गुरुवार, 30 जून 2016

नील गाय या शील गाय

मैं नील गाय









लगता है
कुछ गलत समझे हो पता भी गलत है
क्या कहा?
मैं हूँ गाय
दुघारू शील
नख से शिख तक
वन्दनीय पूजनीय
न भई न
लगता है
कुछ भूल हुई है
आपने गलत पहचाना
मैं नीलगाय
चौपट कर रहीं हूँ
तुम्हारे खेत
अपनी नस्ल बचाने को
दोष मेरा नहीं
तुम्ही तो रोज
कम करते रहे
मेरे हिस्से की ज़मीन
और कितना भागूं मैं
कितना सिमटू मैं
आखिर मुझे भी
हिस्सा चाहिए
तेरी बोई मेरी ज़मीन में
चिरौरी अनुनय विनय के बाद
अब जब मैं सींगो से
तुमसे बात करने लगी हूँ
तुमने सुनाया है फरमान
मेरी बेदखली का
साँसों सहित
और उठा ली है बन्दूक
हैरान हूँ
गाय बांधते रहे हो
नील गाय भी पाल कर
एक बार देखो तो सही
संख्या दिनब बढ़ रही
मेरी नस्ल वालियों की
नाक में दम भी किये हैं
चलिए बन्दूक से ही सही
कीजिये तो काबू
क्यूंकि खूंटे तुम्हारे
कमजोर सिद्ध हुए है
मेरे भागने की ललक के आगे
सुनीता धारीवाल

बिना पते के खत

ऐ नामवर बता कहाँ पहुँचते है वो खत
जिन पर पते लिखे नहीं होते 
ऐ मुल्ला तू भी बता कहाँ पहुंचती है दुआ 
जिसके कोई खुदा नहीं होते 
ऐ पंडित तू भी बता कैसे होते हैं श्राद्ध बेटियों के 
जिनके जन्म ही नहीं होते 

बुधवार, 29 जून 2016

मंगलवार, 28 जून 2016

सिफर और बही













 एक थी मैं  
हिसाब किताब में बहुत कच्ची 
 रिश्ते हो या जज़्बात  
कभी गुणा भाग जोड़ घटा 
 कुछ नहीं आता था
 बस सिफर पहचानती थी
  हर बार हर हिसाब में 
 सिफर हो जाती थी 
 कभी कोई सूची बनाई ही न थी  
कब कब मैंने क्या किया  
कब कब मैंने क्या दिया  
तुमने कब कितना दिया 
 मैंने कब कितना लिया
  फेरहिस्त तुम्हारी थी 
 कलम तुम्हारी थी  
 बही तुम्हारी थी 
 रिश्तों की आढ़त भी तो तुम्हारी थी
  मेरा तो बस खाता था  
उस बही में  
जिसमे मेरी तरफ 
 देनदारियां बहुत निकली थी 
 हर बार अंगूठा कहाँ लगाती थी मैं
  चक्रवर्धि तिमाही छमाही 
 कुछ भी नहीं जानती  थी मैं 
भला  साँझ में हिसाब कौन करता है
  वो भी रिश्तों का
  इस  हिसाब के बाद  
मैंने बोना और सींचना  
सब छोड़ दिया है  
गिरवी रख के बाकी सांस
  जीना ही छोड़ दिया है
  जानती हूँ उसी बही में 
तुमने  एक पन्ना 
और जोड़ लिया है  
साँझ से रात तक के
बचे  हिसाब का  
सुबह दोबारा किसी की 
कभी होती  नहीं 
नया खाता कोई 
 सिफर से फिर शुरू होगा 
 कोई नया जन्म होगा
  सुना है हिसाब किताब
  जन्मों चला करते है   
कैर्री फॉरवर्ड की मानिंद 
सुनीता धारीवाल

