सोमवार, 27 अप्रैल 2020

जिसे जरूरत का मेरी 
कभी कोई अंदाजा नही

उसी से दोस्ती करने का 
अब मेरा भी  इरादा नही 

रूह की तरंगे  नही  समझा 
ज़ुबान क्या खाक समझेगा 

जो आहो को नही समझा 
आंसू क्या खाक समझेगा 

जो फुर्सत में ही सुनेगा  मेरी 
उसे मैंने अब  क्यूं ही कहना है 

अकेली कोमल नदी हूँ मैं
मुझे चट्टानो में बहना है 

कहीं पर चोट खाना है 
कहीं पर मोड़ खाना है 

समुंदर तुम नही शायद 
जहां मुझ को मिल जाना है 

जब  जहां हवाऐं ले जाएं 
उसी दिशा मुझ को बहना है 

मेरी हर उम्मीद पर उसने 
करना हर रोज बहाना है 

गली है  गर संकरी तेरी 
मुझे क्यों उस मे जाना है 

मिलो जो गैर की तरह 
तो क्यूं मिलना मिलाना है 

शेष फिर 

सुनीता

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें