वरिष्ठ सामाजिक चिंतक व प्रेरक सुनीता धारीवाल जांगिड के लिखे सरल सहज रोचक- संस्मरण ,सामाजिक उपयोगिता के ,स्त्री विमर्श के लेख व् कवितायेँ - कभी कभी बस कुछ गैर जरूरी बोये बीजों पर से मिट्टी हटा रही हूँ बस इतना कर रही हूँ - हर छुपे हुए- गहरे अंधेरो में पनपनते हुए- आज के दौर में गैर जरूरी रस्मो रिवाजों के बीजों को और एक दूसरे का दलन करने वाली नकारात्मक सोच को पनपने से रोक लेना चाहती हूँ और उस सोच की फसल का नुक्सान कर रही हूँ लिख लिख कर
सोमवार, 9 नवंबर 2020
व्यवहार
हम आत्म मुग्ध हैं और दुसरो को को दिखाना चाहते हैं कि हम आत्म मुग्ध है
बना बनाया मंच नही देगा
करवा चौथ
करवा चौथ पर्व श्रद्धा और विश्वास से कोई कर रहा है तो उत्तम है यदि संशय है और फिर भी मजबूरी या दबाव में या मात्र प्रदर्शन के लिए कर रहा है या फिर भीड़ जो कर रही है वह मुझे भी करना चाहिए यह सोच कर आप व्रत रख रहें तो इस से अच्छा न रखें ।व्रत के दिन पति पर उपहार का दवाब भी गलत है कि सब दे रहें हैं तुम कुछ नही दे रहे यह भी गलत है ।हर त्योहार के पीछे एक बाजार होता है जो किसी वर्ग को लाभ देता है और वह वर्ग उस त्योहार को बनाए रखने में पूरी ताकत लगा देता है ।कब श्रद्धा के नाम पर आप बाजार के क्रूर हाथो में खेलने लगते हो पता नही चलता
क्या जितना भद्दा औरतो के लिए बोला जाता है उतना लिखा भी जा सकता है
#PINKROOF CAMPAIGN
कम लोगो से मिलें
बुधवार, 7 अक्तूबर 2020
सब लड़कियां जिन्होंने प्रेम किया
सुनो लड़कियों
सुनो लड़कियों
सुनो लड़कियों
चल हट ए काग़ज़ सी जिंदगी
सोमवार, 17 अगस्त 2020
छपना चाहा मैने भी
हे औरतो शोना बेबी
यात्राएं
रविवार, 19 जुलाई 2020
आई तीज बो गई बीज
कोविड महामारी आपदा की घड़ी में सावन ने अपने चिर परिचित रूप में दस्तक दे दी है ।
धरती पर गीली माटी की भीनी भीनी सुगंध जैसे हवा में घुल कर मल्हार सुना रही है मन्त्र मुग्ध कर रही है ।सावन के महीने में घरती पर उमड़ घुमड़ कर आते बादलों से बरसती रिमझिम बूँदों की झंकार ऐसे प्रतीत होती हैं जैसे प्रकृति ने घुंघरू बांध लिए हों ,सारी घरती हरे रंगों से अट जाती है सारी वनस्पति धुल कर खिल खिल जाती, मुस्काती प्रतीत होती है ।फूलों के रंग चटख दिखने लगते हैं । भीषण गर्मी से राहत पा कर सहचरों और मानव का मन उल्लास से भर जाता है। मनुष्य इस उल्लास को अभिव्यक्त करने के गीत संगीत रचता है ।यह संगीत स्वर लहरीयां प्रकति के इस रूप को और भी आकर्षक व मोहक बना देते हैं ।
आज जब पूरा विश्व ही महामारी की चपेट में हैं । बचाव के लिए मनुष्य के विचरण की सीमाएं तय कर दी गई है।मनुष्य सार्वजनिक स्थानों पर इक्कठा हो कर प्रकृति के इस मौसम की ताल में ताल नही मिला पा रहा।परंतु मन की कहाँ सीमाएं है वह तो हर सीमा लांघ ठंडी फुहार के हल्के से स्पर्श से भी उत्सव अनुभव कर लेता है ।
कोविड महामारी के इस समय मे मेले और सामूहिक सार्वजनिक आयोजन सब हाशिये पर हैं। पर उमंग का कोई हाशिया नही होता ।जिजीविषा औरत का नैसर्गिक गुण है विपरीत परिस्थितियों में भी जीवन के लिए संघर्ष करना, स्त्री कोशिकाओं का अद्भुत नर्तन है ।ऐसे समय मे हम सब महिलाएं मिल संचार के लिए उपलब्ध इंटरनेट तकनीक का सहारा ले कर गा रही हैं । जी हां इस मौसम को भला स्त्रियों के गीतों की लहरियों के बिना कैसे जाने दिया जा सकता था ।