बुधवार, 15 जून 2016

दो लफ्जों की कहानी -दीपक की तिजोरी में सामान कम निकला



दीपक  की तिजोरी  में से सामान कुछ  कम निकला
अच्छे  प्रभावोत्पादक अभिनेता  के रूप में जाने जाते रहे दीपक तिजोरी के निर्देशन में सिनेमा हाल के पर्दों पर उपलब्ध दो लफ़्ज़ों की कहानी ने  प्रभाव पैदा नहीं किया  -लोग  भी कम पहुंचे .किसी भी थिएटर से फिल्म देख  कर बाहर निकले  दर्शको के चेहरे बता  देतें है कि कितने दर्शक और आयेंगे -आयेंगे भी या नहीं .फिल्म का कोई भी ऐसा विशेष   अलौकिक दृश्य नहीं जो दर्शकों के दिल में उतर कर आँखों से बह निकले  .नायक के रूप में अभिनेता रणदीप हुडा और नायिका काजल अग्रवाल के अभिनय के बावजूद फिल्म दर्शकों को दो घंटा  आठ मिनट तक कुर्सी से  जोड़ कर रखने में कामयाब नहीं हुई .मलेशिया के माल गोदाम होता हुआ कैमरा नायक पर आते हुए कहानी में खूबसूरत दृश्यों को जोड़ने की कोशिश करता दिखाई देता है .फिल्म है तो कहानी भी फ़िल्मी है किशोरवय दर्शक जो प्रेम कहानी तस्वीरों  का बड़ा उपभोक्ता है नदारद दिखाई दिया जो थे वह दिल थाम के सीटो में धंसते दिखाई नहीं दिए गोयाकि आज का किशोर समय से पहले थोडा ज्यादा प्रक्टिकल हो गया है उसे भी फिल्मे फ़िल्मी लगने लगी हैं -पंजाब में सरबजीत देख कर और हाईवे देख कर बनी फैन /प्रसंशक  भी  पहुंची पर सरबजीत की चर्चा करती दिखाई थी .रणदीप हुड्डा गहन अभिनय के वाहक हो गए हैं उनकी क्षमता के लिहाज से फिल्म कम पड़ती दिखाई दी -यूँ भी रणदीप चाकलेटी हीरो की श्रेणी से बाहर हैं ही तो रिंक में बॉक्सिंग कर के रफ टफ काम करते और तीन तीन शिफ्टो में काम करने वाले कामगार के रूप में सही रहे .और हाँ रफ टफ लोग  टफ इशक भी करते हैं यही दिख गया फिल्म में -प्रेम दृश्यों में रणदीप और काजल आपस में सहज दिखे अन्तरंग प्रेम दृश्य में  भी - बीते दिनों खबर तो मुंबई से ही आई थी कि उक्त अन्तरंग दृश्य को फिल्माते हुए रणदीप स्वनियंत्रण खो बैठे और शूटिंग कुछ देर  रोकनी पड़ी सहज होने तक .उसी दृश्य के विशेष दर्शक भी सिनेमा हाल में सिर्फ यह जानने पहुंचे कि देखें तो किस जगह है वह दृश्य जब अपना भाई सुधि खो गया और देख कर बोले भाई ऐसी हालत में तो देस सुध खो दे ये तो जवान छोरा है आपणा "
कहानी में एक युवक अपने अतीत को  हुड  से छुपाने की कोशिश करता दिन रात काम में लगा है -इमोशनल ठगी का शिकार बॉक्सिंग का मारक चैम्पियन युवक एक महतवपूर्ण प्रतियोगिता में अपने पिता समान कोच /आयोजक का सारा पैसा डूबा देता है और वह सड़क पर आ जाता है .युवक ठगी का पता चलने पर बदला लेता है और लूट खसूट की  गलत राह पर चल देता है और जेल काटता है और फिर से काम करने लगता है -तीसरी शिफ्ट में  नया काम ज्वाइन करते ही उसे एक अंधी लड़की मिलती है जो हिंदी टीवी सिरिअल देखने उसके केबिन में आती है नेत्र विहीन नायिका खूबसूरत है अकेली है और कामकाजी भी है जिस पर उसका बॉस बुरी नज़र रखता है .नायिका एक सड़क दुर्घटना में अपने माँ बाप और आँखे खो बैठती है उस दुर्घटना का कारक नायक है -नायक की कुछ समय की भटकन का नतीजा किसी और की आँखों का नुक्सान हो जाना है लेकिन यह सब नायिका नहीं जानती -नायक नायिका की आँखे लौटा कर पश्चाताप करने की कोशिश में खुद को ऐसी प्रतियोगिता में उतार लेता है जिस में उसकी जान दावं पर लगी होती है अंत में  विभिन्न घटनाओं से होते हुए नायक बच जाता है नायिका की आंख्नें भी ठीक हो जाती हैं -और वह दोनों मिल जाते हैं कोई भी प्रेम कहानी का कोई भी दृश्य नयापन लिए नहीं है दर्शक आराम से अंदाजा लगा सकता है कि आगे क्या होगा -यूँ भी आज के समय में प्रेम जीवन देने की वस्तु की तरह नहीं देखा जा रहा -कुछ तो है फिल्म में जो गुम है -न कोई हास्य  न कोई रोमाच है रोमांस है वह भी आकर्षित करने लायक नहीं .इस फिल्म को कोरिया की फिल्म आलवेज़  का पुन: प्रस्तुतीकरण कहा गया है जो बहुत जमता नहीं -रणदीप बहुत बेहतर कलाकार हैं इस फिल्म के इतर- शायद ऐसी फिल्मे उनकी क्षमता के साथ न्याय नहीं करती काजल अग्रवाल ने बेहतर कोशिश की है खूबसूरत दिखी हैं -गाने गुनगुनाने लायक हैं संगीत का ठीक प्रयोग हुआ है
मेरी तरफ से 10 में से 3 नम्बर हैं इंटेंस हो कर भी इंटेंस नहीं लगी यही माइनस है जो बड़ा माइनस है .यूँ तो फिल्म निर्माण बहुत परिश्रम का काम है पर परिश्रम को कौन देख पाता है क्या परोसा गया  बाज़ार यही  देखता है यह फ़िल्मी बाज़ार है और दीपक तिजोरी ने अपनी तिजोरी बाज़ार में रखी है जहाँ अभी लबालब भरने के चांस नहीं पर खर्चा पूरा तो अनेक उपायों से हो जाता है आजकल बशर्ते फिल्म थियेटर तक पहुंचे -लोग भी  आज कल दो ही लफ्ज़  लिख रहें है इस कहानी को -ठीक ठाक
सुनीता धारीवाल






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