शुक्रवार, 17 जनवरी 2020

मैं घटा थी 
भरी थी जल से 
बरसने को आतुर 
किसी प्यास पर 
आह: मुक़्क़द्दर 
समुंदर पर बरस बैठी 
धीरे धीरे खारी हो रही हूं 
बस कुछ बूंदे 
कहीं बीच रुकी है 
शायद कोई लम्हा 
समुंदर की सीप 
अपना ले मुझ को 
गले अपने लगा ले मुझको 
और मैं शायद मोती बन जाऊं 
समुंदर की गिनी जाऊं

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें