पिंजरे से बाहर
वह एक रात मिली थी मुझे
रौशनियों में नहाई हुई
आधुनिकता से सरोबार
आज़ादी की मानो लहर पर सवार
एक बार फिर मिली मुझे वो
पर बहुत बदली बदली सी
लगी थोड़ी और भी जिम्मेदार
उसे देख लगा कुछ तो वह कहेगी ज़रूर
उसकी आँखे बता रही थी
उसके बोलने से भी पहले
कि उसका गरूर था चूर चूर
आज़ादी की लहर पर सवार
खो बैठी थी सब वह कुछ
ताकत की भरी सिपहसलार
बिन बोले ही कह गयी
कांपते होठो से और झरती आँखों से
आज़ादी की लहर पर सवार
कब उतर गऐ कपड़े
कब बिखऱ गया घर
कब आत्मा हुई लहुलुहान
कब दिल हुआ छलनी,
उसे पता ही न चला
सिसकिया ही थी पहले
उसके सोने के पिंजरे मे
आजादी मे भी पाया
केवल और केवल चीत्कार
आँख मूँद वो सिपहासलार
खुद ही लुट गई सरे बाजार
चुन्धियाती सी माया काया
सूट ,घाघरे भुलाये थे उसने
निक्कर हो गई थी उसकी सलवार
दफ्तर के चक्कर वक्कर
ममता छूटी बीच मझधार
कब राह भूल गयी घर के द्वार
उसे पता ही न चला
कभी हमने रखा था उसका नाम
आज़ादी का इश्तिहार
चौंकी तो बहुत थी मैं उसे देख कर
वो अब बेहाल बिना मलाल
फिर से ढ़ूढ़ रही थी पिंजरा
जो रख ले उसे फिर
सलाखो मे और बचा ले
उसे इस आजादी की घुटन से
जिसका मोल उसने
घर रूपी पिंजरे की यातना से
कहीं अधिक ,चुकता किया है
उसने आजादी के कारागर में
क्ही अधिक गिराया है खुद को
उठने के उन्माद में उसने
पिंजरे मे गिरने से ज्यादा सुबकी है वो
खुले आसमान में बाहे फैला कर
अब भी चुनाव नही कर पाती है
पिंजरे मे बैठी है और गर्दन बाहर
एकटक बस ताकती चली जाती है
किसी शून्य मे किसी क्षितिज की ओर
अक्सर सोचती है वो
जब बाहर थी तो भीतर झांकती रही
जब भीतर थी तो बाहर उड़ती फरफराती रही
इसी उहापोह मे कब पूरे हो गए स्वास ,
उसे पता ही न चला।
और मैं मूक सी उसके पीछे पीछे चल दी
उसके अंतिम गंतव्य तक
लौटते हुए लगा जैसे उस दिन
वो नहीं मैं ही तो मुझ से मिली थी
सुनीता धारीवाल
चित्र साभार - caged on pintrest
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