गुरुवार, 2 जून 2016

नानी का कच्चा घर बछिया और मैं -

नानी का कच्चा  घर बछिया और मैं   -



गर्मियों  की छुटियाँ  हैं आजकल सूर्य देवता अपना तेज बढ़ा कर बच्चो को  ढेर सारी स्कूल की छुट्टियाँ दिलवा देते है हर साल और बच्चे भी हर साल इंतजार करते हैं इन छुट्टियों  का -जब मैं बच्ची  थी या  यूँ कहें हमारे बचपन में छुट्टियों का मतलब होता था नानी का  घर माने -खेत #गाय #भैंसे# मिटटी # रेत # रजवाहा #दरिया # कच्ची मूंगफली# कच्चे  आम #कच्ची लस्सी #गेहू के दाने बदले बर्फ #बर्फ  रंग गोला #तरबूज #खीर #शहतूत #ककड़ी#और एक अदद कच्चा घर गोबर व् मिटटी से लिपा हुआ #नलके का पानी #गुड की चाय #गाय का दूध #सूखा आम का अचार #चिब्बड की चटनी #छत पे सोना और भी बहुत कुछ -हमारे लिए आज के बच्चो जैसी न कोई समर वर्कशॉप की योजना  थी न माँ ने कहीं किसी दफ्तर जाना था ,हमारी माँ को हमसे भी ज्यादा इन्तजार  होता था हमारी इन छुट्टियों का .हर साल हम पंजाब रोडवेज की बस पकड़ पटियाला  फिर समाना और फिर गाँव धनेठा पहुँचते .रोडवेज की बस समाना तक जाती  और वहां से कोई भी साधन मिलता उस से गावं तक जाना होता ,प्राइवेट बस का टाइम बहुत देर देर तक होता था अगर बस आ भी जाती तो घंटो उसमे इतनी गर्मी में हाथ का पंखा करते करते बैठे रहते कंडक्टर भी पूरी बस भर जाने से पहले चलने की सिटी नहीं मारता था .बस में मम्मी को पूछते कूड़े कित्थे जाणा किहदी कुड़ी ऐ  चंडीगडो आई  ऐ  -(मम्मी के और हमारे शहरी पहनावे से लोग जान जाते हम शहरी हैं )चंडीगढ़ के नाम से मम्मी का रुतबा उस बस में ऊँचा हो जाता था और लोग हमे पानी पूछते लगते सीट देने लगते और मम्मी ऐटीटयूड में आ जाती .और अपनी बड़ी सी हील और रेशमी  गार्डन सिल्क  के सूट  को व्यवस्थित सी करने लगती .इन सब के बीच हम प्रार्थना करते हे भगवान बस खराब हो जाए -स्टार्ट ही न हो -क्यूकी बस ख़राब होने से मम्मी को अन्य विकल्प चुनना होता था गावं में जाने के लिए जिसमे बैलगाड़ी ही थी जिसे पंजाबी में गड्डा कहा जाता है -गड्डा हमारा ड्रीम वाहन था जिसमे बैठने का मज़ा तो शब्दों की सीमा से परे है -एक आध बार ऐसा हुआ था कि नानी के घर जाते हुए बस ख़राब हुई तो सारी सवारियों को बीच रास्ते उतार दिया गया था -हम भी सवारी थे सो हम भी उतरे सब लोग अपने थैले झोले ले कर पैदल चल दिए पर शहरी बच्चो वाली शहरी हो चुकी  मम्मी के साथ तीन बच्चे और सूटकेस और बैग और मम्मी का पर्स और बड़ी बड़ी हील अब ये सब ढोते हुए पैदल कैसे चलती मम्मी -सो वह पेड़ की छावं में रुक गयी एक गड्डे वाले नाना जी टाइप सरदार में पूछा कि बीबा कित्थे जाणा -मम्मी ने गावं का नाम बताया इस से पहले की गड्डा रुके हम लटक गए सवार हो गए -ऐसे झूलते हुए चलने का आनंद दुर्लभ था -बैलों के तीखे पीतल जडे सींग उनके नाक में से गुजारी रस्सियाँ सब अद्भुत था .