झड़तें हैं पतझड़ में
असंख्य पते पत्तियां
पेड़ को भी पता है
कि झड़ना नियति है
पुराने झड़ जाएंगे
तभी नए आएंगे।
परन्तु मैं
भरी बहार में
पूरी बसंत में
पेड़ से गिरी पत्ती
जिसमें बहार की नभी
अभी भी बाकी है।
इसलिए
सूख भी न पाई हूं
और न ही किसी
दावानल में जल पायी हूं।
मेरी यह नमी
मेरा पेड़ जरूर पहचानता होगा।
लाख नजरें चुरा ले
मेरी रग-रग नमी
वही जानता होगा।
बस इतना बता दे
किमुझे गिराया क्यूं-
जान लूंगी तो
खुद ही सूख जाऊंगी,
फिर किसी भी आग में
आसानी से जल जाऊंगी।
अब तो हर रोज तपती हूं
बिरहा की बरसात में
और भी नम होती जाती हूं
न जीती हूं न मरती हूं
गली-गली कदम- कदम
पैरों तले भटकती हूं
फिर भी नहीं मिटती हूं।
हवा को पकड़ा दी है
मैंने अपनी डोर
जिस ओर बहती है
उसी ओर लुढ़कती जाती हूं
मेरे पेड़ से
जो मेरा प्रश्न है
उसी के उतर की प्रतीक्षा में
अपनी नमी को बचाए रखती हूं
क्योंकि यह नमी ही
मेरा जीवन है
यही उस पेड़ से
मेरा संबंध जानती है।
मुझे उस हरे-भरे पेड़ का
अंश बतलाती है।
मेरे लिए अब बस
इतना ही काफी है जीने के लिए।
लेखिका-सुनीता धारीवाल
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