थी हम उस पर भी फिसल दिए
खाकामस्ती में भी क्या शौक था पीने का
जब साकी भी मुकर गया हमने अपने अरमाँ ही निगल लिए
पकड़ ऊँगली थे जो लगे चलने उन्हें धावक बना डाला
वो दौड़े इतने तेज आँखों से दूर ही निकल दिए
तपते सूरज से मिला आँखे हम रहे रोकते धूप
झुलस्ते रहे साल दर साल वो छावं बाँध कर निकल दिए
नकली चलन ज़माने के कब थे माने मैंने
लाख मना करने पर सब राज ही उगल दिए
कब न समझी थी झूठ बोले जितने ज़माने ने
धूर्तों के चटखारों से ही हम ज़माने में जम दिए
तेवर थे बगावत के खून में ही मेरे हैरान हूँ मैं अब भी
कैसे माफ़ किये सारे जिसने भी थे गम दिए
रोमांच दुस्साहस का ये जमाना कया जाने
पल में जिए हजारो साल तुम देख उड़ान क्यूँ डर दिए
जिसे सोचने में ज़माने ने ज़माने लगा दिए
वो दुस्साहस कर हम कबके निकल लिए

किस देस चली जाऊं

किस देस चली जाऊं 
किस नगर चली जाऊं 
बैराग की दुनिया से 
बन संवर निकल जाऊं 
फिर भूल तुम्हे जाऊं 
या फिर से पा जाऊं
कोई डगर बता ऐसी
चुपके से डिगर जाऊं

भागम भाग

भागम भाग भागम भाग
खुद से भाग खुदा से भाग 
न कोई डफली न कोई राग 
भागम भाग भागम भाग 
धूर्तों  से भाग मूर्खों से भाग 
मक्कारो से भाग चाटुकारो से भाग

छलियों से भाग  गलियों से भाग 

दो लाइने

खामोश रहने की आदत कहाँ हैं 
मेरे शोर में मुझे ढूंढ कर बताओ तो जानू

तबियत

मत पूछो की तबियत कैसी है 
मुझको न आएगा बताना
कि ऐसी है या वैसी है 
ये चाहे जैसी कैसी है 
बस वक्त की ऐसी तैसी है
हाँ उम्र भी हुई जाती है
रंगत भी पंगत भूल गयी
रंगो से भीगना फाल्गुन में
सावन में झूला भूल गई
काजल की डिबिया सूख गयी
शीशा भी धर के भूल गयी
कभी गीत भी गाया भी करती थी
हर कली अंतरा भूल गयी
कब पैर उठा था गिद्दे में
किसका था मुकलावा भूल गयी
कभी बिन चादर तारो की छावं
थी रात कौन सी भूल गयी
पीहर से ससुराल के बीच
कितने गाँव हैं पड़ते भूल गयी
न याद रहा ताकना उसका
वो कौन था किसका था भूल गयी
साँसों की भूल भुलैया में
मैं सांस ही लेना भूल गयी
जो डोली ले कर आये थे
वो काँधे बदल बदल कर छोड़ आये
दरिया का वही किनारा है
जहाँ बेटा मेरा प्यारा है
जीते जी मरणा याद रहा
मरते जी देना भूल गयी
फिर लौट आई उसी दुनिया में
जहाँ दुनिया मुझको भूल गयी
ये दुनिया जैसी कैसी है
मेरे वक्त की ऐसी तैसी है

जान देने को तैयार बैठी हूँ

हाय हाय ये क्या कर बैठी हूँ 
इश्क़ रियाया से कर बैठी हूँ 
दिल भी दिया तो देश को दे दिया 
जान भी देने को तैयार बैठी हूँ

गोदना














क्यूँ चाहते हो 
मैं देखूं  तुम्हें 
तुम्हारी नज़र से 
समझूँ  तुम्हें 
तुम्हारे नज़रिए से 
तुम्हें और तुम्हारे सभी 
करतबों को जायज़ ठहराऊँ
तुम्हारी तरह
बे सिर पैर की तक़रीर दे कर
तुम्हारे अहं की तुष्टि करु
झूठी वाह वाही से
इसलिए कि मात्र तुम
मानते आए हो सदियों से
कि तुम श्रेष्ठ हो
मात्र मेरे तन से
और इसी कारण तुम
चाहते रहे की मैं
तुम्हें तुम्हारी नज़र से ही
बस देखूँ
और खुद को  भूल जाऊँ

