गुरुवार, 5 नवंबर 2015

ऐ री मोलकी -कहानी



आज गांव जल बेहड़ा की आबोहवा बदली-बदली सी हैं सारे गांव में चर्चा हैं रूल्दू जाट का छोरा राममेहर मोल की बहु ल्याया सै। इसी बात को लेकर गांव में हंसीठठ्ठा व्यंग्य और कहीं-कहीं संजीदा बाते हो रही हैं। मतेरी चमारिन गांव में पानी की टून्टी पर बोल रही थी कि रूल्दू जाट की बहु लक्ष्मी ने मोल की बहु को घर में घुसने नहीं दिया और बाहर खेत में तूड़ी व भैंस वाले कोठड़े में ही राममेहर व उसकी मोल की बहु रहते हैं। सारा गांव आने-बहाने रूल्दू के खेत की तरफ आणा-जाणा कर रहा हैं। मोल की लुगाई की एक झलक पाने के लिए।
गांव के सरकारी वाली गली में चार रान्डे (अविवाहित) रामफल, रामकेश, प्यारा और जोगिया भी अपने भीतर की बात एक-दूसरे पर उडेल रहे हैं। सुना है राममेहर पचचीस हजार मोल देकर बंगाली लुगाई ल्याया है, जोगिया ने अपना खबरी ज्ञान झाड़ा कि मैनें पता किया है कि राममेहर ने पांच हजार खुद की कमाई के बचाए थे बीस हजार मंडी के आढ़ती लाला अमरनाथ से दो रूपए सैंकड़ा पर उठा के ल्याया हैं। रामफल ने साथियों को समझाया कि देखो भाईयों यदि हम चारों पांच-पांच हजार रूपए राममेहर को देकर लाला के पैसे चुकते कर दे मोल की बहु हम भी बांट ल्यांगे। राममेहर दूर तै ल्याया है उसके घरां रहेगी इसलिए वे तीन दिन बरत लेगा हम चारों हफ्ते में एक-एक दिन बरत ल्यांगे। चारो सहमति बनाकर उठ खड़े हुए और राममेहर से बात चलाने के उचित अवसर ढूंढने लग गए। दिन के खासे चक्कर बारी- बारी राममेहर के कोठड़े के लगाए पर राममेहर दिखाई न दिया।
रूल्दू जाट के घर राममेहर की भाभियां कृष्णा और सुमन दोनों सगी बहने उम्र में राममेहर से छोटी और नेग में बड़ी। घर में कोहराम कर रही हैं, नासपीटा टीबी का मरीज, कुरड़ी का कूड़ा, काली काटड़ी ल्याया, साल में एक लींगरा जाम देगी पांच किलटे जमीन के निगल के मानैगी। ऊत पै महारे सुख की रोटी न जरी गई बुढ़ँया के किल्ले मैं ते साढ़े सात-सात बांटे आवे थे दोनों बेबेयां के- महारे बालक बी सुख की रोटी खा लेते। फिर दोनों आपस में लड़ने लगी। सुमन बोली ऐ कृष्णा सब तेरा करया धरया है जै तू रोटी दवाई ढंग ते दिए जांदी तो या नौबत कोनी आवे थी। कृष्णा तड़क कर बोली मेरा के या तो तेरा करया धरया है जवान दयोर था बखत तै बहलयो के बतलाएै जांदी। गात की चमड़ी का के बिगड़या करे। आखिरी बखत फूंकण के, काम आया करै, तेरे पै मौका नहीं समभाल्या गया । इब रोण तै के जमीन बच ज्यागी। जाऐ रोई तेरे कान्ही तो लखाया करदा वो -महीना पन्द्रह दिना में उसकी भी राख लैन्दी तो न्यू गाम में घर की माट्टी कोनी उड़ै थी। सुमन बोली चिन्ता न कर बेबे मैं भी देसे नंबरदार की बेटी सू इस मोलकी नै तो गाम मै तै निकलवा के दम ल्यूगी।