हम ने ऑनलाइन सावन के गीतों की बैठको की श्रृंखला शुरु की हुई है तो सावन के पहली तिथि को शुरू हुई और यह तीज के त्यौहार तक चलेगी ।इस प्रयास के कई महत्वपूर्ण लाभ हो रहें हैं ।महिलाएं डिजिटल होने लगी हैं उनकी रुचि इस माध्यम को आजमा लेने में जगी है ।उत्तर भारत के दूर दराज जिलों , शहरों गांव से महिलाएं आपस मे जुड़ रही है सामाजिक संबंध बन रहे हैं जो शायद बिना तकनीक के सम्भव न होता । महिलाओं की प्रतिभा को मंच मिल रहा है वह एक दूसरे प्रदेश के गीतों को सुन रही हैं सीख रही है । उत्तर भारत मे सावन महीने में महिलाओं द्वारा गीत गाये जाने की परंपरा को आगे बढ़ाने का कार्य सिद्ध हो रहा है । सबसे बड़ा लाभ यह हो रहा है कि महिलाओं के प्रतिदिन आपस में हो रहे सहज सम्वाद से यह भी ज्ञात हुआ है किस राज्य के किस अंचल में किस तरह से तीज मनाई जाती है और सामाजिक उत्सवों को मनाने के संदर्भ में अलग अलग राज्यों के ग्रामीण व शहरी समाज में कितना परिवर्तन आ गया है ।
हमारा गीत गाओ तीज मनाओ का सार्थक संदेश तेजी से फैल रहा है ।बहुत सी महिलाएं आपको हर दिन सोशल मीडिया पर सावन के गीत गाती सुनाई देंगी ।अभी इस प्रयास में वह महिलाएं जुड़ी हैं जो इंटरनेट तक अपनी पँहुच बना चुकी हैं या बनाने की ओर अग्रसर हैं । उत्सव चाहे आभासीय ही क्यों न हो उत्सव होता है उत्सव का अर्थ यही प्रतीत होता है कि स्वयं में उत्साह का संचार होना ।स्वतः ही आनन्द से भर जाना है ।निसंदेह यह प्रयोजन सभी प्रतिभागियों को आनन्दित कर रहा है ।
सावन का महीना जेठ आषाढ़ की भीषण गर्मी से राहत ले कर आता है सहचरों और मानव का मन उल्लास से भर जाता है । सावन में इन दिनों हरियाणा में चटख लाल रंग का मखमली कीट विचरता दिखाई देता है जैसे घरती पर लाल मोती लुढ़क रहे हों ।जो भी इन्हें देखता है उनके मुख से बरबस निकलता है लो आ गई तीज ।लोक जन इस खूबसूरत कीट को आज भी तीज कह सम्बोधित करते हैं ।
।lहरियाणा में लोक कहावत है आ गई तीज बो गई यानि तीज ने त्यौहारो के बीज बो दिए और राजस्थान में भी मिलती जुलती बड़ी ही प्यारी लोक कहावत प्रचलित है। तीज तीवारां बावड़ी, ले डूबी गणगौर...यानी सावन की तीज से आरंभ होने वाली पर्वों की यह रंग भरी मोहक श्रृंखला गणगौर के विसर्जन तक चलने वाली है। सभी बड़े त्योहार तीज के बाद ही आते हैं। रक्षाबंधन, जन्माष्टमी, श्राद्ध-पर्व, नवरात्रि, दशहरा, दीपावली सब आने के लिए पंक्तिबद्ध दिखाई पड़ते हैं ।
तीज श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाया जाने वाला महिलाओं का लोकप्रिय त्योहार है जो भारत में समस्त हरियाणा ,पंजाब ,राजस्थान , उत्तरप्रदेश और बिहार के मिथिलांचल और बुन्देलखण्ड अंचल में मनाया जाता है इस त्यौहार को कज्जली तीज, सावनी तीज , हरियाली तीज, मधु श्रावणी तीज भी कहा जाता है ।
हिन्दू धर्म मे इस त्यौहार का बड़ा महत्व है शिव पुराण की कथा अनुसार देवी पार्वती ने भगवान शिव को पति के रूप में पाने के लिए 107 जन्म तक तपस्या की परंतु उनकी मनोकामना पूरी न हुई । एक सौ आठवें जन्म में देवी पार्वती ने तीज का व्रत किया जिस से प्रसन्न हो कर भगवान शिव ने उनका पत्नी के रूप में वरण किया। ।हरियाली तीज के दिन भगवान शिव से माता पार्वती का मिलन हुआ था इसीलिए उन्हें यह तिथि प्रिय है।इसी मान्यता का अनुसरण कर युवतियां ऐच्छिक वर प्राप्ति की कामना हेतु व ब्याहता महिलाएं सुख-सौभाग्य व उत्तम संतान व पति की दीर्घ आयु के लिए तीज का व्रत रखती हैं।