लिखने लगी हैं औरतें












चलो ढूंढें उन्हें
जो कोमल नन्हे हाथो से
मेहँदी लगे हाथो
तरेड़ फटे हाथो से
लिख रहीं है कहीं 
फिर फाड़ रही है
कहीं छुपा रही हैं
किसी स्कूल जाते
बच्चे की बची
कॉपी के खाली पन्नों पर
किसी बही के बचे गत्तो पर
किसी अखबार पर
किसी दिवार पर
और फिर पोंछ देती है
कभी खुद ही
उन लकीरों को पढ़
रो देती है
कभी हंस लेती हैं
और मिटा देती है
ये काले अक्षर
कितना राहत देते है उन्हें
पर डराते भी हैं उन्हें
कि कोई पढ़ लेगा तो
वे फिर मिटा देती हैं
वे नहीं जानती वे
वे इतिहास दर्ज कर रही है
आज के समाज का
आओ खोजे और पढ़े उन्हें
और बताये जहान को
कि उनसे भीतर
अक्षर मिट नहीं रहें है
और उन्होंने अब
वाक्य जोड़ लिए हैं
तुम्हारे वजूद से
बात करने के लिए
सुनीता धारीवाल

चित्र  साभार -gettyimages#google

सिगरेट और औरतें












गौर करना कभी
गावँ में बीड़ी पीती हुई
हुक्की गुड़गुड़ाती हुई
नसवार सूँघती या पान खाती
औरतो की -और शहर में
सिगरेट पीती धुँआ उड़ाती
औरतो की भाव भंगिमाएं
आँखों में चढ़ते उतरते रंग
सब एक जैसे होते है
पर बदल जाती है
तुम्हारी नज़र
संस्कृति और अपसंस्कृति
की परिभाषाएं गढ़ती हुई
तुम्हारी नज़र है कि
शहर वालीओ पर से हटती नहीं है
और तुम उसकी आँखों में
कश पे कश ढूँढने लगते हो

सुनीता धारीवाल

मेरी अलमारी











करीने से जमाया था
हर एक रिश्ता
मेरी अलमारी में
जो मैं अपने घर से लायी थी
बड़े अरमानो से 
ढलती सांझ की एक रोज
खोली फिर से
वही बंद अलमारी
जिसे मैं रोज झाड़ पोंछ करती थी
बिना नागा
उसमे रिश्ते जो रखे थे करीने से
देखा एक नज़र सभी रिश्तों को
बिना हाथ लगाये
सभी में सलवटे थी
उठा कर देखा तो जर्जर भी थे
कुछ जलन से जल चुके थे
कुछ को कीट खा गए थे
कुछ में सीलन की गंध थी
कुछ काले पड़ गए थे
कुछ की चमक गायब कुछ की दमक गायब
मैं निरुत्तर सी सोच रही थी
समय रहते घूप दिखाई होती
तो शायद यह नौबत न आती
हो सकता है बच जाते रिश्ते भी
और मेरी मेहनत भी
या फिर न ही खोलती तहें
और भ्र्म रह जाता
भरी अलमारी का
सुनीता धारीवाल

एक सी औरतें



एक सी होती हैं औरतें
एक सा बोती हैं औरतें
फसल में हिस्सा नहीं होता
खत्म यह किस्सा नहीं होता
एक सी पीड़ा होती है 
एक सी क्रीड़ा होती है
एक सा तन होता है
एक सा मन होता है
एक सी जिज्ञासा होती है
एक सी पिपासा होती है
बस उन्हें अलग कर
अलग अलग उपाय से हांका जाता है
औरत बने रहने के लिए
सुनीता धारीवाल

रविवार, 26 जून 2016

रास्ते

रास्ते


चल तो दूं मैं उन्ही रास्तो पे कहीं जाते तो है मगर पहुँचते ही नहीं तुम जो संग चलो तो चलूँ फिर वहीँ लाएं झोले में भर यादों की एक डली ज़िन्दगी कहते हैं जिसे वो वही थी मिली थे बंद सब रास्ते और तुम थी मिली कैसे क्या हो गया कैसे मैं खो गया था तिल्लिसम नया दिल में है खलबली जानता तो हूँ मगर मानता मैं नहीं तू नहीं है मेरी हासिल ए महजबीं याद है वो घड़ी जब थी तुम यूँ खड़ी जैसे छावं कोई तपती राह पे पड़ी और बस एक बार आओ फिर से चले रास्तो पे उन्ही जायेंगे जो मगर पहुंचेंगे नहीं आ भी जाओ प्रिय पलटो तो फिर सही अब न लौटेंगे हम रास्तों से उन्ही जायेंगे जो ज़रूर पहुंचेंगे नहीं

