वरिष्ठ सामाजिक चिंतक व प्रेरक सुनीता धारीवाल जांगिड के लिखे सरल सहज रोचक- संस्मरण ,सामाजिक उपयोगिता के ,स्त्री विमर्श के लेख व् कवितायेँ - कभी कभी बस कुछ गैर जरूरी बोये बीजों पर से मिट्टी हटा रही हूँ बस इतना कर रही हूँ - हर छुपे हुए- गहरे अंधेरो में पनपनते हुए- आज के दौर में गैर जरूरी रस्मो रिवाजों के बीजों को और एक दूसरे का दलन करने वाली नकारात्मक सोच को पनपने से रोक लेना चाहती हूँ और उस सोच की फसल का नुक्सान कर रही हूँ लिख लिख कर
रविवार, 13 मार्च 2016
झूठ
समझ नहीं आता ?
मेरा बार बार का रोना झूठ
या बार बार का हँसना झूठ
बार बार खामोश हो जाना झूठ
या फिर बोलते ही जाना झूठ
कुछ न कुछ तो झूठा है
मेरा रब्ब शायद रूठा है
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