क्यूँ चाहते हो
मैं देखूं तुम्हें
तुम्हारी नज़र से
समझूँ तुम्हें
तुम्हारे नज़रिए से
तुम्हें और तुम्हारे सभी
करतबों को जायज़ ठहराऊँ
तुम्हारी तरह
बे सिर पैर की तक़रीर दे कर
तुम्हारे अहं की तुष्टि करु
झूठी वाह वाही से
इसलिए कि मात्र तुम
मानते आए हो सदियों से
कि तुम श्रेष्ठ हो
मात्र मेरे तन से
और इसी कारण तुम
चाहते रहे की मैं
तुम्हें तुम्हारी नज़र से ही
बस देखूँ
और खुद को भूल जाऊँ
और देखूं मैं
वो नीली स्याही के स्याह रंग
कितनी पीड़ा से
गुदे मेरी नस नस पर
गोदने को तेरी मोहर
और तेरी नज़र से मैं देख कर
करती रही उनकी भी कला समीक्षा
बड़ी बुद्धिजीवी बन कर
सुनीता धारीवाल जांगिड
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