नीड़


किस नीड़ से भला
कहाँ रुके है
पर निकले परिंदे
नीड़ का मुहाना ही
बनता है 
पहला मंच
जहां से उड़ा जाता है
और बैया
बस देखती है
वह आखेट
और तन्द्रा तोड़
ताकती है फिर
नर बैया की और
ताकि फिर से बना सके
एक और लांच पैड
कुछ नए परिन्दों के
आखेट के लिए
और वह यूँ ही
दोहराती रहती है
सिलाई
धागा पर धागा
सुनीता धारीवाल

दुर्लभ से कुछ कैक्टस














दुर्लभ से कुछ कैक्टस
उगे है मेरे भीतर के रेतीले बंजर में भी 
उनकी प्रजातियों खतरे में भी है
भयंकर सूखे में भी वो
फूल ऊगा लेते है 
पानी भी भर लेते है पत्तो में
और कांटो से बाहर निकल
तीस मिटा देते हैं कीटो की
जो मरने 
 कगार पर होते है
ये केक्टस दवा बन जाते है
जब जब कुचले जाते हैं
कभी कभी ये केक्टस तन से
बाहर दिखने लगते है और
दुनिया बौरा जाती है


सुनीता धारीवाल जांगिड 

शनिवार, 25 जून 2016

लिबास





कुछ  तो होता है लिबास में
जिसे   बदलते  ही
आभास बदल जाते हैं
आश्चर्य है एक रईस
भिक्षुक बन नापता  है
सारे  कचरा  घर
और  ढूंढता  है  भोजन
और  कुछ  दिन बाद लौट  जाता है
अपने आलिशान लिबास की ओर
सच्ची - ये  सब  लिबास
जैसे कोई रोमांच की पूरी दुनिया  हों
जिसको छूने  भर  से  ही
राय  बदलने  लगती  है
अपनी  भी  और ज़माने  की भी
सोचती  हूँ  किसने बनाया  होगा
वह पहला  लिबास
जिसमे इंसान छुप  गया  होगा
और  बाहर  बचे होंगे
इंसानी  ऊँच नीच  के कारोबार
और  आज  तक अब  भी
 इंसान के पेट की रोटी का ज्यादातर हिस्सा
 चुपचाप खा रहें  है  लिबास
और हम  खिला  रहे  है
हर  रोज  एक और  ऊँचा लिबास
ले आने  में  जुटे  हैं
लिबास ने भी क्या  किस्मत पायी है
राजा  तो  क्या रानी भी भरमाई है
और भरमाये हैं वे सब जिन्हें
लिबास से ज्यादा रोटी ज़रूरी है
और  हाँ  आत्माएं  भी तो बदल रही है
देहो के लिबास और उसी से सीखा होगा
बदलना और बनाना लिबास

सुनीता धारीवाल



सभी तो काणे हैं



सभी तो काणे हैं
कोई अपनी नजर में
कोई किसी की नज़र में
कुछ कर दिए जाते है
कुछ खुद भी हुए जाते है 
कुछ बस यूँ ही हो जाते है
यूँ भी स्थापित होती है एक सत्ता
एक इंसान की दुसरे इंसान पर
और आँखे सलामत होते हुए भी
वह आँख नहीं मिलाता है
न ही आँख दिखाता है
दरअसल यह खेल नहीं
घिनौना युद्ध है युक्ति का युक्ति से
और हार मनुष्य जाता है
सुनीता धारीवाल

कछुए जैसी मैं हो गयी



कुछ बिल खोदा करती हूँ
और छुप जाया करती हूँ
अब ज़माने के हर घात से
बहुत डर लगता है
बना लिया है मैंने घर को 
कछुए सा कठोर कवच
बस कभी कभी गर्दन निकालती हूँ
बाहर निकल देखती हूँ
और फिर समेट लेती हूँ
खुद को और भी भीतर
और दरवाजे बंद कर लेती हूँ
कुछ दिन अँधेरे में बिता कर
कभी कभी रौशनी को देखने
बाहर आती हूँ ताकि
खुद को जिन्दा महसूस कर सकूं
और फिर दुबक जाती हूँ
दिन काटे नहीं कटता है
और साल बीतते जाते हैं
सुनीता धारीवाल

