काश तुम देख पाते
मेरे भीतर का रेगिस्तान
महसूस कर पाते
तपती रेत की आंच
कितना जलाती है
तन के साथ रूह भी
दावानल हो जाती है
फिर कुछ नही बचता
स्याह राख के सिवाय
सुलगती है माटी मेरी
उकेरे जाने को तरसती
तेरे जल से बुझने को भटकती
बस स्याह हुई जाती है
वरिष्ठ सामाजिक चिंतक व प्रेरक सुनीता धारीवाल जांगिड के लिखे सरल सहज रोचक- संस्मरण ,सामाजिक उपयोगिता के ,स्त्री विमर्श के लेख व् कवितायेँ - कभी कभी बस कुछ गैर जरूरी बोये बीजों पर से मिट्टी हटा रही हूँ बस इतना कर रही हूँ - हर छुपे हुए- गहरे अंधेरो में पनपनते हुए- आज के दौर में गैर जरूरी रस्मो रिवाजों के बीजों को और एक दूसरे का दलन करने वाली नकारात्मक सोच को पनपने से रोक लेना चाहती हूँ और उस सोच की फसल का नुक्सान कर रही हूँ लिख लिख कर
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