शनिवार, 5 मार्च 2016



ब कुछ लगा था मुझ पर ------ वही पेड़ दिमाग में घुस गया ---जिन्दगी भर पेड़ बनने की कवायद /सँघर्ष में लगी रही --ताउम्र पेड़ों पर चढ़ने को नकारती रही बस बेल नहीं बनना था -इसलिए अकेली और व्यवस्था से बाहर धकेल दी जाती रही -बेल तो धरती पर ही फैलती है सो वहां फैलने की कोशिश में रही और राहगीर पगडंडियां बनाने के लिए बेल हटाते रहे काटते रहे -अब भी यही हो रहा है वो अपनी आदत से मजबूर मैं अपनी ---राहगीर सुझाव देतें है पाँव के नीचे हो कोई पेड़ पकड़ लो उचाई पा जाओगी -बारह मासी खिल जाओगी ---जानती हूँ बेल भी कहाँ रह जाउंगी बोन्साई बन जाउंगी

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