शुक्रवार, 24 जून 2016

मुखौटे













मुखौटो के  देश  में  चेहरा दिखा दिया
हाय  अल्लाह झूट पे  कितना जुल्म ढा दिया 

गुनाहों की गठड़ी












मैं जैसे  गुनाहों की गठड़ी 
तुम जैसे कोई तीर्थ स्थल

सुनीता धारीवाल 

ऐ तन्हाई



ऐ तन्हाई
तुमसे कब अघाई मैं
तुम ही तो जो
मिलने चली आती हो
हर रोज सबसे नजर बचा के
और काँधे चढ़ जाती हो
कि पुचकारू तुम्हे
और बाते करूँ तुमसे
पर मैं मौन
बस देखती हूँ तुम्हे
आते जाते
और कुछ कह नहीं पाती
बस आदत हो जाती है मुझे
उन सब की
जो खुद ब खुद चले आते है
मुझसे मिलने
और तुम तो भला रोज़ आती हो
तुमसे भला क्यूँ अघाऊंगी मैं

जैसे कोई गया अभी


दिल कुछ अजब सा धड़का 
जैसे कोई गया अभी 
जो थामे बैठा था 
ऊँची नीची धड़कने
और मैं शांत सी थी 
अब कुछ बेचैनी सी है
जैसे कुछ रुक सा गया
भीतर उन्ही नसों में
जो दिल तक ले जाती थी
हर हर दृष्टी स्पर्श
और हवा के झोंके भी
जाने कैसे अचानक
बेचारा सा हो गया दिल
कि कुछ अजीब सा धड़का अभी अभी

गुरुवार, 23 जून 2016

स्त्री विमर्श कविता गोष्ठी -23 जून २०१६ रिपोर्ट


www.wtvindia.in वेब  पोर्टल की ओर से आज पञ्चकुला शहर  में कवियत्री गोष्ठी का आयोजन किया गया जिसकी अध्यक्षता वरिष्ठ लेखिका  राजवंती मान ने की गोष्ठी में डॉक्टर शालिनी शर्मा ,सीमा भरद्वाज, नीलम त्रिखा ,गार्गी , डॉक्टर दीप्ति शास्त्री ,मंझली सहारण ,उमा शर्मा सुनीता धारीवाल ने अपनी कवितायेँ पढ़ी ,
राजवंती मान ने अपनी कविता पढ़ते हुए कहा
उन्हें पसंद हैं
अंगूठे के काले धब्बे से निकला
बस छोटा सा नाम 
सिमटा मौन सा
उन्हें पसंद नहीं मेरे भीतर अक्षरों का करवटें लेना ,
मुझे पसंद नहीं सिफर हो जाना
डॉक्टर शालिनी शर्मा ने कहा
चलना जो चाहां मैंने होकर यूँ सबल
हर चाल में मेरी तेरी ऊँगली क्यूँ उठी थी
सीमा भरद्वाज ने कहा अपनी कविता में
गम के थपेड़े खाए जा रही है जिंदगी
बूँद बूँद सी जिए जा रही है जिन्दगी
नीलम त्रिखा ने मेरी बेटी शीर्षक कविता में कहा
मासूम सा चेहरा और चाल नवाबी है
लिए लाखो सपने चली जैसे शेह्जादी है
सुनीता धारीवाल ने अपनी कविता पढ़ते हुए कहा
बहुत असुरक्षित होती है
किशोरवय बेटियां
जिनकी माँ पर यौवन
कुछ देर और ठहर जाता है
दूसरी कविता में किसान की पत्नी की व्यथा कहते हुए कहा
देखो मेरी खंडित सी कोई
छत होगी
छत नीचे कुछ अपने होंगे
ग़ुरबत मद से लिपटे कुछ लम्हे
लफ्जो से भरपूर मिलेंगे
श्रृंगार की डिबिया वहीँ मिलेगी
आईने चकनाचूर मिलेंगे 
डॉ दीप्ति ने अपनी कविता पढ़ते ख़ुशी का महत्व समझाते हुए कहा 
चेहरे पर ख़ुशी रहनी ही चाहिए 
जेब भी भरी रहनी ही चाहिए 
सभा में mrs ग्लैडरैग्स ख़िताब जीत चुकी गार्गी दुग्गल ने भी अपने विचार सांझे किये 

