गुरुवार, 9 जून 2016

आजादी के मायने "-बात समझ की" मेघा मैत्रीय ने लिखी #फेस बुक पर

फेस बुक पर बहुत सी महिलाएं युवतियां अपने बेबाक विचार रखती है जो प्रभाव पैदा करते हैं खासकर आज की युतियाँ जो सांस्कृतिक बदलाव के तेज बहते मुहाने पर खड़ी है -मेघा की यह पोस्ट आप सब के लिए -


नारीवाद आज कपड़ो में उलझ गया है।चार थान लंबी उलझाने वाली साड़ी में नहीं बल्कि मिनी स्कर्ट और बिकनी में। कपड़ो पर लड़ाई जहाँ सुविधा और आराम के लिए होनी चाहिए थी अब वह बस देह प्रदर्शन में ज्यादा हिस्सेदारी के लिये होने लगी है। तमाम नारीवाद पर बात करने वाली महिलाये अब मुझे दोगली लगती हैं क्यूकी मैंने कभी उन्हें इस बात पर सर खुजाते नहीं देखा कि क्या वजह हैं कि पुरुषवादी समाज के मर्द आज सड़क पर पुरे कपड़ो में दीखते हैं लेकिन महिलाओं के कपड़े लगातार छोटे होते जा रहे हैं? क्यू मेकअप की परत मोटी होती जा रही हैं?
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जब पहला विश्वयुद्ध शुरू हुआ तो हर सामर्थ्य पुरुष को सेना में सेवा देने जाना पड़ा। कारखाने खाली होने लगे और व्यापार को नुकसान होना शुरू हुआ।अब तक दमघोटू क्रोसेट और लंबी स्कर्ट्स में घर पर बैठी महिलाओं को बाहर निकलने की आजादी मजबूरी में मिली।पश्चिम में पहली बार इतनी तादाद में औरतों ने अपनी पहली कमाई चखी।काम के अनुसार कपड़े भी बदले, कमर को पतला दिखाने की कोशिश करते कसे रिबन हट गए और उनकी जगह ज्यादा आरामदायक पुरुषों के सामान ढीले पैंट और शर्ट ने लेना शुरू किया। यह असली आजादी थी महिलाओं की जहाँ नुमाइश के बजाय सशक्तिकरण मेहनत की कमाई से आ रहा था। लेकिन पुरुषवादी समाज अपनी भोगी मानसिकता कब छोड़ना चाहता है और महिलायें बाहरी सौंदर्य की मोह से कब निकलती हैं?तो बस राष्ट्रवाद की उस धारा में महिलाओं से भी मदद की गुहार लगाई सरकारों ने।उन्हें बताया गया कि उनका ऐसे कठिन दौर में क्या महत्व था सैनिको के प्रोत्साहन के लिए।लेकिन आदिकाल से युद्धों का हिस्सा रहें सेक्स स्लेव की तरह उनके साथ कोई जबरदस्ती नहीं थी,बस कन्डीशनिंग थी। सैनिकों के सम्मान में बड़ी-छोटी पार्टिया होती थी और शहर भर की युवतियाँ पहुँचती थी बॉल डान्स के लिए।युद्ध में भाग ले रहे हर सैनिक को ग्लोरिफाइ कर के किसी हीरो से कम नहीं दिखाया जाता।कल तक मोची रहा लड़का बिना किसी ख़ास सैन्य प्रशिक्षण के अब एक राष्ट्रिय हीरो की हैसियत रखता था और उसको मोह लेनी वाली लड़की खुद को किसी नायिका से कम नहीं समझती। याद रखे कि यह वो दौर था जहाँ युद्ध के नाम पर देश प्रेम और देश लिए अपनी जान देने से लेकर बिस्तर गर्म करने तक की हर सोच देशभक्ति की श्रेणी में डाली जा रही थी। ब्रा बर्निंग मूवमेंट अपने शरीर की आजादी को लेकर शुरू हुआ पर लेकिन शायद कम लोगो को पता हो की पश्चिम में लड़कियाँ अपनी ब्रा कपड़ो के निचे से निकालना उन पार्टियों में शुरू कर चुकी थी।