बुधवार, 23 मार्च 2016

कुछ तो है होना जाना

छपना छपाना 
कुछ नहीं होना जाना
खुद उठा के अपनी किताब 
बाँट कर आना 
लायब्ररी दर लाइब्रेरी 
छोड़ कर आना
किसी रजिस्टर के क्रमांक में
किसी अलमारी के कोने में
धूल से मिलने के लिए
किसी गत्ते में काले कागज़
चुपचाप छोड़ आना
थोड़ी चर्चा पा जाना
एक चायपान का दौर
और लोकार्पण का ढमढमा
अति विशिस्ट का रहना
और बधाई का थोडा शोर
पत्रकारो की फ़ौज
कर लेंगे थोड़ी मौज
फिर समीक्षा को कहना
संपादक से मिल आना
साक्षात्कार छपवा लेना
थोडा नाम भी हो जायेगा
मिली जब एक नामवर लेखिका सखी
आँखों ही आँखों में जैसे
कह रही थी मुझे
जो ऊपर पंक्तियों में मैंने कहा
बिन बोले उसके जान गयी
उस तन की तरंगे जान गयी
बस इतना ही कह पायी मैं
हाँ लिखना भी चाहती हूँ
छपना भी चाहती हूँ
ताकि जिन्दा रह सकूँ
काले अमर अक्षरो में
और उस आती पीढ़ी के लिए भी
जो 200 वर्ष बाद भी इन गत्तो
में कीड़े खाये कागजो और अक्षरो में
ढूंढने की कोशिश करेंगे
की इतने वर्ष पूर्व महिलाएं
कया सोचती थी
इन काले गहरे अक्षरो में
समाज को क्या परोसती थी
मेरी किताब अलमारी में हो भी जाये
पर मैं खुद बंद अलमारी कहाँ
मैं तो गली गाँव सब फिरती हूँ
कहती हूँ उनकी सुनती हूँ
कितनो की पीड़ा हरती हूँ
ज्ञान की सेवा झोली में डाल
फिर अगले गाँव निकलती हूँ
मैं कहाँ रूकती हूँ कहाँ टिकती हूँ
ज्ञान को व्यवहार में लाना
मैं ये ही पाठ पढ़ाती हूँ
भीतर मेरे जो औरत है
बाहर जो औरते मैंने देखी है
बस उसको ही कह डाला है
न लेखक हूँ मेरा न गुरु कोई
बस मन का सुना रच डाला है

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