और देखूं मैं
वो नीली स्याही के स्याह  रंग

कितनी पीड़ा से
 गुदे मेरी नस नस पर

गोदने को तेरी मोहर
और तेरी नज़र से मैं देख कर
करती रही उनकी भी कला समीक्षा
बड़ी बुद्धिजीवी बन कर


सुनीता  धारीवाल जांगिड 

चंचला

मैं स्त्री चंचला 
सच में मेंरा चरित्र 
वही परिभाषित करते हैं 
जो मुझ से कभी मिले नहीं 
जो थोडा बहुत जानते है
वह मन गहरे जुड़े नहीं
जिन्होंने मेरे वचन कभी सुने नहीं
जो पूर्व धारणाओं से ग्रसित है
वे चल कर मुझ तक आये ही नहीं
बस जबान घिसाई चलती है ।
हर औरत यूँ ही तो पलती है
और यूँ ही आगे बढ़ती है
नभ् अम्बर को छू जाती है

कुछ तो है होना जाना

छपना छपाना 
कुछ नहीं होना जाना
खुद उठा के अपनी किताब 
बाँट कर आना 
लायब्ररी दर लाइब्रेरी 
छोड़ कर आना
किसी रजिस्टर के क्रमांक में
किसी अलमारी के कोने में
धूल से मिलने के लिए
किसी गत्ते में काले कागज़
चुपचाप छोड़ आना
थोड़ी चर्चा पा जाना
एक चायपान का दौर
और लोकार्पण का ढमढमा
अति विशिस्ट का रहना
और बधाई का थोडा शोर
पत्रकारो की फ़ौज
कर लेंगे थोड़ी मौज
फिर समीक्षा को कहना
संपादक से मिल आना
साक्षात्कार छपवा लेना
थोडा नाम भी हो जायेगा
मिली जब एक नामवर लेखिका सखी
आँखों ही आँखों में जैसे
कह रही थी मुझे
जो ऊपर पंक्तियों में मैंने कहा
बिन बोले उसके जान गयी
उस तन की तरंगे जान गयी
बस इतना ही कह पायी मैं
हाँ लिखना भी चाहती हूँ
छपना भी चाहती हूँ
ताकि जिन्दा रह सकूँ
काले अमर अक्षरो में
और उस आती पीढ़ी के लिए भी
जो 200 वर्ष बाद भी इन गत्तो
में कीड़े खाये कागजो और अक्षरो में
ढूंढने की कोशिश करेंगे
की इतने वर्ष पूर्व महिलाएं
कया सोचती थी
इन काले गहरे अक्षरो में
समाज को क्या परोसती थी
मेरी किताब अलमारी में हो भी जाये
पर मैं खुद बंद अलमारी कहाँ
मैं तो गली गाँव सब फिरती हूँ
कहती हूँ उनकी सुनती हूँ
कितनो की पीड़ा हरती हूँ
ज्ञान की सेवा झोली में डाल
फिर अगले गाँव निकलती हूँ
मैं कहाँ रूकती हूँ कहाँ टिकती हूँ
ज्ञान को व्यवहार में लाना
मैं ये ही पाठ पढ़ाती हूँ
भीतर मेरे जो औरत है
बाहर जो औरते मैंने देखी है
बस उसको ही कह डाला है
न लेखक हूँ मेरा न गुरु कोई
बस मन का सुना रच डाला है

अबोले पैगाम

रिश्ते हो या रिश्तों के नाम हों 
ज़रूरी तो नहीं 
रूह से रूह के अबोले पैगाम हो 
ज़रूरी तो नहीं 
चलो जो है ही नहीं उसे खोजते है वो पा जाएँ 
ज़रूरी तो नहीं
चलो करे बे सिर पैर की बाते
कोई समझ ही न पाये
ज़रूरी तो नहीं
चलो उलझे किसी मुल्ला किसी पंडित के साथ
और वो भगवान मिला दे
ज़रूरी तो नहीं

आवाज

कुछ दूर चल के क्यों ठहर जाते है मेरे कदम 
जैसे कोई आवाज देता है पीछे से रुको 
मुड़ कर देखती हूँ तो दीखता कुछ नहीं 
तेरे शहर की धुंधली यादो की धूल के सिवाय 
फिर आगे बढ़ जाती हूँ यायावर की तरह 
हर मोड़ पर कुछ आवाजे पीछा करती है
जो शायद चहचहाई होंगी मेरे साथ कभी
कभी सावन की रिमझिम में कही फाल्गुन में
और फिर वो भी चल दी होंगी
नए नीड़ और जलाशयों की तलाश में
और मैं भी निकल गयी हूंगी यायावर जो ठहरी
ठहर जाना कहाँ फितरत है मेरी
मुझको रख ले ताउम्र ऐसी किस्मत कहाँ तेरी