women tv india पोर्टल की निदेशक पीयूशा शर्मा ने बताया कि इस गोष्ठी के आयोजन का उद्देश्य नवोदित महिला कवियत्रियों को मंच प्रदान करना व् अधिक से अधिक औरतों को अदब की दुनिया से जोड़ना है ताकि महिलाएं खुल कर अपनी बात लेखन के माध्यम से कह सकें .महिलाओं की प्रतिभाओं को सामने लाने के लिए आज की गोष्ठी सफल रही ,wtv india नामक वेब पोर्टल की फाउंडर श्रीमती सुनीता धारीवाल ने सभी उपस्तिथ्त कवियात्रिओं का धन्यवाद किया

बुधवार, 22 जून 2016

पुराने भवन

बहुत डरते है 
पुराने आलिशान भवन
नयी दीवारों के
आसपास उग आने से 
बहुत रोकते है उन्हें
अपनी शान का हवाला दे कर
और अक्सर जमींदोज कर देते है नयी नीवं
फिर वही दीवार
पीपल की तरह उगने लगती है
आलिशान भवनों की तरेडों में
और ज़मीदोज़ होने लगते है
वहीआलिशान भवन

दो पंक्तियाँ

जो मैंने कहा वह कहाँ सच 
जो तुमने सुना वह भी कहाँ सच

ज़रूरते

अक्सर ज़रूरते पूछते है वही 
जो खुद एहसान पर पलते है

किशोरवय बेटियां

बहुत असुरक्षित होती है 
किशोरवय बेटियां 
जिनकी माँ पर यौवन 
कुछ देर और ठहर जाता है

सुनीता धारीवाल 

बूंदे

हवा ने धकेला बूंदों को 
और वे चली आई
मेरे घर की दहलीज तक 
ताकि कुछ पल 
मैं भी भिगो पाऊं 
अपने पाँव
उसकी सरल सी ठंडक से
और मैं अब भीग रही हूँ
घर बैठे बैठे
रुक तो जाते 
गर चले न होते
हमसफर   मुसाफिर 
गर  भले  न होते 
रोकने  वालो  ने 
गर  छले  न होते 
पाँव के  छाले
गर  गले  न होते 
रूक  तो  जाते  


सुनीता धारीवाल

सोमवार, 20 जून 2016

भूगोल

क्या किया अब तक
बस भूगोल ही जांचा
औरत का
नाप ली एक ही झटके में
एक ही नज़र से
सब आगे पीछे ऊंचाई गहराई
माददा नहीं है तुम्हारा 
उसके दिल और दिमाग की
गहराईयों का उत्खनन करने का
तभी तो तुम्हारा इतिहास अधूरा है
और मेरा सब ज्ञान पूरा है
औरत न जान पाओगे
गर भूगोल में घूमने जाओगे
सुनीता धारीवाल

रिश्ता

दिमाग सुला कर
बदन जगाया है
ताउम्र उसने रिश्ता
ऐसे निभाया है

गुरुवार, 16 जून 2016

मैं कौन हूँ और क्यूँ लिखती हूँ ?

मैं कौन हूँ और  क्यूँ  लिखती  हूँ ?