हरियाणा पंजाब में अमूमन व्रत की कठोर परंपरा नही है बल्कि इस दिन खीर मालपूए, गुड़ के पूड़े , गुड़ के गुलगुले सुहाली पकवान बनाये, खाये ,खिलाये और बांटे जाते हैं ।परंतु कुछ स्त्रियां जो सनातन परंपरा का अनुसरण करती हैं इस दिन व्रत भी रखती हैं ।
व्रती महिलाएं सज-धजकर, सोलह-श्रृंगार करके माता पार्वती की पूजा करती हैं।उन्हें श्रृंगार की वस्तुएं चढ़ाती हैं। यह कठोर व्रत होता है जो निर्जल होता है अगले दिन सुबह व्रत खोला जाता है ।मान्यता है कि माता पार्वती इस पूजा से प्रसन्न होती है और इनको सुख-सौभाग्य का वरदान देती है। सभी स्त्रियां एक दिन पहले हाथों पर मेंहदी लगाती हैं । पंजाब और हरियाणा और उत्तर प्रदेश तीनों प्रदेशो में इस त्योहार पर नव ब्याहता बेटियो के मायके आ जाने की प्रथा है ।यदि लड़की ससुराल में है तो लड़की का भाई सिंधारा ले कर बहन के ससुराल जाता है और लड़की यदि मायके में हैं ससुराल वाले अपनी बहू के लिए सिंधारा ले कर उसके मायके घर आते हैं ।
इन दिनों गांव में लड़कियों की रौनक होती है ।गांव की ब्याही गई लड़कियां जब मायके में आती है तो वह अपने बचपन की सखियों से मिल फूली नही समाती ।बागों में झूला झूलने जाना ,गीत गाना और जी भर गिद्दे में नाचना उन्हें अलौकिक आनंद की अनुभूति करवाता है । बीते वर्षों गांवों में लोक मेले लगते थे जहां हाट बाजार गीत संगीत और झूला झूलने की व्यवस्था होती थी जहां सब लोग मिल कर हर्ष मनाते थे ।
हरियाणा प्रदेश में इस लोक त्यौहार को बड़े हर्ष उल्लास से मनाया जाता है ।सावन माह के शुरू होते ही सभी स्त्रियां प्रतिदन इक्कट्ठे हो कर गीत गाती है और नाचती हैं ।सावन में तीज के त्यौहार से पहले भाई अपने बहन के घर कोथली अथवा सिंधारा ले कर जाता है जिस में बहन के लिए रेशमी कपड़े श्रृंगार का सामान ,घेवर सुहाली ,मिठाई बंधी होती है । स्त्रियां ससुराल में अपने भाई का इंतजार करती है व चाव से भाई का अभिनन्दन करती है और पीहर का हाल पूछती है लोक गीतों में ऐसे सम्वादों की बहुतायत मिलती है ।
हरियाणा के लोकगीतों में सावन ऋतु का वर्णन , तीज के त्योहार का उल्लास ,पीहर और सासरे का वर्णन ,मां-बेटी, और सास -बहु के आपसी रिश्तों को दर्शाते सम्वादों का जिक्र मिलता है ।
लोक जन जीवन को दर्शाते लोक गीतों में सावन ऋतु को बहुत स्थान मिला है -
सामण की रुत हे माँ मेरी आ गई री हे री कोई चाल्लै बादल की लोस झूलण जांगी हे माँ मेरी बाग मेह री
नान्हीं नन्हीं बुंदिया हे माँ मेरी पड़ रही री हे री आया तीजां का त्यौहार झूलण जांगी हे माँ मेरी बाग मैंह जी ।
इस गीत में बेटी अपनी मां से गुहार लगाती है कि मैं बागों में झूला झूलने जाउंगी बागों में झूले पड़ गए हैं और नन्ही नन्ही बूंदे भी बरस रही हैं ।
निम्बां के निम्बौली लागी सामणिया कद आवैगा ,मरियो ए बसन्ता नाई कोथली कद ल्यावेगा ।
इस गीत में विवाहित बेटी ससुराल में बैठी सावन में अपनी कोथली आने का इंतजार करते हुए कह रही है नीम के पेड़ो को निम्बौली बसन्ता नामक नाई उसकी कोथली न जाने कब लाएगा ।गांव में बेटियो की सावन की कोथली नाई द्वारा ले जाने की परंपरा भी है ।
मीठी तो कर दे हे मां कोथली
जाणा सै बाहण के देस पपैया बोल्या पीपली
