सोमवार, 6 जून 2016

पगली तपती लू और बादल













अरे वही -पगली तपती लू 
दहकी अंगार सी हलकी पवन  
 छूते ही नटखट बादल के 
ठंडी समीर सी बदल गयी 
अब बौराई सी फिरती है 
 नभ में मेघालिंगन पगली 
 तूफ़ान सी बनने लगती है
 सररर सर्रर्र सुन  
उसकी धूलि सखी 
मुस्का के बैठने  लगती है 
सुध बुध खोई मस्तानी वो 
कितनी  इतराती  बहती  है 
धरती पर पाँव नहीं लगते 
उछल उछल पग धरती है 
है जल बोझ उठाया बादल का 
गर्भिणी बनी टहलती है 
आह भारी बड़ा हुआ बहना 
फिर सब हुंकारी  थमती है 
वृष्टि है जनी बीच नभ से 
अब लौट धरा पर आती है 
तासीर गुनगुनी अब भी है 
फिर से सूरज को तकती है 
वह ताप लिए मुस्काता है 
वह पगली फिर उधर सरकती है 


सुनीता धारीवाल जांगिड 
(गर्मी की तपती लू कैसे बादल के आते बेकाबू हो कर समर्पण करती है यही भाव हैं इस कविता में )











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