कभी कानो में धीरे धीरे बात करना
खुस्फुसाना और तुम्हे हँसाना
कभी कान में जोर से चिल्लाना तुम्हे डराना
इसी को कहते हैं कानाबाती करते जाना
न मैं उतनी स्वतंत्र जितना लिखती हूँ न उतनी परतंत्र, न उतनी स्वछन्द न उतनी उदण्ड. न उतनी शील न ही उतनी शल्य जितना अभिवयक्ति में होती हूँ
मैं बस मैं हूँ प्रकृति की प्रतिकृति पल पल समय के साथ चलती हूँ रंग ढंग बदलती  हूँ मिटटी हूँ पानी हूँ हवाओ की पेशानी हूँ लहरों की रवानी हूँ-मुझे परिभाषित नहीं किया जाता प्रकृति की तरह कितने ही पात्र निभाती हूँ तभी कहलाती हूँ धरती औरऔरत एक जात जिसकी थाह नहीं सच में मैं अथाह हूँ क्यूंकि मैं स्त्री हूँ मैं जटिलताओ में सरल और सरलताओं में जटिल होती हूँ देवी भी मैं अप्सरा भी मैं चंडालिका भी मैं रसतालिका भी मैं -मत कयास लगाओ की मैं कौन हूँ
गौर करो भाई मित्रो
ज़रूरी नहीं की लेखक जो भी लिखता है वह अपनी ही कहानी लिखता है उसके लेखन से  उसके परिवार को उसकी व्यग्तिगत परिस्थितियों को उसके पारिवारिक मान सम्मान को उसके वयाक्तितव को जज करना -उसका व्ययाक्तिगत आंकलन करना सही नहीं होता
ऐसा करने वाला  व्यक्ति अपरिपक्व पाठक  होता है
२- ज़रूरी नहीं जो भी हम लिखें  आपबीती ही है
३- हम लेखक तभी हैं जब हम भावुक मन के मालिक हैं यानि हम मंझे हुए कलाकार हैं और हम किसी भी पात्र को कभी भी अपने  भीतर उतरने की इज़ाज़त देते रहते है और पात्र में रम कर लिखते है
4-दूसरों के अनुभव हम बड़ी आसानी से अपने बना सकतेहैं
5-हमारी कल्पना में कई पात्र भी आपस में विमर्श कर रहे होते है
6-बहुत कुछ ऐसा लिखते हैं जो हमारे मन ने कहीं गहरे सुना होता है और वे सदा के लिए हमारी हार्डड्राइव में स्टोर हो जाते है और हम चूँकि कहना जानते हैंइसलिए कह देते हैं
7-महिला लेखकों के सन्दर्भ में ज़रूरी नहीं जो पीड़ा मैं बन कर अभिव्यक्त कीगयी है उसी की हो हाँ पर वो किसी औरत जात की ज़रूर होतीहै
8-बहुत बार दुसरे की बात मैं में लिखना आसान होता है क्यूंकि वह किसी व्यक्ति विशेष को इंगित नहीं करता -जिस से उसकी पहचान गुप्त रहती है
9-कोमल मन में कोमल विचार जगह बनाते है
10- जब कोई लेखक या कलाकार कोई भी रचना करताहै उस वक्त वह खुद तो होता ही नहीं एक  समाधी होती है जिसका सीधा तार दुनिया के रचनाकार से जुड़ जाता है और  तब मैं या कोई भी कलाकार  ऐसी रचना करने में सक्षम  हो जाता है जिसका उसे खुद भी भान नहीं होता -अनेक बार हमें अपने लिखे पर भी यकीन नहीं होता कि मैंने लिखा है ?पर उसे समाधि लिखवाती है चाह कर भी हम ऐसे ही कुछ भी लिख दो कर नहीं पाते
11-कलाकार होना रचनाकार होना कहीं पूर्व जन्म के संस्कार हैं जो चले आते है और बिना सिखाये सीखे भी इंसान समाधि पा जाता है और रच देता है
12-हम लोगो को सिर्फ सुनते नहीं महसूस करते है और उनकी जुबान बन जाते हैं
13-मुझे भीबहुत लोग कहते है -जे बात अरे बहन मैं भी बस यही कहना चाहती थी आपने शब्द दे दिए-और शब्द मैं कहाँ देती हूँ समाधि देती है
14-हम चर्चित रहने के लिए और धन के लिए भी नहीं लिखते  कृत्रिमता होती नहीं इसलिए सीधे दिल तक पहुँच जाते हैं
15- न ही हम तालियां बजवाने के लिए लिखते हैं-न आलोचना या प्रसंशा के लिए
बस खुद का मन विचारो की गठड़ी लिए बोझ मरने लगती हूँ तो उस भार को हल्का करने के लिए लिखती हूँ  
कृपया व्याकरण की अशुद्धियों की अवहेलना करें मैंने अंग्रेजी स्कूल में हिंदी पढ़ी  है 

