करीने से जमाया था
हर एक रिश्ता
मेरी अलमारी में
जो मैं अपने घर से लायी थी
बड़े अरमानो से
ढलती सांझ की एक रोज
खोली फिर से
वही बंद अलमारी
जिसे मैं रोज झाड़ पोंछ करती थी
बिना नागा
उसमे रिश्ते जो रखे थे करीने से
देखा एक नज़र सभी रिश्तों को
बिना हाथ लगाये
सभी में सलवटे थी
उठा कर देखा तो जर्जर भी थे
कुछ जलन से जल चुके थे
कुछ को कीट खा गए थे
कुछ में सीलन की गंध थी
कुछ काले पड़ गए थे
कुछ की चमक गायब कुछ की दमक गायब
मैं निरुत्तर सी सोच रही थी
समय रहते घूप दिखाई होती
तो शायद यह नौबत न आती
हो सकता है बच जाते रिश्ते भी
और मेरी मेहनत भी
या फिर न ही खोलती तहें
और भ्र्म रह जाता
भरी अलमारी का
सुनीता धारीवाल
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