शुक्रवार, 3 जून 2016

लेकिन बड़ी देर से

नर और मादा के
सहज आकर्षण
की मेरी परिभाषा
या आशा में से
किसी में नहीं थे तुम
मेरी कच्ची समझ अनुसार
तुम बस थोपे गए थे
मेरे बढ़ रहे शारीर से
मेरा बचपन
स्वाहा करने के लिए 
लाये गए थे तुम
मेरा दूल्हा बना कर
ऐसा समझती थी मैं
कभी नहीं हुई आकर्षित
नर के प्रति हो  कोई  नारी जैसे
बस जब आता तुम पर
मुझे रहम आता था
प्रेम नहीं आता था
और मुझ पर शर्म आती थी
क्यों नाहक जिन्दा लाश
सी पड़ी हुई थी मैं
खुश रहने के नापाक
अभिनय में गड़ी हुई थी
कभी कभार
तेरे समर्पण को गले लगाती थी
वर्ना तुम में से तो
गंध अलग सी आती थी
तुम दया के पात्र रहे
मैं मित्र बनाती भी कैसे
पिंजरा तोड़ बस उड़ जाऊं
यही सोचती रहती थी
हर दिन मर मर कर काटा
मुझे बाप की पगड़ी ने डाटा
सास ससुर के लाड ने गम बाटा
फिर हालात को स्वीकर किया
तुम्हे नहीं बस प्यार दिया
नाटक था सच या दया सच्ची
इस नाटक में जन ली बच्ची
एक सांकल थी तैयार हुई
मेरे पाँव हाथ विकलांग हुए
फिर मन को भी लकवा मार गया
लकवे में लड़का जन्म दिया 
तुमने जाना त्यौहार हुआ
अंब तन में भी लकवा फ़ैल गया
फिर समझोते पर बैठे तुम
जाना है जहाँ चली जाओ
मैं घर से इक दिन निकल गयी
मेरी छाती दूध छलक आया
मैं उलटे पेर चली आई
तुमने फिर भी था अपनाया
तब से मैं तेरे घर में रहती थी
जिसे घर अपना न कहती थी
सब कुछ मुझको आसान मिला
पर समय रहते न ज्ञान मिला
मैं अब तक रही खीजती तुम से
तुम्हारे सभो सवालो से
तुम तठस्थ रहे अपने स्तर पर 
खरे रहे हर  कर्त्तव्य पर
पर बताना ज़रा 
क्या पा सके मुझे
जैसे पाया जाता है किसी औरत को
तन मन धन  रूह से  एक साथ
पर मैंने पाया  तुम्हे
लेकिन बड़ी देर से



प्रिय मित्र अर्चना को समर्पित
सुनीता धारीवाल

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