शनिवार, 9 जुलाई 2016

लौटा दो फिर पिंजरा











पिंजरे से बाहर 

वह एक रात  मिली थी मुझे

रौशनियों में नहाई हुई 

 आधुनिकता से सरोबार 

आज़ादी की मानो लहर पर सवार 

एक बार फिर मिली मुझे वो 

पर बहुत बदली बदली सी 

लगी थोड़ी और भी  जिम्मेदार

 उसे देख लगा कुछ तो वह कहेगी ज़रूर

 उसकी आँखे बता रही थी

 उसके बोलने से भी पहले 

कि उसका गरूर था चूर चूर 

 आज़ादी की लहर पर सवार 

खो बैठी थी सब वह कुछ 

ताकत की भरी  सिपहसलार

 बिन बोले ही कह गयी 

कांपते होठो से और झरती आँखों से 
आज़ादी की लहर पर सवार 

कब उतर गऐ कपड़े
कब बिखऱ गया घर 
कब आत्मा हुई लहुलुहान
कब दिल हुआ छलनी,
उसे  पता ही न चला
सिसकिया  ही थी पहले
उसके सोने के  पिंजरे मे  
आजादी मे भी पाया 
केवल और केवल चीत्कार
आँख मूँद  वो सिपहासलार  
खुद ही  लुट गई सरे बाजार
चुन्धियाती सी  माया  काया 
सूट ,घाघरे  भुलाये थे उसने 
निक्कर हो गई थी उसकी सलवार 
दफ्तर के चक्कर वक्कर
ममता छूटी  बीच मझधार
कब राह भूल गयी घर के द्वार  
उसे  पता ही न चला 
कभी हमने रखा था उसका नाम
आज़ादी का इश्तिहार
चौंकी तो बहुत थी मैं  उसे देख कर
  वो अब बेहाल बिना मलाल 
फिर से ढ़ूढ़ रही थी  पिंजरा
जो रख ले उसे फिर 
सलाखो मे और बचा ले
उसे इस आजादी की घुटन से 
जिसका मोल उसने  
घर रूपी पिंजरे की यातना से 
कहीं  अधिक ,चुकता किया है
उसने आजादी के कारागर में
क्ही अधिक गिराया है खुद को
उठने के उन्माद में उसने
पिंजरे मे गिरने से ज्यादा सुबकी है वो
खुले आसमान में बाहे फैला कर 
अब भी चुनाव नही कर पाती है
पिंजरे मे बैठी है और  गर्दन बाहर
एकटक बस ताकती चली जाती है
किसी शून्य मे किसी क्षितिज की ओर
अक्सर सोचती है वो 
जब बाहर थी तो भीतर झांकती रही 
जब भीतर थी तो बाहर उड़ती फरफराती रही 
इसी उहापोह मे कब पूरे हो गए स्वास ,
उसे पता ही न चला।
और मैं मूक  सी उसके पीछे पीछे चल दी
उसके अंतिम गंतव्य तक

लौटते हुए लगा जैसे उस दिन 

वो नहीं मैं ही तो मुझ से मिली थी

सुनीता धारीवाल 


चित्र साभार - caged on pintrest

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