रविवार, 17 जुलाई 2016

मंद बुद्धि अर्जी और विक्षिप्त सी मैं














अरी ओ पेज थ्री की नायिका
सोशलाईट सजनिया
बताना ज़रा
कभी तुमसे मिलने आया है कभी
किसी मंदबुद्धि विक्षिप्त  युवती का पिता
वो तिहरा लाचार आदमी
जो मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से भी
विक्षिप्त हो गया है
और अपनी व्यथा सुनाने को
बार बार पंक्ति में अंतिम हुआ  जाता है
ताकि सुना सके अकेले में तुम्हे
कि कितनी बार उसके पड़ोस के दबंग
जबरन उसके घर की  दीवार फांद
उसकी  बेटी के  बिस्तर पर कूद जाते हैं
और उस पगली को और पगला कर जाते हैं
बेटी का पहरा देते देते
उसकी कमर टूट गयी है
उसकी रोटी रोजी छूट गयी है
पत्नी की रीढ़ टूट गयी है
उसे बीमारी पकड गयी है
उसकी पगड़ी मैल में अकड गयी है
वो हर महीने अपनी पागल बेटी का
महिना भी साफ़ करता है
महीने का हिसाब भी रखता है
घटते बढ़ते महीने के दिनों में
उसकी इज्ज़त घटती बढती जाती है
बेटी का  पेट उसे बड़ा डरावना सा लगता है
वह बहुत कम सो पाता है
अक्सर उसकी आँख लगते ही
दबोच ली जाती है उसकी बेटी
और डंडे ले कर दौड़ता है
बेटी पर झुकी पीठ पर दनादन टिकाता है
अगले दिन पंचायत में जाता है
और कोई उसकी मानता नहीं है
ठाणे में भी कोई सुनता नहीं है
उसके कान में सीसा सा टपक जाता है
जब दरोगा दबंगों को सामने बुलाता है
दबंगई का बोल  उसे  सुनाता है
"जनाब " समझो दिमाग ही न है उसका
बाकि का सौदा तो टनाटन ले रहयी है इसकी छोरी
इसकी छोरी ही तो बुलाती है
म्हारे काहनी पलट पलट लखाती है
और हांसे जाती है
यु बुडैड़ खामख्वाह बतंगड़ पाड़ रह्य सै
कीमे पिसे लेण ने ऐंठ पाड़ रह्य सै
इसने कहो आपणी छोरी ने ब्याह दे
टोटे नै म्हारी आंख के आगे तै हटा दे
हर बार वह बाप चुपचाप घर चला आता है
एक नयी अर्जी लिखवाता है
फिर किसी मेरे जैसी की
बिना ताकत वाली की  खोखली महिमा
सुन कर उसके दफ्तर आ जाता है
और बार बार पंक्ति में अंतिम हो जाता है
और मैं उसे पुकार कर बुलाती हूँ
अर्जी पकड़ पूछती जाती हूँ
उसका  बयान और अर्जी
एक दुसरे से नहीं मेल खाते
अर्जी में महज छेड़ छाड़ शरारत
 जैसी शिकायत लिखी होती है
इसलिए किसी ठाणे में पंचायत में
कोई सुनवाई उसकी नहीं होती है
और वह आदमी यह भी चाहता है कि
बेटी का मामला है बात न फैले
कोई उसके मामले पर
सियासत न करे
न किसी अखबार में नहीं आये
जैसे गुपचुप कोई उसके घर की
इज्ज़त में सेंध लगाता है
ऐसे ही गुपचुप उसे  न्याय मिल जाए
और मेरे पास जवाब नहीं होता
मैं उस वक्त हारी हुई निहत्थी सी
लाचार खुद को पाती हूँ
बेटी बचाओ का नारा
मेरी समझ से बाहर होता जाता है
और मेरा भी समय आयेगा तब देखूंगी
 की खुद को आस बंधाती हूँ
और वो समय कभी नहीं आता
 वह अर्जी भी मेरे घर में रखी रखी
मंद बुद्दी और मैं विक्षिप्त हो जाती हूँ
उस युवती से भी ज्यादा
यकीनन तुम्हारे पेज थ्री क्लब में
 ऐसे मामले कोई नहीं लाता होगा
कोई बाप यूँ नहीं चला आता होगा
इसलिए तुम सोशल कॉज में
 रैम्प पर कैट वाक कर लेती हो
और मुझसे घिसटा भी नहीं जाता

सुनीता धारीवाल




चित्र केवल प्रभावोत्पादन के लिए है इसका इस कविता के संदर्भ से कुछ लेना देना नहीं है -साभार -गूगल -thediplomat.comethediplomat.com4




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