हमारी तो आँखे फटी जा रही थी और मुस्कान ने तो होठों से  पूरा पंजाब नाप दिया था ,भगवान कसम क्या सवारी थी गड्डे वाले ने शहतूत भी खिलाये थे हमें ,ल्यो नयाणयो तूतियां खा लवो .ऐसा मीठा लाल काला फल तो अद्भुत ही था ,तो भला ऐसा ऐसी सवारी क्यों कर न याद आती .हे भगवान बस ख़राब कर दे बस ख़राब कर दे जपते रहे पर बस ख़राब न हुई और पहुँच गए नानी के गावं उसके आँगन में .दूध पानी चीनी से बनी कच्ची लस्सी पी कर हम बैठ गए. लाइट कम ही आती थी एक टेबल फैन था जिस पर नाना जी का पहला अधिकार था वो जब घर होते तो उसी टेबल फैन के सामने बैठते बाकी पीछे की तरफ जब ज्यादा लोग टेबल फैन के गिर्द हो जाते तो नाना जी उसके घूमने का बटन भी दबा देते वाह कया हवा थी जब हमारी ओर आती थी .सूत से भरी रंग बिरंगी डिज़ाइन वाली  खाट नाना जी को या औपचारिक मेहमानों को ही मिलती थी बाकि को तो बाण वाले मंजे हमारा स्टेटस बड़ी जल्दी बदल जाता था जब डैडी आते थे नानी के घर तो सूत वाली मंजी मिल जाती थी डैडी के जाने के बाद बाण वाली मंजी .पर हमे दोनों में आनंद था क्यूंकि दोनों हवादार थी दोनों में से ही हवा क्रॉस होने देने की क्षमता थी जो डैडी के  घर के डबल बेड में नहीं थी ,हमारे लिए दोनों का रोमांच बराबर था .
नानी के घर में बीच में आँगन था कच्चा बायीं  ओर कच्ची रसोई दाई ओर खुले में बनाया गया चूल्हा  और आधी ओट की दीवार और ओट के दूसरी तरफ दो हारे थे जिसमे एक में सारा दिन दूध पकता रहता था दुसरे में भी कभी गर्म पानी कभी कुछ कभी कुछ .आँगन के दुसरे छोर पर पशुओं के लिए घास फूंस की छत उसके नीचे खुरली बनी थाई और खूंटे भी थे .उसी के साथ ही खुले में भी खूंटे और खुरली बनी थी जिस में गाय भैंस बैल बाँधने की व्यवस्था थी .बाहर बड़ा सा लकड़ी का दरवाजा ,और अन्दर आते ही बड़ी सी बैठक नुमा जगह बसाला जिसके  कई भाग थे -उनके  अन्दर ही दो अन्धेरी कोठडी जिसकी छत के बीच गोल सा रोशनी आने का सुराख़ था जिसे तसले से टूटे हुए घड़े के निचले तसले नुमा हिस्से से ढक दिया जाता था -एक में नानी की बड़ी सी लकड़ी की पेटी ,कुछ लोहे के ट्रंक,  एक लकड़ी की जाली वाली छोटी अलमारी ,खाने का मटकों में अचार व्  घी व् अन्य सामान रहता था दूसरी  अँधेरी कोठडी में बिस्तरे मंजे और गेहूं भण्डारण के बड़े बड़े मिटटी से बने  ड्रम से थे -बाहर निकलते ही एक तरफ दिवार कर कानस पर पीतल के चमकदार गिलास कटोरी थाल सजे रहते थे .जगह जगह कपडे टांगने की काठ की खूंटियां और एक तरफ हरा चारा रखने की जगह ,दो खूंटियों पर बंधी तार पर बहुत कपडे टंगे रहते थे खेस दरिया भी ,

