कौन हूँ मैं
सच कहूँ
स्त्री देह लपेटे
एक रूह अनश्वर
सबसे मिलूंगी
कभी न कभी
कहीं न कहीं
कलम से बतियाती
हर दौड़ से बाहर
खुश हूँ बहुत
कुछ तेरी लिख कर
कुछ मेरी लिख कर
अलंकार रहित हूँ
न कोई साहित्यकार
न पत्रकार
न भाषा की ज्ञाता
न कोई विद्वान
लिखती हूँ
कुछ भी कुछ भी
कह देने सुनने का ज्वर
कम हो जाता
जब कानाबाती
पर आती हूँ
आप सब से मिलने
आते रहिएगा
अक्सर मिलूंगी यहीं
कुछ भी कुछ भी कहती सुनती
कनाबाती कानाबाती कुर्र्र्रर
छोटे से इस कुछ भी का विस्तार तो देखिये सब कुछ होता है वहाँ बड़ी बात है कुछ भी कहना सुनना ।
जवाब देंहटाएंकाना बाती काना बाती कुर्र ।।