फुलमा बुआ भी तड़के-तड़के गांम में पहुंच ली थी और लक्ष्मी नै समझाण लागी। भाभी तू भी किसी काम की ना निकली छोरा मोल की बहु ले आया और सारे गुआंडा मै रूक्का पड़ रया सै। बुढेया की इज्जत के बट्टा लाग लिया। हां री – किसे गरीब की काणी, लगडी, लूली व आंधी कोई सी भी न थ्याही थम ने। पता नहीं राममेहर नकटा किस ने उठा ल्याया. जा जात न पता न गाम का, न बाप का पता। महारे करम में यू ऐ लिखया था। सारे गाम के तानेया नै मेरा गात  छांलणी कर दिया। तेरा भतीजा मोल की ल्याया-मोल की ल्याया। फुलमा का यही रिकॉर्ड सारा दिन बजता रहा।
राममेहर को बहुत बुरी खांसी थी। खांसी के साथ खून भी आता था। तूड़ी के कोठड़े में गरमी का बुरा हाल था। लगातार खांसना असहनीय था। थोड़ा आराम मिलते ही राममेहर टूटी खाट पर लेट गया। राममेहर का चार दिन का रेल की सफर कल्पनाओं में बीता था बगल में मोल की दुल्हन को लिए राममेहर ने कितने रंगीन सपने बुने थे जो गांव में कदम रखते ही बदरंग उलझे धांगो में परिवर्तित हो गए थे। राममेहर सोच रहा था उसका घर होगा, बच्चे होंगे- सच्चाई तो यह थी कि बिन बयाहे उसकी कोई इज्जत न थी। मां के राज में चूल्हे के पास बैठकर घी मक्खन चटनी के साथ बाजरे की रोटी मिलती थी। पिता का दुलार व भाईयों की थपकी भी राममेहर के नसीब में थी। सब कुछ तो सामान्य था। जवानी की दहलीज पर रोग से सामना हो गया था। बहुत इलाज करवाया देसी, अंग्रेजी, ओपरी पराई, झाड़ फूंक बाबा ओझा सब किया पर मर्ज बढ़ता गया ज्यूं-ज्यूं दवा की। अब कुछ भी सामान्य नही था। चुलहे चौक पर बड़ी भाभी कृष्णा का राज था, खेत कयार डांगर डोर पर छोटी भाभी सुमन का। अब उसे घर के अंदर जाने की इजाजत नहीं थी। क्योंकि उसकी गिनती गांव के मलंग रान्डों में थी। उसकी रोटी बाहर ही भेजी जाती थी। चूल्हे तक पहुंच पाना अब केवल एक सपना था। बिना बयाहे मरद की नजर में खोट होता है और रांडे मलंग होते है यहीं समाज का स्थापित सत्य था। जवान होती बेटियों का वास्ता देकर कृष्णा व सुमन ने घर के दरवाजे राममेहर के लिए बन्द करवा दिए थे। राममेहर को मां की रसोई देखे दस साल बीत चुके थे और उस रसोई तक जाने का दरवाजा सिर्फ उसकी विवाहित पत्नी ही उसे दिखा सकती थी। राममेहर की खुद की शादी के बाद ही उसे घर में जगह मिल सकती थी। राममेहर अच्छी तरह जान गया था कि सम्मान पाने व सामाजिक रूप से इज्जतदार कहलाऐ जाने के लिए बहु का होना जरूरी था। उसका अनुभव बता रहा था कि शरीर की भूख की व्यवस्था तो पैसे से गांव में ही उपलब्ध थी और शहर में तो पैसे से शारिरिक सुख की उपलब्धता की बहुलता थी। परंतु सामाजिक स्वीकार्यता हेतू उसे घरबार वाला बनना था, जो केवल विवाह से ही सम्भव था।