उन दिनों नानी ने एक गाय  रखी हुई थी और गाय ने एक दो रोज पहले बछड़ी जनी थी और गाय अपनी बछड़ी के प्रति बहुत पोज़ेसीव्  थी कोई पास जाता तो सींग हिला कर डराती रहती थी ,अब वो नई बछड़ी तो ठहरी हमारे गैंग की हमारी हम उम्र सी और उसके पास कोई सींग भी नहीं थे और बस शैतानी करती रहती थी .हमें वो बड़ी पसंद थी हमारा मन करता उसे छू कर देखें उस पर हाथ फेरें ,पर नानी की सख्त हिदायत कि" बच्छी नू हत्थ नहीं लाणा  गाँ मारुगी "इतनी प्यारी बच्छी और इतनी सख्त हिदायत यह कुछ जम नहीं रहा था -हमारा कौतुहल बढ़ जाता जब नानी सुबह और शाम बच्छी को  एक बार  को खोलती और गाय के पास उसे दूध पिलाने ले जाती -जैसे ही नानी बच्छी की रस्सी खोलती बच्छी बड़ी बड़ी कूद मारती और हर्षित होती उसकी खुशी बस हम बच्चे ही समझ पाते उस बच्छी को माँ का दूध पीने से भी ज्यादा चाहत होती रस्सी छुड़ा कर पूरे आँगन में दौड़ लगाने की और छलांगे मारने की कभी कभी जब नानी के हाथ से बच्छी की रस्सी छूट जाती तो वह पूरे घर की ऐसे दौड़ लगाती जैसे आज ओलम्पिक मैडल विजेता धाविका पूरे पंजाब में वही हैं नानी उसके पीछे पीछे दौड़ लगाती हम भी नानी के पीछे पीछे दौड़ते तो नानी हमें भी डांटती और बच्छी को भी और फिर बच्छी पकड़ में आ ही आती नानी कुछ देर उसे गाय के पास ले जा कर दूध पिलाती फिर उसे वहीँ बाँध देती और बाल्टी में दूध दोह के अन्दर ले आती  .नानी की हिदायत और व्यवस्था अनुसार हम सब सभी बच्चे आँगन में बिछे मंजे पर बैठ जाते और दूर से ही नानी क्या करती है कैसे करती है उसे देखते रहते ,अगर कुछ नहीं दीखता तो हम एक एक कर मंजे पर ही खड़े हो जाते.उस दौरान किसी भी प्रकार का  शोर करने की आवाज निकलने करने की पूरी मनाही थी क्यूंकि नानी का कहना था अगर हम शोर करेंगे तो गाय दूध नहीं देगी और नानी को लात मारेगी जी से नानी को चोट लग सकती थी ,हमारा उस बच्छी से रिश्ता गहराता जा रहा था मैं उसकी आँखों पर मुग्ध थी और उसका कूदना फांदना वाकई चमत्कृत कर देने वाला था .एक दिन नानी को राजवाहे में और  खेत  में जाना था उसने  सुबह सुबह हम सब को नहला धुला के खाना खिला दिया . उस दिन नानी ने सारे कच्चे घर को गोबर और गारे मिश्रित घोल से लीप दिया  यहाँ तक की चूल्हा और हारा भी मिटटी से लीप कर झक नया नया सा बना दिया था . हमारे लिए दोपहर का खाना रख कर नानी बहुत से गंदे कपडे धोने के लिए एक गठड़ी तासला साबुन थापी ले कर घर से चली गयी और मम्मी भी उनके साथ चली गयी  और बड़ा सा दरवाजा बंद कर गयी जिसका लकड़ी की फट्टे का ही कुंडा था जो दुसरे किवाड़ के साथ लगा कर बंद होता था और वह कुंडा हमारे कद से बहुत ऊँचा था इसलिए हम उसे खोल कर बाहर नहीं जा सकते थे .हमारे साथ घर में सिर्फ वह बच्छी रह गयी थी क्यूंकि  अब गाय भी हर दिन चरने के लिए बाहर जाने लगी थी सुबह जाती और शाम को लौट आती थी पर बच्छी वहीँ घर पर ही बंधी रहती थी ,नानी ने जाते जाते कहा था कि वह और मम्मी जल्दी लौट आएँगी हम न तो कोई शरारत करें न दरवाजा खोलने की कोशिश करें न कहीं जाएँ न किसी को घर आने दे,