ऐ पगली

ऐ पगली
कहाँ चल दी
चल आ लौट आ
आगे दिमाग वालो की बस्ती है
जहाँ उनकी औकात महंगी
तेरी इज्ज़त सस्ती है

चलो चलें

चल चलें निकलें
किसी अंतहीन यात्रा पर
जहाँ धरती और आसमां 
मिलते हैं किसी छोर पर
और चलो पकाते हैं
अपने ख्वाब
किसी गर्म लावे के अंगारों पर
किसी अनजान सुलगते टापू पर
फिर ठंडा करें उन्हें
छिपा किसी हिमखंड के बीच
और फिर से रख आँखों में
और बढ़ चले उस ओर
जहाँ धरती का चुम्बक चुकता हो
ब्रह्माण्ड धरा अधरों पर झुकता हो
चलो चलें चल निकलें

सिर्फ हम

मैं हू तो सही 
तू तो कोई भी नहीं
मैंने रच रखा है तुम्हे
अपनी कल्पनाओ में
आखिर खुशफ़हमी भी 
तो कुछ होती है
कहीं भी न सही
पर तू है तो सही
जहाँ मैं और तू का फर्क
होता ही नहीं
बस होते है
 सिर्फ हम

जिक्र

न अब वो आग है 
न दुनिया की फ़िक्र 
न कोई तेरा जिक्र 
न कोई मेरा जिक्र

रस्मे दुनिया दारी

रस्म ऐ दुनिअदारी
कब रास मुझे आई थी
मुक्कदर देखो मेरा
मिला भी तो क्या
कागज़ कलम दवात
और एक जन आसन
जहाँ बैठ कर दिन रात
लिखूं मैं रस्म ऐ रिवाज
दुनिया दारी के और
पहरा दूँ मेरे बनाये
रस्मायी खांचो का
जो बना दिए है मैंने ही
दुनियादारी के लिए

डूब कर करना था इश्क

डूब कर करना था इश्क तो मैंने
आवाज ऐ छपाक आते ही 
लोग बचाने मुझे कूद दिए

होली

रंगो से रंगे है गली नुक्कड़ बाज़ार 
अबीर गुलाल लाल पीले नीले हरे 
ढेरो खुशबूओं वाले रंगीन पानी 
खाली भरी पिचकारी 
सब देखा आँखों से 
छू कर भी देखा
कैद किया आँखों में
जो भी रंग और मेले है
चन्द लम्हों में धूल गए
जब याद तुम्हारी आई
वो नन्ही सी पिचकारी
जो मैंने ले कर दी थी
जब तुम्हे पकड़नी भी नहीं आती थी
चलाना तो दूर की बात थी
और ठिठक कर घुल गए सभी रंग
मेरे गाल पर टपकी दो बूंदों में
और हंस दी मैं अपने आप
जब पीछे से पुकारा था तुमने
रंग लगवा लो प्लीज माँ

कोई शीर्षक नहीं

कुछ दूर चल के क्यों ठहर जाते है मेरे कदम 
जैसे कोई आवाज देता है पीछे से रुको 
मुड़ कर देखती हूँ तो दीखता कुछ नहीं 
तेरे शहर की धुंधली यादो की धूल के सिवाय 
फिर आगे बढ़ जाती हूँ यायावर की तरह 
हर मोड़ पर कुछ आवाजे पीछा करती है
जो शायद चहचहाई होंगी मेरे साथ कभी
कभी सावन की रिमझिम में कही फाल्गुन में
और फिर वो भी चल दी होंगी
नए नीड़ और जलाशयों की तलाश में
और मैं भी निकल गयी हूंगी यायावर जो ठहरी
ठहर जाना कहाँ फितरत है मेरी
मुझको रख ले ताउम्र ऐसी किस्मत कहाँ तेरी