इस गीत में भाई अपनी मां से कहता है पीपल के पेड़ पर पपीहा बोल रहा है सावन आ गया है ।हे माँ मेरी बहन के लिए कोथली तैयार कर दो मै बहन के घर जाऊंगा ।
पी पी पपैया बोल्या बाग मह
तेरा पिया कैसा बोल रे
पपैया बैरी न्यू मत बोले रे जुल्मी बाग में
इस गीत में बिरहन अपने पति को याद कर रही है और पपीहे से कहती है कि हे पपीहे तुम यहाँ बाग में मत बोलो तुम्हारी आवाज मेरे पिया के जैसी है तुम बोलते हो तो मुझे पिया की बहुत याद आती है।
इसी प्रकार के अनेक गीत आज भी प्रचलित में है जो सावन के महीने में गाये जाते हैं ।
पंजाब में भी बरसों तीज के मेले प्रचलित रहें है ।जिस में ग्रामीण शिल्प व चूड़ियां बिन्दी मेहन्दी व अन्य शृंगार के सामान झूले मेलों की रौनक हुआ करते थे । महिलाएं गिद्धे में बोलियां गा कर धमक पैदा करती थी ।रंग बिरंगे परिधानों में ,हाथ की ताली से ताल देती और उत्साह से लबरेज समूह में गाती नाचती औरतें मदमस्त सावन को रंगीला सावन बना देती थी ।
पंजाब के पारंपरिक लोकगीतों में ,गिद्दे की बोलियों में सावन का जिक्र खूब हुआ है हंसी ठिठोली के भाव भी पिरोये गए हैं ।
पंजाब में गिद्दे की बोलियों और गीतो की बानगी प्रस्तुत है
1 सौण महीने पिपली पींगा खिड़ पइयाँ गुलज़ारां
संतो बन्तो कठियाँ हो के बण कुंजा दियां डारां
नच्च लै मोरणिये पंज पतासे वारां ..नच्च लै मोरणिये
इस बोली में हर्ष मग्न युवितयां अन्य युवतियों को नाचने के के लिए प्रोत्साहित कर रही है
2 सौंण दा महीना बागां विच बोलण मोर नी
मैं नही सौरे जणा गड्डी नु खाली टोर नी
इस गीत में सावन के महीने के रँगीले समय में लड़की अपने ससुराल जाने से इनकार कर रही है कि गाड़ी को वापिस भेज दिया जाए मैं नही जाउंगी ससुराल
3- देवीं हौली हौली पींग नु हुलारा
सौरेयाँ दा पिंड आ गया
कोई पुछे बिल्लो तेरा की हाल चाल है
कोई पूछे बिल्लो तेरा किन्ने दा रुमाल है
मैं देवां किहदी किहदी गल्ल दा हूँगारा
सौरियाँ दा पिंड आ गया
इस गीत में जब लड़की सावन में अपने ससुराल जाती है तो सब उस से उसका हालचाल पूछते हैं उसे घेर लेते है उसके रुमाल के बारे में पूछते है वह कहती है मैं किस किस को जवाब दूं साथ ही वह झूला धीरे से झूलाने का भी आग्रह करती है ।
4 जदों किण मिण पैण फ़ुहारां
खिड़ खिड़ पैंदिया गुलजारां
हरी भरी होई धरती फुल्ल वरगी
कि सौण दा महीना आ गया
इस गीत में सावन के महीने में धरती का वर्णन है कि रिमझिम बूंदों में धरती फूल की भाँती खिल गई है ।
रंगीला राजस्थान हमेशा से ही तीज-त्योहार, रंग-बिरंगे परिधान, उत्सव और लोकगीत व रीति रिवाजों के लिए प्रसिद्ध है। तीज का पर्व राजस्थान के लिए एक अलग ही उमंग लेकर आता है जब महीनों से तपती हुई मरुभूमि में रिमझिम करता सावन आता है तो निश्चित ही किसी महा उत्सव से कम नहीं होता। राजस्थान में भी सावन की तीज को मनाया जाता है ।सावन मास की तीज को छोटी तीज कहा जाता है व भादों मास की तीज को बड़ी तीज ।इस दिन गांव की सब कुँवारी लड़कियां व नव ब्याहताएँ गांव निकट तालाब पर इक्कट्ठा हो कर गीत गाती नाचती है झूले झूलती है ।
राजस्थानी लोक -गीतों की बानगी देखिए -
तालरिया मगरिया रे म्हारो भाई आय रियो आयो आयो तीजां रो त्युंहार ,बीरो बिणजारो रे
इस गीत में ब्याहता स्त्री बता रही है कि मेरा बंजारा भाई ताल तालाब ऊंचे टीलों से होते हुए तीज के त्यौहार पर मेरे घर आ रहा है ।
बन्ना रे बागां मेह झूला घाल्या ।म्हारी बन्नी ने झूलण दे न महारो छैल बनड़ा
