मंगलवार, 28 जनवरी 2020

जब मैं खुद के पास होती हूँ  
तब  मैं बहुत उदास होती हूँ 

तब शब्द घुमड़ने लगते है 
अक्षर भी उड़ने लगते है 

मन कागज़ होने लगता है
दिमाग की कलम सरकती है

दिल की हर परत दरकती है
 और कविता होने  लगती है

फिर बेबस  सी हो जाती हूं
और कलम उठाने भगती हूँ 

कागज़ फिर रंगने लगती  हूँ 
 ये उदासी  भंगने लगती हूँ 

फिर शब्द जो आने लगते है 
कितने जाने  पहचाने लगते है 

खींचती जाती हूँ विषम लकीरें सी 
 सबके मतलब  बनते जाते है

अभी लिख रही हु शेष भी शीघ्र ---sd

शुक्रवार, 17 जनवरी 2020

 ऐसा नही कि हमको मोह्हबत नही मिली 
पर जैसी चाहते थे वैसी नही मिली 
जो भी मिला जिंदगी में बहुत देर से मिला 
जब जब जरूरतें थी तब तब नही मिला 
 तुम क्या मिले मुझे मिल कर मिले नही 
बस जीते मरते जीते जाना पर  जीना नही मिला

गजल

तुम्हें उस से मोहब्बत है तो हिम्मत क्यूँ नहीं करते 
किसी दिन उस के दर पे रक़्स-ए-वहशत क्यूँ नहीं करते 

इलाज अपना कराते फिर रहे हो जाने किस किस से 
मोहब्बत कर के देखो ना मोहब्बत क्यूँ नहीं करते 

तुम्हारे दिल पे अपना नाम लिक्खा हम ने देखा है 
हमारी चीज़ फिर हम को इनायत क्यूँ नहीं करते 

मिरी दिल की तबाही की शिकायत पर कहा उस ने 
तुम अपने घर की चीज़ों की हिफ़ाज़त क्यूँ नहीं करते 

बदन बैठा है कब से कासा-ए-उम्मीद की सूरत 
सो दे कर वस्ल की ख़ैरात रुख़्सत क्यूँ नहीं करते 

क़यामत देखने के शौक़ में हम मर मिटे तुम पर 
क़यामत करने वालो अब क़यामत क्यूँ नहीं करते 

मैं अपने साथ जज़्बों की जमाअत ले के आया हूँ 
जब इतने मुक़तदी हैं तो इमामत क्यूँ नहीं करते 

तुम अपने होंठ आईने में देखो और फिर सोचो 
कि हम सिर्फ़ एक बोसे पर क़नाअ'त क्यूँ नहीं करते 

बहुत नाराज़ है वो और उसे हम से शिकायत है 
कि इस नाराज़गी की भी शिकायत क्यूँ नहीं करते 

कभी अल्लाह-मियाँ पूछेंगे तब उन को बताएँगे 
किसी को क्यूँ बताएँ हम इबादत क्यूँ नहीं करते 

मुरत्तब कर लिया है कुल्लियात-ए-ज़ख़्म अगर अपना 
तो फिर 'एहसास-जी' इस की इशाअ'त क्यूँ नहीं करते 

फ़रहत एहसास
पागलपन वाला प्यार 
वो तो मुझे हुआ था 
उस ने तो बस 
छुआ था मुझे 
मेरे आग्रह करने पर 
उसके पैरों में जंजीरे थी 
और मैं 
उड़ना चाहती थी 
उसका हाथ पकड़ कर 
सात आसमानों में 
जो हो नही सकता था 
उसे जंजीरों से प्यार था 
और मुझे उस से 
वह वहीं रहा 
मैं आगे बढ़ गई 
थोड़ी सी वहीं रह गई 
उसी के पास 
बाकी जो थी 
वह चल दी थी 
भीड़ के पीछे 
कहीं भी नही जाने को
बस चल रही थी 
रेंगते हुए 
उड़ने का ख्याल भी 
पांव के छालों में 
घुल कर पीड़ा देता है 
अब नही होता 
उड़ना चलना और रेंगना 
अब तो बस बैठ गई हूं 
सड़क  के एक किनारे 
सड़क चल रही है 
मैं नही
आज ही के दिन पिछले वर्ष भी भावुक सी थी अपसेट सी थी आज ही के दिन आज भी हूँ बिना कारण 

पिछले साल लिखा था यह 

एक बड़ा सा काला शून्य ------

 इस माटी देहात्मा में
मिल गऐ है कितने ही
पश्चाताप के
आत्मग्लानि के
मोक विकार के 
स्वधिक्कार के
असीम असुरक्षा के
कितने ही अवयव
घुल गए हैं मेरे
निरन्तर बहते
खारे आंसुओं से 
बना लिया है दलदल
इस घुलमिल मित्रता में
जहां मेरे प्राण फंसे है
अनचाहे से देहात्मा से कसे है
जितना भी निकलना चाहूं 
उतना गहरे और धंसे है
नहीं पार करती कोइ भी रौशनी
यह जीवन का अन्धेरा दलदल
किसी अध्यात्म की भी आंच 
नही सुखा पा रही यह गहराई
बस प्राण संकट में छटपटाते से है
बस प्राणो का ही तो संकट है
सब कुछ तो है जीवन में
और जीवन ही सब कुछ है
फिर कंयू कहीं दूर 
एक बड़ा सा काला शून्य 
मुझे  अपने पास बार बार बुलाता है
और मैं आकर्षित हो
 रोज उस ओर बढती हूं
पर  छिटपुट रौशनियां 
 गाहे बगाहे मेरा 
रास्ता रोक लेती है 
उजालों से जंग लड़ रही हूं
उस शून्य की ओर जाने के लिए
जिससे मुझे हो गया है प्रेम 
समा जाना है मुझको तेजी से धूमते शून्य में
निकलना है मुझे असिमित अन्नत यात्रा में 
जहां मिलेगें मुझे 
 मुझसे बिछड़े मेरे टकड़े
और उन संग मैं  भी काले शून्य 
में बिखर जाऊंगी कण कण हर क्षण क्षण 
सदा के लिऐ सदा के लिऐ काला शून्य
by suneeta dhariwal
मैं घटा थी 
भरी थी जल से 
बरसने को आतुर 
किसी प्यास पर 
आह: मुक़्क़द्दर 
समुंदर पर बरस बैठी 
धीरे धीरे खारी हो रही हूं 
बस कुछ बूंदे 
कहीं बीच रुकी है 
शायद कोई लम्हा 
समुंदर की सीप 
अपना ले मुझ को 
गले अपने लगा ले मुझको 
और मैं शायद मोती बन जाऊं 
समुंदर की गिनी जाऊं