हम सब बच्चा पार्टी अकेली थी जिसमे हम तीनो भाई बहन और अन्य मौसियों के बच्चे भी थे वह भी छुट्टियों में नानी के घर पर ही थे -(पहले तो सभी मौसियाँ इक्कठी ही छुट्टियाँ काटने आती थी नानी के घर  रहती थी कुछ दिन और बच्चो को छोड़ जाती थी कुछ दिनों के लिए )
अब हम राजा थे हमारा राज था और सत्ता मेरे हाथ मे थी जो बच्चे बहुत जिज्ञासु होते हैं वह नए नए प्रयोग करने में लगे रहते है और उनकी ज्यादा जानकारी के चलते वह अन्य बच्चो पर अपना प्रभुत्व जमा लेते हैं मैं उन बाल नेताओं में से एक थी ,उस दिन सुबह से दोपहर तक  तो हम खेलते रहे बिना कोई परेशानी गिर जैसे ही सूरज की दिशा पलटी धुप उस आँगन में बंधी बच्छी पर आने लगी (-नानी के रहते भी मैं कभी कभी उस बछिया को पानी पिला देती थी और हाथ फेर कर खुश हो लेती थी इसलिए मेरा कॉन्फिडेंस ज्यादा था अन्य बच्चो के मुकाबले )
हम बच्चों ने  तय किया की हम इस बच्छी को छाँव में किसी दुसरे  छावं वाले  खूंटे पर बाँध देते है सभी मुझ से छोटे थे एक दो जो मुझ से बड़े थे वे भी मेरे अनुयायी थे .सो तय हुआ कि मैं ही उस बच्छी का संगल उस खूंटे से खोल कर दुसरे खूंटे तक उसे ले जाउंगी और बाकी उसे बाँधने में मदद करेंगे .मैं किसी क्षत्रिय सेना के सेनापति की तरह उसके खूंटे की ओर गयी और खोल दिया जैसे ही उसे मैं खींचने लगी उसने छलांगे मारनी शुरू कर दी और कूद फांद मचा दी और मेरे हाथ से उसकी रस्सी छूट गयी और अब वह बेकाबू मैं आगे आगे वह पीछे पीछे सारे बच्चे डर के मारे उसी मंजे पर चढ़ गए जहाँ से रोज उसे देखते थे ,वह बच्छी इतना दौड़ी इतना दौड़ी की उसने नानी का सारा लीपा हुआ आँगन अपने खुरो से खोद दिया चूल्हे तोड़ दिए हारे तोड़ दिए आँगन मे राखी हर चीज से वह टकराई बर्तन से ले कर पानी के मटके तक फोड़ दिए और सारे घर आँगन में ऊधम मचा दिया -इस बीच मैं भी  डर कर उसी मंजे पर चढ़ गयी और फिर हम सब चीखने चिल्लाने लगे कोई पकड़ो कोई पकड़ो और जोर जोर से रोने लगे -इतनी दोपहर या तो लोग खेत में होते है या जो खेत नहीं गए वो घरों के अन्दर ,किसी ने भी हमारे चीखने चिल्लाने की आवाज नहीं सुनी तभी एक जोगी मंगता  मेन दरवाजे के आगे से गुजरता दिखाई दिया तो हमने उसको आवाजे लगानी शुरू की अंकल अंकल दरवाजा खोलो दरवाजा खोलो -बच्छी को पकड़ो उस मंगते अंकल ने वह दरवाजा बाहर से अन्दर हाथ फंसा कर खोला और अपने कमंडल लोटा छड़ी एक तरफ रख कर उस बच्छी को पकड़ लिया -वह अंकल जब  बच्छी को पकड़ने के लिए आँगन में पकड़न पकडाई जैसी दौड़ लगा रहा था तो मजा तो हमें तब भी आ रहा था एक हाथ से अंकल ने बोथा/चादरा (लुंगी ) पकड़ रखा तह  उसकी जटायें यहाँ वहां लहरा रही थी उसकी गले की मालाएं भी संगीत पैदा कर रही थी .