इस गीत में नव ब्याहता के पति को कहा जा रहा है कि बन्नी के लिए बागों में झूला डाल दिया गया अब वह बन्नी झूला झूलने के लिए हमारे संग भेज दे ।
सावण लाग्यो भादवो जी यो तो बरसण लाग्यो मेघ बन्नी का मोरिया से झट चौमासा लाग्यो रे ।
इस गीत में सावन बादलों के बरसने और मोर के नाचने का वर्णन है
खड़ी खड़ी जोऊँली थारी बाट कदी आओला सजन
इस गीत में बिरहन सावन में अपने पिया की बाट जोहती है उसे पुकारती है ।ऐसी अनेक लोक गीतों की रचनाएं उपलब्ध है जो इस खास मौसम में प्रदेश भर में गाई जाती है ।
उत्तर प्रदेश में भी तीज का त्योहार मनाया जाता है और सावन में महिलाओं द्वारा गीत संगीत के सामुहिक आयोजनों की परंपरा रही है उत्तर प्रदेश में सभी अंचलों में व बिहार के मिथिला अंचल में भी तीज मनाने की परंपरा है ।यहां की महिलाएं और कुंआरी युवतियां व्रत रखती है सावन के पूरे महीने में सभी स्त्रियां झूलने और गीत गाती नाचती हैं यहां पर पुरषो द्वारा गायन का भी चलन है जिस में वे सावन में ताल ढोलक नगाड़े की थाप पर ऊंची हेक के गीत गाते और नाचते हैं।
उत्तर प्रदेश में सावन में कजरी गाने की परंपरा है यह उप शास्त्रीय गायन विधा है ।लोक रंग के इन सुरों को गायन शास्त्रों में शामिल किया गया ।कजरी के बोलों की बानगी इस प्रकार है -
दादुर मोर पपीहरा बोले
सुनि -सुनि जियरा डोले रामा,
हरे रामा बहे बसंती बयार, बदरिया घिर घिर आई ना
सब सखियां मिली झूला झूले ,
ले साजन के संग हो रामा,
हरे रामा झूमे ला मनवा हमार,
बदरिया घिर घिर आए ना
इस गीत में सावन में मोर पपीहा दादुर के बोलने का ,मेघ बरसने ,ठंडी हवा,व पति संग झूला झूलने से मन मे उठे आनन्द को वर्णित किया गया ।
सखी हो श्याम गए मधुबन को,
सुन करि मोरा भवनवा ना ।
आषाढ़ मास घनघेरी बदरिया,
सावन रिमझिम बरसे ना ।
भादो मास बिजुरिया चमके
मोहि डर लागे भवनवा ना ।।
राधा सखियों को सम्बोधित करके कह रही है कि श्याम मधुबन चले गए है और इस भवन में अब मेरा जी नही लगता है । बिजली चमकने से मुझे अकेले इस भवन में डर लगता है
2 गोरे कंचन गात पर अंगिया रंग अनार।
लैंगो सोहे लचकतो, लहरियो लफ्फादार।।
इस मे शृंगार का वर्णन है कि गोरे रंग पर अनार रंग की चोली और घुमेरदार लहंगे पर लहरिया चूनर बहुत सुंदर लग रही है ।
3 नन्हीं - नन्हीं बुदियाँ सावन का मेरा झूलना जी।
पहला झूला -झूला मैनें बाबुल जी के राज्य में,
यह गीत भी बहुत लोकप्रिय गीत है और स्त्रियो के बरबस ही थिरक उठते है ।लड़की अपने झूला झूलने के अनुभवों को याद कर रही है
उत्तर प्रदेश के मथुरा और वृंदावन में और हरियाणा की ब्रज भूमि फरीदाबाद में इस त्योहार की छटा राधा कृष्ण मयी होती है गीत संगीत के सरपट्टे लगते हैं । वृंदावन में श्री बांकेबिहारी जी को स्वर्ण-रजत हिंडोले में बिठाया जाता है। उन्हें देखने श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ती है। कथा अनुसार ऐसा माना जाता इस दिन राधारानी अपनी ससुराल नंदगांव से बरसाने आती हैं। मथुरा और ब्रज का विश्व प्रसिद्ध हरियाली तीज पर्व प्रत्येक समुदाय के लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र है। वहां के सभी मंदिरों में होने वाला झूलन उत्सव भी हरियाली तीज से ही आरंभ हो जाता है, जो कार्तिक पूर्णिमा को संपन्न होता है। झूले पर ठाकुरजी के साथ श्रीराधारानी का विग्रह भी स्थापित किया जाता है।यहाँ भी स्त्रियां सज-धजकर प्रकृति के इस सुंदर रूप का स्वागत करती हैं नाचती गाती है