बीमारी के कारण उसका कहीं से रिश्ता नहीं आता था। उसकी इस समाजिक स्थापना के लिए बहु बहुत जरुरी थी। चाहे मोलकी ही क्युं ना हो। बयाह के गीत, बहु के स्वागत के, लोकगीत, आखों में मां की रसोई के बर्तन चुल्हाच हारा, टोकणी, बिलौणी, कढौणी शक्कर व गुड़ के मात सब तैरते रहे। सफर का राममेहर को पता भी नहीं चला था। राममेहर के गांव पहुंचे से पहले गांव वालों को भनक लग चुकी थी कि रामेहर मोलकी बहु ला रहा है। सारे गांव में मोलकी का कोतुहल था लोकल बस से उतरते ही रामेहर अपनी नई नवेली बहु को लेकर अपने घर चल दिया। रास्ते में गांव के बच्चों की फौज रामेहर के पीछे लग गई और मोलकी-मोलकी के नारों से गांव की गलियों को गुंजायमान कर दिया
बीमारी के कारण उसका कंही से रिशता नहीं आता था। उसकी इस सामाजिक स्थापना के लिए बहु बहुत जरूरी थी। चाहे मोल की ही क्यों न हो। बयाह के गीत, बहु के स्वागत के लोकगीत, आंखों में मां की रसोई के बर्तन, चुल्हा, हारा, टोकणी, बिलौणी, कढौनी शक्कर , गुड़ के माट सब तैरते रहे। सफर का राममेहर को पता भी न चला था। राममेहर के गांव में पहुंचने से पहले गांव वालों को भनक लग चुकी थी कि राममेहर मोल की बहु लया रहया है। सारे गांव में मोल की बहु का कौतुहल था लोकल बस से उतरते ही राममेहर अपनी नवी नवेली बहु को लेकर घर चला दिया। रास्ते में गांव के बच्चों की फौज राममेहर के पीछे लग गई और मोलकी-मोलकी के नारों से गांव की गलियों को गुजांयमान कर दिया। जैसे-जैसे घर पहुंचते ही राममेहर ने मां को आवाज दी, भाभियों की गालियों, तानों, उलाहनों में मां की आवाज सुनाई ही नहीं दी। मां ने गांव व समाज के दवाब में घर में पैर नहीं रखने दिया। राममेहर मां के पांव में गिर कर रोया पर सब बेअसर रहा। रूल्दू बैठक में सब देख रहाथा बाप की आंखों में तरस का पानी तैर गया पर गांव की चौधराहट के कवच से आशीर्वाद के बोल नहीं निकले। पंरतु राममेहर को गांव के बाहर खेत के तूड़ी वाले कोठड़े में रहने की इजाजत दी गई इस शर्त के साथ कि वह गांव से कोई वास्ता नहीं रखेगा। यह कैसा इज्जतदार बहिष्कृत जीवन था राममेहर को समझ नहीं आया। राममेहर की बहु का नाम मोलकी पड़ गय था सभी गांव वोले इसी नाम से उसकी बात करते थे। गांव की इज्जत के ठेकेदार भी मोलकी की एक झलक पाने को आतर रहते थे। आने बहाने रूल्दू के खेत की तरफ हो आते थे कि शायद मोलकी के दीदार हो जाएं। मोलकी का मोल लगा था इसलिए गांव वाले सांझे खाते की बहु कहकर अपनी दबी वासनात्मक इच्छाओँ को हवा देते रहते थे। इज्जतदार कहलाऐ जाने वाले लोग भी सरेआम भद्दे अश्लील मजाक में मोलकी का नाम लेकर ही-ही-ही करते थे।