रविवार, 13 मार्च 2016

हाथ

हाथ का  हमने हिंदी भाषा में कितनी तरह उपयोग किया है पढ़िए

कोई हाथ मल रहा है
कोई हाथ दिखा रहा है
कोई हाथ कटवा रहा है
कोई हाथ  जोड़ रहा है
कोई हाथ तोड़ रहा है
कोई हाथ हिला रहा है
कोई हाथ मिला रहा है
कोई हाथ मांग रहा है
कोई हाथ  मांज रहा है
कोई हाथ  मार रहा है
कोई हाथ सेंक रहा है
कोई हाथ फेर रहा है
कोई हाथ पकड़ रहा हैं
कोई हाथ हटा रहा है
कोई हाथ जला रहा है
कोई  किसी का  हाथ देख  रहा है
किसी के हाथ कुछ लग नहीं रहा
किसी के हाथ बहुत कुछ लग गया
किसी के  हाथ में कुछ नहीं रहा
किसी के हाथ में बहुत कुछ आ गया
किसी के हाथ में रेखा नहीं नहीं
किसी के हाथ छिल गए
कोई बस हाथ की खा रहा है
आप भी जोड़ दीजिए बाकी -----

सुनीता धारीवाल जांगिड़
Social  entrepreneur ,motivator ,corporate soft skills trainer

देखा कितनी  तरह से हिंदी भाषा में हाथ शब्द का उपयोग  करते है

वजह

जीने को वजह चाहिए
करने को काम
रूचि और रूह चाहिए
मेहनत को दाम
बेगारों से आजिज आ चुकी मेरी टीम और मैं

गोद

गोद  में तुम थे
मौज  में  मैं  थी
न तुम रहे
न मैं  मैं बची
देह बची   है
और बचा है
अभिनय ताउम्र

उम्र गुजरी जाती है

ज़िंदगी ठहरी है उम्र गुजरी जाती है
दिन गुजरता नहीं साल गुजरते जाते है

तेरी दुआ लग गई

दर्द मेरी पहचान बनते बनते रह गया
मौत के करीब थी कि तेरी दुआ लग गई

बात करते है

जो दे सकते है दवा वो दुआ  की बात करते है
दुआए अनगिनत बरसती रही है आदतन
चलो किसी कारगर की  दवा की बात करते है
abhi abhi

शांति

शांति और  सन्नाटे में  का अंतर होता शांति फैलती है सन्नाटा पसर जाता है, मन आत्मा  भीतर भी यही दोनों फैलते और पसरते रहते हैं

Thikana

अजीब संयोग रहा जीवन इस जीवन में
जहां घर था वहां ठिकाना नहीं
जहा ठिकाना हुआ वहां घर नह

Safar sirfira hai

सफर सिरफिरा है
बिन पगडण्डियोँ के भी  रास्ते गिन रहा है
मंजिल बेआवाज़ है फिर भी शोर सुन रहा है
सफर सिरफिरा है
सरक सरक सरक नई राहे चुन रहा है
अकेला है दिशाओ से रिश्ते बुन रहा है
सफर सिरफिरा है
गोल गोल गोल खुद अपना सर धुन रहा है
शेष फिर

अंकित मेरा बेटा



उकेरा था एक नाम 
अपनी कोख की माटी में
वक्त  की  चोट   से 
होनी के   संहार से
मिल गया धूल में
यादों की बरसात
अब भी आती है  रोज
बह जाती है धूल
साफ़ साफ़   दिखने  लगता है
कोख की दीवारों पर
मिटने की नाकाम कोशिश करता
एक नाम अंकित मेरा  बेटा

सुनीता धारीवाल

I am sorry papa

सच्ची घटनाएँ जो मुझ पर गहरा असर करती है -आप भी ज़रूर पढ़े -
एक  बारह  वर्षीया  बच्ची कोर्ट से बाहर  निकलते हुए जोर जोर से रोते  ही जा रही थी और जोर जोर से बोल रही थी पापा  आई ऍम सॉरी  पापा आई  ऍम सॉरी -सभी की निगाहे  उस  बच्ची  की तरफ  लगी  थी -पापा को हथकड़ी  लगाये  पुलिस ले  जा रही थी -जब  हथकड़ी लगे पापा  पास  से  गुजरे तो  उसे  बोले  मैं  न कहता  था  पापा  को  जेल  हो  जाएगी -सुनते ही  वह  बच्ची और  भी जोर  जोर  से  रोने  लगी  पापा  मुझे  माफ़  कर  दो - सबकी उत्सुकता  उसी दृश्य  से  सम्बंधित  थी -मैंने  भी  पास ही  खड़ी  मेरी मित्र वकील से पुछा की आखिर  मामला क्या  है -जो सुना तो उसके बाद बहुत देर तक सुनना  जैसे बंद ही हो गया - बिन माँ की उस बच्ची का पिता पिछले  छ; महीने से उसका बला त्कार  कर रहा था  उसे  किसी  भी रिश्तेदार के यहाँ नहीं जाने देता था   न ही  किसी  से  मिलने  देता था -रिश्तेदार समझ रहे थे की वो अपनी बच्ची के लिए बहुत possessive है और किसी पर यकीन नहीं करता  खुद ही उसकी बढ़िया और सुरक्षित परवरिश  कर रहा  है -एक दिन  बच्ची ने  बार बार हो रहे शारीरिक प्रहारों से  आहत हो कर अपनी टीचर को अपनी व्यथा  सुना थी - टीचर ने मामला  दर्ज करवा दिया और पुलिस पिता को उठा ले गयी -मैं सोच ही नहीं पा रही थी की वह बच्ची क्या सोच रही होगी -अपना दर्द भूल आत्मग्लानि में सॉरी सॉरी चिल्ला रही थी मेरे कारण पापा को जेल हो गई -
यह सच्ची घटना है -चंडीगढ़ कोर्ट से अखबारों में भी छपा था बच्ची का ये रोना