अरी बहना छाई घटा घनघोर
बिजुरी तो चमके जोर से
अरी बहना मोर मचाए शोर
हे री सखी झूला तो पड़ गयो आम्बुआ की डार पै जी
हे जी कोई राधा को गोपाला बिन राधा को झुलाए कौन झूलना जी ।
मथुरा वृंदावन में गाये जाने गीतों को सावन की मल्हार कहा जाता है जिसे स्त्री पुरुष दोनों ही गाते हैं और नाचते हैं
बिहार के मिथिलांचल में भी सुहागन स्त्रियां अपने पति की लंबी आयु के लिए हरियाली तीज का व्रत रखती हैं, जिसे वहां मधुश्रावणी के नाम से जाना जाता है। यहां पर भी जो लोक गीत गाये जाते हैं उन में धरती की सुंदरता का सावन के मदमस्त मौसम का जिक्र होता है ।झूलने और गीत संगीत नृत्य यहां पर भी लोक रंजन में शामिल है
लोक गीतों की कुछ पंक्तियां प्रस्तुत है -
आओ सावन अधिक सुहावन
मन मे बोलन लागे मोर
रूम झूम के आई बदरिया
बरसत है चहुं ओर सखी री
इस गीत में वर्षा ऋतु का ही वर्णन किया गया है
कोयल बिन बगिया न सोहे राजा
भाई भतीजा बिन पिहरो न सोभे
पिया रे बिन सेजिया न शोभे राजा ।
इस गीत में सभी का महत्व बताया जा रहा है कोयल के बिना बाग की शोभा नही होती और भाई भतीजे बिन पीहर की शोभा नही होती और ससुराल
बुंदेलखंड में इस त्योहार को बड़े चाव से मनाया जाता है । घर के पूजा स्थल पर भगवान के लिए छोटा झूला स्थापित करके उसे आम या अशोक के पल्लव और रंग-बिरंगे फूलों से सजाया जाता है। फिर स्त्रियां भगवान श्रीकृष्ण के विग्रह को झूले पर रखकर श्रद्धा से झुलाते हुए मधुर स्वर में लोकगीत गाती हैं। इस अवसर पर श्रावण मास की सुंदरता से जुडे खास तरह के लोकगीत गाए जाते हैं जिन्हें इस क्षेत्र में भी कजरी कहा जाता है
गीत संगीत श्रृंगार से लकदक यह त्यौहार की लोक जीवन मे आज भी प्रिय है ।पूरे उत्तर भारत मे यह अपना विशेष स्थान रखता है ।गौर करने लायक बात है कि बीते 30 वर्ष पूर्व तक से आज तक समाज मे बहुत तेजी से बदलाव आ गया है । शहरी करण ,भूमण्डलीकरण के विकास के ढांचे में हम अपनी विरासत को भूलने लगे हैं । घटते संयुक्त परिवार और एकल परिवार की चुनौतियों से जूझ रहे परिवारों के पास अब इतना समय नही बचा है कि वे महीनों उत्सव मना पाएं ।त्यौहार मात्र एक ही दिन के रह गए हैं ।
जितने आधुनिक और विकसित हो रहे उतना ही जड़ो से दूर हो रहें हैं । अपनी परम्पराओं से पूर्ण मोह भंग तो नही हुआ है बस त्यौहार मनाने के ढंग बदल गए हैं ।आज जो लोग 70 वर्ष से ऊपर आयु के है वह शायद आखिरी पीढ़ी है जिस ने गांव में इन त्यौहारों का उत्साह अपनी आंखों से देख लिया है ।इनके बचपन व युवा अवस्था मे मोबाइल जैसी तकनीक ने घुसपैठ नही की थी । तब न मोबाइल था न ही रिकॉर्ड किए हुए गाने बजाने की सुविधा थी न ही कोई पसंद करता था ।
। वर्तमान में गीत संगीत में भी नए नए प्रयोगों ने जगह बना ली है अब तो संगीत भी कम्प्यूटर पर रचा जा रहा लोक वाद्यों की आवाजों से नई पीढ़ी का परिचय ही खत्म होता प्रतीत होता है। पारंपरिक सब लोक कलाओं की सब तालीम सीना ब सीना हुआ करती थी ।युवा बुजुर्गों के पास बैठ कर सीखते थे ।अब किसी के पास वक्त नही बचा है न ही इतनी साधना की लगन दिख रही है