नाम -सुनीता  धारीवाल 

मेरी टैग लाइन-

प्रकृति की प्रतिकृति
ब्रांड मेरा मैं खुद हूँ
पता है-निर्विघ्न अंतस समाधि

बुधवार, 15 जून 2016

रास्ते












चल तो दूं मैं उन्ही 
रास्तो पे कहीं
जाते तो है मगर
पहुँचते ही नहीं
तुम जो  संग चलो
तो चलूँ फिर वहीँ
लाएं  झोले में भर
यादों की एक डली
ज़िन्दगी कहते हैं जिसे
वो वही थी मिली
थे बंद सब रास्ते
और तुम थी मिली
कैसे क्या हो गया
कैसे मैं खो गया
था तिल्लिसम नया
दिल में है खलबली
जानता तो हूँ मगर
मानता मैं नहीं
तू नहीं है मेरी
हासिल ए महजबीं
याद है वो घड़ी
जब थी तुम यूँ खड़ी
जैसे छावं कोई
तपती राह  पे पड़ी
और  बस एक बार
आओ फिर से चले
रास्तो पे उन्ही
जायेंगे जो मगर
पहुंचेंगे नहीं
आ भी जाओ प्रिय
पलटो तो फिर सही
अब न लौटेंगे हम
रास्तों से उन्ही
जायेंगे जो ज़रूर
पहुंचेंगे नहीं