गांव का बुजुर्ग रामदिया माली पंचायत घर का चौकीदार संजीदा बुजुर्गों व युवाओं की पंचायत लगा कर रखता था व वहां गांव की महिलाओं को पानी-पीकर कोस रहा था। बुरा हो इन बीर बानीयां का छोरीयां ने पेट में मरवावै सैं ,बेडा डूबे इन डाक्टरां का जिनकी मशीन छोरा-छोरी बतावे। महारी आंखयां के आगे ही गाम में मोल की आण लाग ग्यी और बैरा नी के देख कै मरणा पड़ेगा। आधे गांव मलंगा के होग्ये। छोरीयां का घर तै निकलना मुश्किल हो गया। न्यूऐ छोरीयां ने कूख में मरवाओगे तो नरक पाओगे। संजीदा युवक भी रामदिया माली की गहराई को समझाते थे और आने वाले समय की आहट सुन रहे थे। उधर मोलकी को सिर्फ संकेतों की व आंखों की भाषा समझ आती थी। यहां सब कुछ उसके लिए नया था। मोलकी उस कोठड़े के कोने मे बैठी सोच रही थी कि बाबा ने कहा था जब तक पेट में बच्चा ना आए घर पर फोन नहीं करना न चिठ्ठी लिखवाना। बच्चा पैदा करने के बाद ही गांव में वापिस आना सिर्फ मिलने। मोलकी का पांच बहने उससे छोटी थी दो बड़ी बहनें एक भाई था। बड़ी बहनों को ट्रक वाले कुछ हजार रूपए में ले गए थे। बाप व भाई खेतों में काम करते थे। बाढ़ का पानी हर साल तबाही लाता था व पानी उतरते ही कर्जा चढ़ जाता था। दस- दस दिन तक भूखा रहने का अभ्यास मोलकी को था। इसलिए तीन दिन तक तुड़ी के कोठड़े में पानी पर निर्भर रहकर उसने कोई शिकायत नहीं की थी। मोलकी का बाप जानता था कि बच्चा होने पर ही मोलकी को जमीन जायदाद का हक और घर में जगह मिलेगी, इसलिए कड़े नियम से भेजा था बच्ची को। मोलकी जल्द- से- जल्द अपने भाई बहनों के पास जाना चाहती थी। इसलिए वह अपने बच्चे के बारे में ही सोचती रहती थी।
राममेहर गंभीर रूप से बीमार था। मोलकी अब केवल उसके स्वस्थ होने की चिंता करती थी और ईलाज का ही उपाय करना चाहती थी। पांचवे दिन मोलकी ने अपनी मां के दिए चावल के आटे के लड्डू अपनी पोटली से निकालकर राममेहर को दिए जैसे- तैसे दो दिन निकल गए।
सातवें दिन राममेहर को बुलाने के लिए तुंरत नाई खेत में आया और कहा कि राममेहर को मां ने घर बुलाया हैं। मोलकी झट से दुप्ट्टा ओढ़कर चप्पल पहनकर राममेहर के पीछे चल दी। भरतु ने रोका कि मां ने अकेले राममेहर को बुलाया है। मोलकी ठहर गई उसे अब खेत के कोठड़े में डर लगने लगा था। वह वहीं सिमट कर बैठ गई और राममेहर को इंतजार करने लगी।
घर पहुंचते ही मां ने राममेहर को चाय पिलाई और कहा कि बेटे मुझे नहीं पता था कि तू बहू का इतना शौकीन है। हम तेरे मां-बाप है कहीं ना कहीं तेरा ब्याह करते। मैं करम जली ये सोची कि तेरा रोग लाईलाज है किसी की बेटी की बिरान माटी हो जाएगी। पर तू ना माना पर अब भी देर नहीं हुई है। तेरी बुआ फुलमा तेरा रिश्ता लाई है। जीन्द के पास की लड़की है, विधवा है। बस तेरे से चार-पांच साल ही बड़ी होगी। लड़की के बाप-भाई है। तेरे सहारे टाइम काट लेगी। तेरी सध जाएगी तेरे पर कोई जिम्मेदारी का बोझ भी नहीं पड़ेगा। दस तोले सोना मैं चढ़ा दु्ंगी। अगले कुछ हजार नकद टीके में देगें और धन दाज सारा दे देगें। एक भैंस भी देगें और बेटा मोलकी की चिंता मत करना। मैने तेरे टोहाना वाले मोसै तै बात कर रखी है वो इस मोलकी को तीस हजार रुपय में ले जाएगा। सत्तर साल का हो चुका चौधरी उसके बुढ़ापे के बचे दस-पंद्रह साल से काट लेगा। इस मोलकी की जात ना पात इनका तो काम यूं ही होता है। खानदानी टाबरा मैं इसी बहु नहीं लयाया करते,मैंने साई पकड़ रखी है मोलकी की। आज रात को तेरा मौसा इसनै ले जयागा। गाडी ले कै आवैगा।
राममेहर सन्न रह गया और उसे कुछ समझ नहीं आया दिमाग सुन्न हो गया। राममेहर बिना कोई जवाब दिए खेत की ओर चल दिया। राह में रामफल, प्यारा, जोगी और रामकेश ने टोक दिया अपनी मंशा जाहिर कर दी। चार कदम आगे गाम के बदमाश छोरेयां ने फिकरा कसया एक बार हमने भी दिखा दे मोलकी तेरा तै हिसाब हो लिया होगा। राममेहर पीछे मुड़कर देखता तो बोले काली गाजर ले रहया सै मेरे बटे थोड़ी सी कांजी हमनै भी प्या दे। राममेहर ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। उसके सोचने समझने की शक्ति को विचारों ने हर लिया था। वह सोच रहा था कि बहु-बहु में फर्क होता है क्या। बहु तो बहु ही होती है चाहे मोल चुकता कर के फेरे लिए हैं चाहे दहेज लेकर फेरे लिए हों। दर्जा तो बहु का ही हैं और होना भी चाहिए। दहेज की बहु का इतना आदर!यदि कोई देख भी ले तो मरने मारने को उतारु हो जाते हैं औरत के कारण तो कत्ल होते आए। मेरे विवाह को कोई विवाह नहीं मानता। मुझे गांव निकाला मिला सामाजिक उपहास पीड़ा और बहिष्कार मिला। आखिर क्यों मैंने तो विवाह जैसी संस्था ही को तो अपनाया है। असहाय व नीरीह मन: स्थिति के साथ राममेहर मोलकी के पास लौट आया। मोलकी ने एक पल में इशारों में अनेक सवाल कर डाले मां ने मुझे भी बुलाया है। क्या-क्या कहा कब हम गांव में जाएंगे आदि-आदि पर राममेहर चुप रहा।
राममेहर मोलकी की सेवा व प्रेम का कायल हो चुका था। राममेहर किसी भी कीमत पर उसे छोड़ना नहीं चाहता था, उसने सारी बात मोलकी को बताई और दोनों ने उसी रात गांव छोड़ कर शहर की राह पकड़ ली। शहर में छोटे से प्रॉपर्टी डीलर का एक कमरा कि किराए पर ले लिया। प्रॉपर्टी डीलर की पत्नी दयालु महिला थी। उसने उन्हें दरी,थाली, गिलास, चूलहा, बल्ब सब दिया और राममेहर ने मिट्टी ढोने वाले ट्रैक्टर ट्राले पर ड्राईवर की नौकरी करनी शुरू कर दी। सौ रुपए दिहाड़ी के पैसों में से नबबे रुपए राममेहर के इलाज के लिए खर्च कर मोलकी खुश थी। मोलकी के लिए अपने पेट की भूख से भी जरूरी उसको कोख की भूख थी जो जल्द से जल्द बच्चा चाहती थी। इसलिए राममेहर के स्वास्थ्य पर सब कुछ खर्चना चाहती थी। पद्रंह दिनों में सब सामान्य होने लगा था कि अचानक मकान मालिक की पत्नी के पिता मृत्यु हो गई व अपने बच्चों सहित मायके चली गई। मोलकी की हैसियत समाज में मोलकी ही थी। मकान मालिक अपनी वासना का दास हुआ और भीतर के वहशी ने अकेली मोलकी को तहस-नहस कर दिया। उसकी इज्जत के चीथड़ों की गवाह हर दीवार थी। उसके शोर शराबे की किसी को भनक तक नहीं मिली। राममेहर रात वापिस आया तो मोलकी लुट चुकी थी। उसके कमजोर शरीर मे ताकत नही थी कि वह प्रतिकार कर पाता। दोनों ने ही रात को अपने ट्रैक्टर मालिक के घर शरण ली। मालिक की मां दयालु थी दया कर उसने एक बिस्तर बर्तन, चूल्हा इत्यादि दिया और स्थानाभाव में उन्हें भैंस के कमरे में एक तरफ कोने में स्थान दिया। मोलकी सारा दिन उस महिला के घर का सारा काम करती बदले में उसे एक पाव दूध मिलता जिसे मोलकी राममेहर को पिला देती थी।
लगभग एक माह बाद मालकिन के बेटों की बहुंए उस घर में गई, उन्होनें मोलकी की उपस्थिति को नहीं स्वीकारा। उन्हें मोलकी की मुस्कान और चंचल आंखों ने डरा दिया। उन्हें लगा कि उनके पति बहक जाएगें यह काला जादू जानती है। उन्हें फंसा लगी। बहुओं ने मोलकी और राममेहर को घर से जाने का हुकम सुना दिया। बेबस मालकिन कुछ ना कर सकी। वह मेरे घर का पता जानती थी। एक दिन सुबह-सुबह मोलकी को लेकर वह मेरे घर पहुंची। मैंने सिर से लेकर पांव तक मोलकी को देखा वह मात्र वर्षीय बच्ची थी। जिसका अभी तक शरीर भी विकसित नहीं हो पाया था। एक ऐसा पौधा जो खिलने का मतलब भी नहीं जानता था। उसने कातर आखों से मुझे देखा था। वह मुझसे बहुत कुछ कहना चाहती थी परंतु मेरे पास समय की उलब्धता बहुत कम थी। उस महिला ने कहा कि इसे काम पर रख लो मेरे पास पहले से ही दो घरेलू नौकरानीयां थी इसलिए मुझे जरुरत नहीं थी। परंतु उसे मेरी जरुरत थी, मैंने रखने की इजाजत दे दी। वह मेरे सुबह उठने से पहले ही मेरे घर पहुंच जाती थी।  तीन वकत का खाना उसे अरसे बाद नसीब हो रहा था मैंने उसे उसके पति के लिए खाना भी मेरे घर से ही से जाने की इ़जाजत दे दी थी।
वह जब भी मेरे सामने पड़ती बहुत कुछ कहने की कोशिश करती थी परंतु मुझे समय नहीं मिलता था चुनाव नजदीक आ रहे थे। लोगों की गहमा-गहमी भीड़ बढ़ने लगी थी। मैं सुबह से रात के एक बजे तक जन सभाओं को संबोधित करती। रात को आकर सारे दिन का आंकलन करती रात दो बजे सो जाती और वह दिन भर मेरी तलाश में रहती। एक दिन सुबह घर से निकलते ही उसने मेरा हाथ पकड़ लिया, मैंने पूछा क्या चाहिए वह बोली  आप मेरी मां बन जाओ मेरी बात सुन लो। उस समय सुबह  की वह मेरी पहली याचक थी मैंने उसकी बात सुनने का अगले दिन का समय दे दिया। अगले दिन की मेरी जन सभाएं कैन्सिल कर दी गई मेरी गर्दन व कमर में बेहद पीड़ा थी मैं उठने से भी लाचार थी। मैंने झट से मोलकी को बुलाया और अपनी बात कहने का मौका दिया। मैंने पूछा क्या नाम है वह बोली मोलकी, मैंने पूछा क्या तुम्हरे पिता ने यही नाम रखा था, बोली नहीं यह नाम तो ससुराल का है मेरा नाम तो रिन्की का है। पिता का नाम- बोली सईद, गांव का नाम पता नहीं, जिला पता नहीं, बस देश का पता है वह बांग्ला है, मैने पूछा नदी पार वाला या इधर वाला या हिंदुस्तान वाला। मैंने पुछा चिट्ठी कैसी जाएगी-बोली पता नहीं बस टेलीफोन नंबर है, बाबा ने कहा है जब बच्चा हो जाए तो ही फोन करना। मैंने नंबर मिलाया तो जवाब में नंबर उपलब्ध नहीं था।
वह मेरे पैरों पर गिर कर रो रही थी आप मुझे रख लो हमेशा के लिए बस मुझे रोटी देना मेरे पति को दवाई देना और कुछ नहीं। उसने जो कुछ सहा मुझे सब बताया। मैंने बहुत तेज दवाईयां ली और अगले हा दिन फिर से अभियान में जुट गई। वह रोज मेरी ओर देखती जैसे अभी भी कुछ बताना रह गया। उसकी आखें अभी भी कहती थी मेरी सुनो। एक दिन भीड़ में से वह मुझे खींचकर अन्दर ले गई और कहने लगी तुम मेरी मां हो सुनो- मेरा ये पति है रामेहर मुझे उससे घिन्न होती है। उसके पास आते ही मेरा जी मिचलाता है, मैं उसकी गन्दगी और बलगम साफ नहीं कर पाती हूं। वह बहुत गन्दा दिखता है। उसके मुंह से बदबू आती है। मैं क्या करुं बताओ मां मैं क्या करुं। मैं मच्छी खाना चाहती हूं। मैं अपने छोटे भाई बहन के पास जाना चाहती हूं पर बाबा ने कहा बिना बच्चे के नहीं आना। बताओ मैं क्या करुं। मैं चुप थी। शाश्वत सत्य यह था कि एक बेटी ही अपनी मां से कह सकता थी यह सब।
मेरे पास कोई जवाब नहीं था उसके पास घर का पता नहीं था वह बालिक नहीं थी। सामाजिक रूप से स्वीकार्य भी नहीं थी। मेरे कानून हस्तपेक्ष का मतलब उसका बालिग होने तक नारी निकेतन तक रहना था। मेरी मसरुनफियत ने उसके फैसले को कुछ समय के लिए टाल दिया था। चुनाव के थमने पर मैंने रिन्की के बारे में घरेलू नौकरों से पूछा तो उन्होंने कहा कि वह पिछले दिनों से नहीं आ रही।
अपना वेतन ले गई है और आपसे मिलना चाहती थी उसे उसका पति जबरदस्ती अपने साथ ले गया है। नई जगह जिसका किसी को पता नही । आज भी मेरे जहन में उसके प्रश्न हैं। जिनका उत्तर मुझे केवल रिन्की को ही नही बल्कि सभी मोल की बहुओ कों देना है । कम से कम महिला प्रतिनिधी होने के नाते हमारी जवाबदेही इस उपजते वर्ग के प्रति उतनी ही बनती है जितनी अन्य  के प्रति । कन्या भ्रुण हत्या से उपजी इस समस्या का सामना समाज को करना है । ऐसी महिलाओं का सर्वेक्षण करना उनकी सामाजिक स्थापना हेतू उचित माहौल व सुरक्षा प्रदान करना उनके शिक्षा, संपत्ति का हक सुनिशिचत करना जैसे मुद्दों पर ध्यान देना ही होगा और खासतौर पर मेरा आहवान है कि या तो कन्या भ्रुण हत्या बन्द करे अन्यथा सांस्कृतिक विविधताओं भरे समाज के लिए तैयार रहें क्योंकि हर गरीब का देश,समाज  जात-पात नही केवल मोल होता है । और मोलकी किसी भी प्रदेश की हो सकती है मिल एक दिन जाएगी आपके अपने ही परिवार में आपके ही आस पास । विभिन्न भाषाओं को बोलती हुई हास्यपद हरियाणवी या पंजाबी भाषा का प्रयास करती हुई एक और मोलकी ।
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लेखिका-सुनीता धारीवाल

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