सावन मनाने हमारे ऑनलाइन प्रयोजन से विभिन्न प्रदेशों की महिलाएं जुड़ी हैं । उत्तर प्रदेश के शहर गोरखपुर की 45 वर्षीय अंजनी त्रिपाठी कहती है ।जो हमने बीस तीस बरस पहले गांव में सावन की तीज के रंग देखे है वह आज नही है ।संयुक्त परिवार की परंपरा खोने लगी है ।कुटुम्ब की सामुहिकता बहक सी गई है ।पहले इस प्रकार के सामुहिक आयोजन गांव के बड़े बुजुर्गों के संरक्षण में आयोजित होते थे ।उन आयोजनों में अनुसाशन भी होता था बड़े छोटे की शर्म भी ।अब इस तरह के आयोजनों की कोई जिम्मेदारी नही ले रहा है । हर हाथ मे मोबाइल की पँहुच ने विरासत के सामुहिक व्यवहार के चलन को बेदखल सा कर दिया है । मनोरंजन अब हाथ मे बज रहा है ।आजकल नाच गाना रिकॉर्ड पर ही बज रहे हैं ।वेश भूषा भी आधुनिक हो गई है ।अब वह नजारा न रहा ।गीत गाने में सांस खर्च होता है जोर लगता है आजकल की युवतियों में वह ताकत ही न बची है ।न ही बड़े बुजुर्ग औरतों से बैठ कर गीत सीखने की कोई ललक है ।सब मोबाइल में देख देख कर नाच गा रही हैं । इस पीढ़ी के तो आर्दश बदल गए हैं अपने मूल स्वरूप में लोक रंजन को इन्होंने देखा ही नही ।
पंजाब के पटियाला शहर की परमजीत कौर ने तीज के मेलों में गिद्धे भंगड़े में खूब भाग लिया है अपने घर के बुजुर्गों को तीज मनाते देखा है ।वह अरसे से पंजाब के लोक गीत गा रही हैं वह अपनी चिंता जताते हुए कहती हैं कि समय के साथ तीज या अन्य सभी सार्वजनिक त्योहारों के मेलों के आयोजनो में फर्क आया है जो विधाएं स्वयं के रंजन की थी और सहजता से सामुहिक लोक जीवन का हिस्सा थी अब वह मंच की विधाएं हो गई है और लोक आयोजन भी मंच पर होने लगे हैं।जिस में औपचारिकता बढ़ गई हैं और ग्राम्य जीवन सदा व्याप्त रहने वाली सुलभ सहजता लुप्त होती जा रही है ।अब लोग अधिकतर रंगारंग कार्यक्रम देखने जाते है सुनने जाते हैं पर उसका स्वयं हिस्सा नही हो पाते ।पर त्यौहारों का महत्व और उल्लास कम नही हुआ है पर रूप रंग बदल गया है।यह आयोजन सरकार के सिर मढ़ दिए गए हैं ।कुछ संस्थाएं भी ऐसे आयोजन करती है बदलते वक्त में यह प्रयास भी सार्थक हैं ।
राजस्थान के सीकर जिले के मउ गांव की रहने वाली वरिष्ठ सांस्कृतिक रंगकर्मी वीना शर्मा सागर का कहना है । तीज के दिन हम सब युवतियां घर से नए आम का ताजा डला हुआ कच्चे आम का अचार व साथ ले कर तालाब किनारे जाती थी और उस जगह गाना बजाना होता था ।नई दुल्हन को झूला झुलाया जाता है व झूले पर बैठी दुल्हन से उसके पति का नाम पूछा जाता था।गांव में नव ब्याहता के लिए यह पहला सार्वजनिक अवसर होता था जिस में ब्याहता अपने पति का नाम बताती थी ।इस रस्म का यह लाभ होता था कि अपनी आयु की सभी लड़कियों व बहुओं से सभी का परिचय हो जाता था ।इस छोटी तीज में बड़ी बूढ़ी औरते नही भाग लेती थी ।नई ब्याहता स्त्रियां व कुंआरी युवतियां व्रत रखती थी ।यह उल्लास अब गांव से भी नदारद होता जा रहा है। नई पीढ़ी का शहर की ओर पलायन होता जा रहा है और बच्चे अंग्रेजी शिक्षा में पल रहे हैं ।सारी दुनिया के ज्ञान को जुटाने के लिए अपनी जड़ों को गहरा करना होता है।जितना हम अपनी सभ्यता और संस्कृति को सम्मान देते हैं उतना ही विश्व मे सम्मान पाते हैं ।राजस्थान में भी रेकॉर्ड किए गीतों की उपलब्धता है एक तरफ तो यह अच्छा है कि युवा कम से इस माध्यम से ही लोक गीतों को सुन रहे हैं दूसरी तरफ गाने की परम्परा कम हो रही है गायन में स्वास का नियंत्रण साधना होता है जो प्राणायाम ही है इस से फेंफड़े भी मजबूत होते थे।