फाइनली उस मंगते अंकल ने बच्छी पकड़ ही ली और उसे खूंटे से बान्ध दिया .हमने उसे कितनी बार थैंक यू कहा हमें पता नहीं दरसल थैंक यू के मायने में हमे तभी समझ में आये थे अन्यथा तो किसी को भी थैंक यू कहना मम्मी डैडी ने रटवा रखा था .जिस मंजे पर हम पिछले एक घंटे से सिमटे थे धीरे धीरे हम ने एक एक कर के उस से नीचे उतरने लगे हमारे दिलो की बढ़ी हुई धड़कने अब सामान्य होने को ही थी नानी ने घर में प्रवेश किया दरवाजा खोलते ही नानी ने घर का जो हाल देखा वह अनापेक्षित था  नानी का आँगन ऐसे उजड़ा था जैसे किसी अनधिकृत कालोनी पर नगर निगम ने पीला पंजा चलाया हो एक भी चीज साबुत नहीं नलके के प्लेटफार्म की ईंटो से लेकर खुरली की ईंटो तक -खपरैल से ले कर नानी की बनायीं रसोई की कच्ची दिवार तक सब कुछ नष्ट हो चुका था .अब नानी का पारा सातवें आसमान पर था नानी बिना ब्रेक की गाड़ी की तरह स्टार्ट - बे रुड जाणयो-  बे मर जाणयो -बे टैह जाणयो-थोडा नास हो जावे आ कीने  किता ?
फिर क्या था - सबने एक साथ  "मेरी तरफ ऊँगली" कर दी इस ने कीता  "एह बेबी ने " -बस फिर क्या था  चंडीगड़ वापिस आने तक नानी के गुस्से का सदाबहार  निशाना  मैं ही रही  और आज तक भी होती रही हूँ .अब तो नानी न रही पर उसके आँगन की यादें अविस्मर्णीय रहेंगी -उसकी तरह प्यार से किसी ने  डांट कर न खिलाया न खिला कर डांटा कभी .नानी तुम जहाँ हो हम आभारी है आपने हमे माँ दी और ग्रामीण जीवन  देखने की वजह भी दी

लो हंस ही  लो
हाँ याद आया उसी घर के एक कोने में एक खूँटी पर मेरी मौसी और मम्मी श्री  की डीजाईनर ब्रा टंगी थी कुछ कपड़ो के नीचे बाकी कपडे तो नानी ले गयी उतार कर बस वही गलती से रह गयी चलते फिरते नाना जी की नज़र उस पर जा पड़ी उन्होंने ऐसा कुछ देखा तो नहीं था इसलिए भांप नहीं पाऐ अपनी स्मृति व् अनुभव अनुसार अंदाजा लगा कर अपनी सोटी खूँटी पर मार कर नानी को बोले आ फेर उरे छड गी "बच्छी दी छींकी "फेर लबदी फिरि जाउगी
नानी ने नाना की हरकत देखते ही पलट कर कहा - तूँ की लैणा जा के अपणा कम्म कर एविं इधर उधर सोटियाँ मारदा फिरदा "बाहर नी बैठ्या जांदा टिक के
(उसके आकार अनुसार नाना को लगा की यह बछिया का मुह बाँधने का छींकों का जोड़ा है गावं  की औरते तब ऐसा कुछ पहनती भी नहीं थे न ही नाना ने यह वस्त्र कभी अपने घर में देखे थे )


सुनीता धारीवाल



ये है मेरी  नानी करतार  कौर   जो अब नहीं रही (102 वर्ष तक जीवित  रही )
नानी के घर की और भी मुस्कुराने लायक (फनी) बातें याद हैं मुझे उन्हें फिर किसी लिख कर आपको सम्पर्पित करुँगी बहरहाल आज का मेरा यह लेख मेरी माँ श्रीमती गुरदेव कौर जी को समर्पित -



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