सुनीता धारीवाल






दो लफ्जों की कहानी -दीपक की तिजोरी में सामान कम निकला



दीपक  की तिजोरी  में से सामान कुछ  कम निकला
अच्छे  प्रभावोत्पादक अभिनेता  के रूप में जाने जाते रहे दीपक तिजोरी के निर्देशन में सिनेमा हाल के पर्दों पर उपलब्ध दो लफ़्ज़ों की कहानी ने  प्रभाव पैदा नहीं किया  -लोग  भी कम पहुंचे .किसी भी थिएटर से फिल्म देख  कर बाहर निकले  दर्शको के चेहरे बता  देतें है कि कितने दर्शक और आयेंगे -आयेंगे भी या नहीं .फिल्म का कोई भी ऐसा विशेष   अलौकिक दृश्य नहीं जो दर्शकों के दिल में उतर कर आँखों से बह निकले  .नायक के रूप में अभिनेता रणदीप हुडा और नायिका काजल अग्रवाल के अभिनय के बावजूद फिल्म दर्शकों को दो घंटा  आठ मिनट तक कुर्सी से  जोड़ कर रखने में कामयाब नहीं हुई .मलेशिया के माल गोदाम होता हुआ कैमरा नायक पर आते हुए कहानी में खूबसूरत दृश्यों को जोड़ने की कोशिश करता दिखाई देता है .फिल्म है तो कहानी भी फ़िल्मी है किशोरवय दर्शक जो प्रेम कहानी तस्वीरों  का बड़ा उपभोक्ता है नदारद दिखाई दिया जो थे वह दिल थाम के सीटो में धंसते दिखाई नहीं दिए गोयाकि आज का किशोर समय से पहले थोडा ज्यादा प्रक्टिकल हो गया है उसे भी फिल्मे फ़िल्मी लगने लगी हैं -पंजाब में सरबजीत देख कर और हाईवे देख कर बनी फैन /प्रसंशक  भी  पहुंची पर सरबजीत की चर्चा करती दिखाई थी .रणदीप हुड्डा गहन अभिनय के वाहक हो गए हैं उनकी क्षमता के लिहाज से फिल्म कम पड़ती दिखाई दी -यूँ भी रणदीप चाकलेटी हीरो की श्रेणी से बाहर हैं ही तो रिंक में बॉक्सिंग कर के रफ टफ काम करते और तीन तीन शिफ्टो में काम करने वाले कामगार के रूप में सही रहे .और हाँ रफ टफ लोग  टफ इशक भी करते हैं यही दिख गया फिल्म में -प्रेम दृश्यों में रणदीप और काजल आपस में सहज दिखे अन्तरंग प्रेम दृश्य में  भी - बीते दिनों खबर तो मुंबई से ही आई थी कि उक्त अन्तरंग दृश्य को फिल्माते हुए रणदीप स्वनियंत्रण खो बैठे और शूटिंग कुछ देर  रोकनी पड़ी सहज होने तक .उसी दृश्य के विशेष दर्शक भी सिनेमा हाल में सिर्फ यह जानने पहुंचे कि देखें तो किस जगह है वह दृश्य जब अपना भाई सुधि खो गया और देख कर बोले भाई ऐसी हालत में तो देस सुध खो दे ये तो जवान छोरा है आपणा "
कहानी में एक युवक अपने अतीत को  हुड  से छुपाने की कोशिश करता दिन रात काम में लगा है -इमोशनल ठगी का शिकार बॉक्सिंग का मारक चैम्पियन युवक एक महतवपूर्ण प्रतियोगिता में अपने पिता समान कोच /आयोजक का सारा पैसा डूबा देता है और वह सड़क पर आ जाता है .युवक ठगी का पता चलने पर बदला लेता है और लूट खसूट की  गलत राह पर चल देता है और जेल काटता है और फिर से काम करने लगता है -तीसरी शिफ्ट में  नया काम ज्वाइन करते ही उसे एक अंधी लड़की मिलती है जो हिंदी टीवी सिरिअल देखने उसके केबिन में आती है नेत्र विहीन नायिका खूबसूरत है अकेली है और कामकाजी भी है जिस पर उसका बॉस बुरी नज़र रखता है .नायिका एक सड़क दुर्घटना में अपने माँ बाप और आँखे खो बैठती है उस दुर्घटना का कारक नायक है -नायक की कुछ समय की भटकन का नतीजा किसी और की आँखों का नुक्सान हो जाना है लेकिन यह सब नायिका नहीं जानती -नायक नायिका की आँखे लौटा कर पश्चाताप करने की कोशिश में खुद को ऐसी प्रतियोगिता में उतार लेता है जिस में उसकी जान दावं पर लगी होती है अंत में  विभिन्न घटनाओं से होते हुए नायक बच जाता है नायिका की आंख्नें भी ठीक हो जाती हैं -और वह दोनों मिल जाते हैं कोई भी प्रेम कहानी का कोई भी दृश्य नयापन लिए नहीं है दर्शक आराम से अंदाजा लगा सकता है कि आगे क्या होगा -यूँ भी आज के समय में प्रेम जीवन देने की वस्तु की तरह नहीं देखा जा रहा -कुछ तो है फिल्म में जो गुम है -न कोई हास्य  न कोई रोमाच है रोमांस है वह भी आकर्षित करने लायक नहीं .इस फिल्म को कोरिया की फिल्म आलवेज़  का पुन: प्रस्तुतीकरण कहा गया है जो बहुत जमता नहीं -रणदीप बहुत बेहतर कलाकार हैं इस फिल्म के इतर- शायद ऐसी फिल्मे उनकी क्षमता के साथ न्याय नहीं करती काजल अग्रवाल ने बेहतर कोशिश की है खूबसूरत दिखी हैं -गाने गुनगुनाने लायक हैं संगीत का ठीक प्रयोग हुआ है
मेरी तरफ से 10 में से 3 नम्बर हैं इंटेंस हो कर भी इंटेंस नहीं लगी यही माइनस है जो बड़ा माइनस है .यूँ तो फिल्म निर्माण बहुत परिश्रम का काम है पर परिश्रम को कौन देख पाता है क्या परोसा गया  बाज़ार यही  देखता है यह फ़िल्मी बाज़ार है और दीपक तिजोरी ने अपनी तिजोरी बाज़ार में रखी है जहाँ अभी लबालब भरने के चांस नहीं पर खर्चा पूरा तो अनेक उपायों से हो जाता है आजकल बशर्ते फिल्म थियेटर तक पहुंचे -लोग भी  आज कल दो ही लफ्ज़  लिख रहें है इस कहानी को -ठीक ठाक
सुनीता धारीवाल