शनिवार, 25 जून 2016

कछुए जैसी मैं हो गयी



कुछ बिल खोदा करती हूँ
और छुप जाया करती हूँ
अब ज़माने के हर घात से
बहुत डर लगता है
बना लिया है मैंने घर को 
कछुए सा कठोर कवच
बस कभी कभी गर्दन निकालती हूँ
बाहर निकल देखती हूँ
और फिर समेट लेती हूँ
खुद को और भी भीतर
और दरवाजे बंद कर लेती हूँ
कुछ दिन अँधेरे में बिता कर
कभी कभी रौशनी को देखने
बाहर आती हूँ ताकि
खुद को जिन्दा महसूस कर सकूं
और फिर दुबक जाती हूँ
दिन काटे नहीं कटता है
और साल बीतते जाते हैं
सुनीता धारीवाल

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