कन्धा

हो तो जाऊं तुम्हारे कंधे तक कि मिला के चल सकूँ--
-यूँ ही एक लाइन बन गई  है दूसरी भी बन जाएगी

भँवर

ओ समय के  भंवर  तेरी कोई  दिशा तो होती  होगी
कभी कहीं  तो तेरा वेग भी पस्त  तो होता होगा
कैसे  पहचानू तुझे कि  तेरा  प्रचंड अभी बाकी है
कतरा कतरा  बिखरी मैं तेरा घमंड अभी  बाकी है
सांस जो बची  बाकी है वो घुट घुट कर आती है
पता नहीं बेरौनक सा सफ़र कितना बाकी है

अर्ज किया है

रूखी सी मेरी आंख जिस दिन भी नम होगी
खारी सी उसी स्याही से खूबसूरत सी गज़ल होगी

बाकि  लिखना  बाकी है----

झूठ

समझ  नहीं  आता  ?

मेरा  बार बार का रोना झूठ
  या बार बार का हँसना  झूठ 
बार बार खामोश  हो जाना झूठ
या फिर बोलते ही  जाना झूठ
कुछ  न  कुछ  तो  झूठा है 
मेरा  रब्ब  शायद  रूठा  है

निभा रही हूँ मैं

दुनियादारी  निभा रही हूँ
हर उत्सव में जा रही हूँ
ठहाके भी लगा रही हूँ
खुद अपने ही मन से
नजरें चुरा रही हूँ मैं

शाम

शाम हुई है अभी कि दिन गुजरा जाता है
रुकने को कुछ पल सूरज भी मुकरा जाता है

फसल

अपना ही घर कोई जलाता है क्या
अपनी ही मौत कोई बुलाता है क्या
ये बवाल ये बवंडर ये  धुँआ ये  राख
है सब क्षितिज की ओर
बरसेगा अब निवेश तेजाब सा
उगेगी फसल भाईचारे की कसैली सी
लिखूंगी मैं भी कुछ यादें मटमैली सी

शनिवार, 12 मार्च 2016

ज़माने से आगे कबके निकल लिए
















जिसे सोचने में ज़माने ने ज़माने लगा दिए
वो दुस्साहस कर हम कबके निकल लिए

दुर्गम सी राहों से कब डरना  आया  था 
जो राह सुरक्षित थी हम उस पर भी  फिसल दिए 

 खाकामस्ती में भी क्या  शौक था  पीने  का 
  जब साकी  भी मुकर गया हमने अपने अरमाँ ही निगल लिए 

 पकड़ ऊँगली थे जो लगे चलने उन्हें  धावक बना डाला 
   वो दौड़े  इतने तेज आँखों से  दूर ही  निकल दिए 


तपते सूरज से मिला आँखे हम रहे रोकते  धूप 
 झुलस्ते रहे साल दर साल  वो छावं बाँध कर निकल दिए 


नकली  चलन   ज़माने  के कब थे माने मैंने 
लाख मना करने पर सब  राज  ही  उगल दिए

कब न समझी थी झूठ बोले  जितने ज़माने ने 
धूर्तों के चटखारों से ही हम ज़माने में जम दिए 

तेवर थे बगावत के खून में ही मेरे हैरान हूँ मैं अब भी  
कैसे माफ़ किये सारे  जिसने भी थे गम दिए

रोमांच दुस्साहस का ये जमाना कया जाने 
पल में जिए हजारो साल तुम देख उड़ान क्यूँ डर दिए 

जिसे सोचने में ज़माने ने ज़माने लगा दिए
वो दुस्साहस कर हम कबके निकल लिए