नाचने से पसीना बहता था ऊर्जा खर्च होती है व्यायाम होता है ।अब बच्चे जिम में जा रहे है उत्तेजक ऊंचे संगीत के बीच वर्जिश हो रही है ।हमारी लोक कला विधाओं में इतना सामर्थ्य आज भी है कि वह इंसान के शाररिक और मानसिक रूप से मजबूत बनाये रख सकें ।बार बार त्यौहारो के आने ब्याह शादियों में नाचने गाने से मन की कुंठाओ का विरेचन हो जाता था व तन के दूषित पदार्थ पसीने से बह निकलते थे ।अब इस दिशा में जागरूक करने की जरूरत है ।जिस मंच का युवा पीढ़ी सब से ज्यादा इस्तेमाल करती है उन्ही मंचो पर उन्हें उन्ही की भाषा मे लोक कलाओं के महत्व को समझाने की जरूरत है ।
इस संदर्भ में यह तो हमें स्वीकारना होगा कि परिवर्तन नियम है और समय के साथ साथ लोक रंजन के तरीके और भी बदलेंगे । माध्यम भी बदल जाएंगे ।इस बीच यदि हम अपने उत्सवों की उद्देश्य को नई पीढ़ी तक पँहुचा पाएं और उन में इस परम्पराओं के प्रति उत्साह स्नेह और सम्मान पैदा कर पाएँ तो यह हमारी अधेड़ आयु में प्रवेश करती पीढ़ी की बड़ी उप्लब्धी होगी ।
अपनी लोक संस्क्रुति को पीढ़ी दर पीढ़ी स्थान्तरण करते जाना भी हमारी ही जिम्मेदारी है।सावन के मधुर सुरीले लोक रंग का जादू इस इंटरनेट पर सम्वाद करने पीढ़ी के भी सर चढ़ कर बोलने लगे यह सम्भव है ।चलते चलते ध्यान आ गया कि इस माह में भगवान शिव के रंग में रँगे शिव भक्त कावड़ियों के झुंड के झुंड बम बम बोले का जयघोष करते गंगा जल लाने के उपक्रम में पैदल सफर करते दिखने वाले नदारद रहेंगे ।आने वाले समय मे कावड़ के ऑनलाइन होने की व्यवस्था बन ही जाएगी ।ऑनलाइन सर्विस प्रोवाइडर भी मिल जाएंगे जो गंगा से जल ले भी और आपके गांव में मंदिर में चढ़ा भी देंगे।
फिलहाल इस लेख में इतना ही- चलते चलते जो महिलाएं ऑनलाइन सावन के गीतों की बैठक में भाग ले कर नाच गा कर इस आयोजन को सफल बना रही हैं उनके नाम आपको बता दे रहें हैं - हरियाणा से मीनाक्षी यादव ,एम के कागदाना,आंशिक कक्कड़ ,संगीता ओहल्याण,सुदेश मलिक ,साक्षी हंस , डॉ प्रोमिला दहिया सुहाग , अंजू लठवाल ,मीना शर्मा , डॉ मीनाक्षी महाजन ,बेबी रानी ,डॉ मीनाक्षी शर्मा ,सन्तोष आंतिल, भूमिका नासा ,अनिता जांगड़ा, सरोज शर्मा ,उर्मिल राठी , हिमानी जांगड़ा, सुनीता मलिक, अंजलि ,
पंजाब से परमजीत कौर ,उनमान सिहं,डॉ मंजू अरोड़ा ,सुपनंदन दीप ,मनदीप दीप ,हिना राजपूत ,नैना हिमांशु अरोड़ा , डॉ रमा कांता ,रौशनी देवी ,हरजीत कौर , आनुपमा गगनेजा ,गुरदेव कौर ,ऑस्ट्रेलिया से नवजोत कौर ,गुरमीत कौर ,बबिता रानी ,नरिंदर कौर
राजस्थान से वीना शर्मा ,डॉ मुक्ता सिंघवी ,वीना शर्मा सागर ,कविता शर्मा ,वीना जांगिड़ ,शिल्पा राणा
उत्तर प्रदेश से सुनीता मलिक सोलंकी ,अंजरी त्रिपाठी ,अंजनी मिश्रा ,,ममता शर्मा ,सरस्वती त्रिपाठी, राशि श्रीवास्तव
हिमाचल से रीता पुरहान ,शगुन राजपूत ,शिवानी नेगी
चंडीगढ़,पंचकूला से डॉ चारु हांडा , सुनीता शर्मा ,वन्दना शर्मा , रजनी बजाज , अनामिका , काजल ,रीना वर्मा ,नीलम त्रिखा , मंजली सहारण , रेखा शर्मा ,वीना मल्होत्रा ,
नई दिल्ली से ममता शर्मा,वीना शर्मा, पुष्पा शर्मा जांगिड़ ,सुमन शर्मा ,बिहार से नन्दिनी झा और कल्पना सिन्हा सहित अन्य महिलाएं भाग ले रही हैं तीज के त्यौहार तक तक यह सिलसिला यूँ ही जारी रहेगा ।
सुनीता धारीवाल जांगिड़
सामाजिक व सांस्कृतिक कार्यकर्ता व प्रेरक
9888741311