कम्फर्ट के लिए नहीं बल्कि नृत्य के दौरान शरीर के उत्तेजक प्रदर्शन के लिए।जब सौ सैनिको के बीच कोई दस युवती हो तो बदसूरत समझी जाने वाली लड़की को भी अप्सरा जैसा समझा जाता।एक सैनिक के बाद दूसरा तैयार होता नृत्य और शराब के प्रस्ताव के साथ।भाव मिलने और खाने की उस माहौल ने अब तक घर में बन्द औरतों को गुलाबी चश्मे से दिखाई आजादी।एक पुरे जेनरेशन को पता ही नहीं चला की आजादी के नाम पर उनके कदम कहाँ बढ़ रहे हैं,कुछ वैसा ही जैसे स्मार्टफोन थामे लोग अक्सर समझ नहीं पाते कि वो लोगो से जुड़े हैं या दूर हुए हैं।सेक्स की उन्मुक्तता पुरे समाज में कुछ ऐसी आई कि धीरे-धीरे संवेदनाओ से ज्यादा शरीर का महत्व बढ़ता गया।
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इस बीच नारीवादी औरतें भी उभरती रही और अपने विचारों के साथ स्त्रियों की आजादी की लड़ाई को मजबूत करती रही।लेकिन जीत नारीवादियों की कभी हुई ही नहीं।कुछ स्त्रियों के लिए बस कपड़ो की आजादी उनके खुद के लिए थी पर बाकियों के लिए नारीवाद खुद को आकर्षक बना कर पेश करने की अपनी स्वार्थी ख्वाहिश को जस्टिफाई करने का तरीका मात्र जो हर तीसरे महीने बदलते फैशन के साथ सामन्जस्य बैठाती आजाद औरतों में दिखता रहा है।
चूँकि दो सौ साल की गुलामी और कमोडिटी पसन्द दिमाग ने हमारे विकास के पैमाने का पश्चिमीकरण कर ही दिया है तो हम नारीवाद के आड़ में जस्टिफाई करते हैं सिगरेट को,लगातार छोटे होते कपड़ो को, वन नाइट स्टैंड को।हालाँकि अगर हम आँखे खोल कर देखे तो आजकल के तमाम हॉलीवुड गानों और फिल्मों में हमें एक बात की झलक मिलेगी,"पश्चिम में स्त्रियों ने जेंडर इक्वलिटी हासिल नहीं की हैं बल्कि पैसों के साथ आने वाली एक स्वभाविक इंसानी आजादी मिली हैं उन्हें।कमोडिटी वो पहले भी थी और आज भी हैं।"खैर हर जगह बदलाव एक सा नहीं होता और हमारे देश में कपड़े और सेक्स पर बहस के बजाय औरतों के आत्मनिर्भरता पर बहस की ज्यादा जरूरत हैं।जाने कितनी औरतें रोज रात अपने पति के बलात्कार की शिकार बनती है क्यूकी वह अपने पति से अलग हो कर कमाने-खाने की क्षमता और हिम्मत नहीं रखती।साड़ी,बिंदी पहने पटना की एक अनपढ़ घरेलू हिंसा से शिकार औरत जब खेती का कोर्स करती हैं और मशरूम उगाकर खुद को आत्मनिर्भर करती हैं तो वह ज्यादा आजाद होती हैं उन औरतों से जो यहाँ बाबूजी और पति के पैसों से भराए नेटपैक से बिकनी के समर्थन में पोस्ट चेप रही हो।
अगर हमने आजादी के सही मायने ना ढूंढे तो जहाँ हमारी औरतों की आबादी का बड़ा हिस्सा कभी खुद के कमाएं पैसों की गर्मी नहीं महसूस कर पायेगा वही दूसरा हिस्सा आजादी के नाम पर माइली सायरस के ट्वर्क और निक्की मिनाज की पिंक बिकनी पर ही टिक जाएगा।दुनिया को तथाकथित आजाद स्त्री की जितनी जरूरत हैं उससे ज्यादा जरूरत हैं एक सशक्त इंसान की।

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