सोमवार, 4 जुलाई 2016

मेरी सहेलियाँ


Suneeta Dhariwal Jangid's photo.
जीवन में मेरा कालेज जाने का अनुभव कुछ महीने का ही रहा -कक्षा दस के बाद पहले प्रेप होती थी आजकल की तरह 10+2 नहीं होता था - और लड़कियों के लिए पहुँच जाना किसी उपलब्धि से कम नहीं होता था -सो मैं भी ख़ुशी ख़ुशी कालेज पहुंची -खूब धमाचौकड़ी की एक्टिंग डांसिंग क्रिकेट और हर गतिविधि में भाग भाग कर भाग लेना स्टेडियम जाना खेलने - क्रिकेट खेलने के जूनून से भी ज्यादा पेंट और ट्रैक सूट पहनने का जूनून होता था .सच में बिना दुपट्टे के बोझ से मुक्ति और कूदने फांदने की आज़ादी किसी सपने के सच होने जैसी ही थी -इन सब के बीच इन्ही महीनो में जिन लड़कियों से मेरा परिचय हुआ वह थी मेरे कालेज की हमारी क्रिकेट टीम की लड़कियां और एक दो मेरे समान सब्जेक्ट्स वाली -कालेज की हर लड़की चाहे वह गिद्दे की टीम में मेरे साथ थी चाहे हरियाणवी डांस में गाने में या कविता में सब मुझे अपनी सहेली ही लगती और मैं सब को अपनी मित्र ही कहती -पर मेरा कालेज का सपना शुरू होते ही कुछ महीनो में ख़त्म -हो गयी शादी और प्राइवेट पढाई के दिन शुरू -मन में सोचती आज टूर्नामेंट हो जीवन में मेरा कालेज जाने का अनुभव कुछ महीने का ही रहा -कक्षा दस के बाद पहले प्रेप होती थी आजकल की तरह 10+2 नहीं होता था - और लड़कियों के लिए पहुँच जाना किसी उपलब्धि से कम नहीं होता था -सो मैं भी ख़ुशी ख़ुशी कालेज पहुंची -खूब धमाचौकड़ी की एक्टिंग डांसिंग क्रिकेट और हर गतिविधि में भाग भाग कर भाग लेना स्टेडियम जाना खेलने - क्रिकेट खेलने के जूनून से भी ज्यादा पेंट और ट्रैक सूट पहनने का जूनून होता था .सच में बिना दुपट्टे के बोझ से मुक्ति और कूदने फांदने की आज़ादी किसी सपने के सच होने जैसी ही थी -इन सब के बीच इन्ही महीनो में जिन लड़कियों से मेरा परिचय हुआ वह थी मेरे कालेज की हमारी क्रिकेट टीम की लड़कियां और एक दो मेरे समान सब्जेक्ट्स वाली -कालेज की हर लड़की चाहे वह गिद्दे की टीम में मेरे साथ थी चाहे हरियाणवी डांस में गाने में या कविता में सब मुझे अपनी सहेली ही लगती और मैं सब को अपनी मित्र ही कहती -पर मेरा कालेज का सपना शुरू होते ही कुछ महीनो में ख़त्म -हो गयी शादी और प्राइवेट पढाई के दिन शुरू -मन में सोचती आज टूर्नामेंट हो रहा होगा -आज ट्रायल्स हो रहे होंगे-और सोचती हाय ये सब कितना हो हल्ला कर रही होंगी और इधर मेरी नयी ट्रेनिंग चालू थी खुसरफुसर धीमी आवाज में बात करने की.छिपने ढकने टाइप की लाइफ हो चली थी- एक दो बार तो किसी भी कालेज के गेट को बाहर से ताकती रहती लड़कियों को आते जाते खिलखिलाती देखती और मन मसोस कर रह जाती कभी छटपटाहट होती कभी रुलाई आ जाती -फिर गर्भ फिर बच्चे फिर कालेज की याद बाकि रही पहुँचने की इच्छा ने दम तोड़ दिया था यानि की कहीं किसी कोने में दफ़न हो गयी थी वहां की आवाजें -चलो खैर आज याद आ गयी जब मुझे मेरे कालेज के क्रिकेट टीम की एक सदस्य का संपर्क मिला ,मैं एकदम उत्साहित हो गयी हाय मेरी कोई तो सहेली मिली -आज फोन पर बात हुई मेरी सहेली (जो मेरी नज़र और भावना में आजतक सहेली की तरह अंकित रही पर उसने जताया कि वह मेरी परिचित भर है )उसकी औपचारिक बातचीत के लहजे से मेरा दिल ही टूट गया माँ कसम -
मैंने खुद को झकझोरा सोचा "पगली मैं" आज तक वहीँ खड़ी रही जहाँ से कालेज छोड़ा था और वह तो क्या सभी बहुत आगे निकल गयीं- मेरी स्मृतियों से कहीं आगे .-और मैं उन्हें ढूंढती हूँ जो मेरे नहीं थे ही नहीं बस औपचारिकता भर थे
वास्तव में -आज तो कोई औपचारिकता भी ठीक से निभा ले तब भी ठीक हैं, ऐसे भी ही कट जाती हैं उम्र - यूँ तो मैं भी औपचारिक व्यवहार की खासी admirer हूँ पर कहीं कहीं अपनापन बेतकलुफ़ वाला भी अच्छा लगता है

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