मंगलवार, 28 जून 2016

मेरी अलमारी











करीने से जमाया था
हर एक रिश्ता
मेरी अलमारी में
जो मैं अपने घर से लायी थी
बड़े अरमानो से 
ढलती सांझ की एक रोज
खोली फिर से
वही बंद अलमारी
जिसे मैं रोज झाड़ पोंछ करती थी
बिना नागा
उसमे रिश्ते जो रखे थे करीने से
देखा एक नज़र सभी रिश्तों को
बिना हाथ लगाये
सभी में सलवटे थी
उठा कर देखा तो जर्जर भी थे
कुछ जलन से जल चुके थे
कुछ को कीट खा गए थे
कुछ में सीलन की गंध थी
कुछ काले पड़ गए थे
कुछ की चमक गायब कुछ की दमक गायब
मैं निरुत्तर सी सोच रही थी
समय रहते घूप दिखाई होती
तो शायद यह नौबत न आती
हो सकता है बच जाते रिश्ते भी
और मेरी मेहनत भी
या फिर न ही खोलती तहें
और भ्र्म रह जाता
भरी अलमारी का
सुनीता धारीवाल

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