बुधवार, 23 मार्च 2016

दुस्साहस

जिसे सोचने में ज़माने ने ज़माने लगा दिए
वो दुस्साहस कर हम कबके निकल लिए
दुर्गम सी राहों से कब डरना आया था
जो राह सुरक्षित थी हम उस पर भी फिसल दिए
खाकामस्ती में भी क्या शौक था पीने का
जब साकी भी मुकर गया हमने अपने अरमाँ ही निगल लिए
पकड़ ऊँगली थे जो लगे चलने उन्हें धावक बना डाला
वो दौड़े इतने तेज आँखों से दूर ही निकल दिए
तपते सूरज से मिला आँखे हम रहे रोकते धूप
झुलस्ते रहे साल दर साल वो छावं बाँध कर निकल दिए
नकली चलन ज़माने के कब थे माने मैंने
लाख मना करने पर सब राज ही उगल दिए
कब न समझी थी झूठ बोले जितने ज़माने ने
धूर्तों के चटखारों से ही हम ज़माने में जम दिए
तेवर थे बगावत के खून में ही मेरे हैरान हूँ मैं अब भी
कैसे माफ़ किये सारे जिसने भी थे गम दिए
रोमांच दुस्साहस का ये जमाना कया जाने
पल में जिए हजारो साल तुम देख उड़ान क्यूँ डर दिए
जिसे सोचने में ज़माने ने ज़माने लगा दिए
वो दुस्साहस कर हम कबके निकल लिए

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें