शनिवार, 5 मार्च 2016

मुझ में तिहाड़

तिहाड़ मेरा मुझ में ही है 
जहाँ मैं कुंडली मार बैठ गयी हूँ 
अभ्यस्त हो गयी हूँ काल कोठडी के 
स्याह अंधेरों से सन्नाटो से
दिल लगा बैठी हूँ कुएँ की दलदली गहराई से
कि निकलना ही नहीं चाहती
गरीबी की तरह ,बदनसीबी की तरह
भीतर का तिहाड़ दिल में उतर गया है
कभी कभी यह तिहाड़ जब
दिमाग की ओर चल देता है
तो दिखने लगती है तिहाड़ की बंद कोठड़ी में
एक किरण रौशनी की और
मन चल देता है उस ओर लगा के जोर
फिर दिल कहता है पगली
दिल की लगी भी कहीं छोड़ी जाती है
फिर लौट आती हूँ उसी तिहाड़
जिसके अँधेरे सन्नाटो से
दिल लगा बैठी हूँ और फर्क भूल गयी हूँ
खुली हवा में बाहे फैला सांस लेने में
और सीलन भरी तिहाड़ की कोठडी में
दम घुटती सी साँसे निगलने से

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