मंगलवार, 17 नवंबर 2015

बिटिया-आईने है खिलौने

जब से बिटिया हुई जवान
आईने खिलौने बन गए है
अब नही निकलती
कोई गुड़िया उसके झोले से ,
काजल, लाईनर, नेल पेंट, लिप ग्लास
से भरा पड़ा उसका झोला
अब नही अटकती उसकी नजर
किसी ठेले वाले पर
किसी गुब्बारे वाले पर
अब तो उसकी नजर
बार-बार खुद पर ही जाती है ।
या अटक जाती है
उन नजरों की ओर
जो उस पर अटक जाती है।
जोर-जोर से रोना चिल्लाना
अब नही सुनाई देता
अब तो धीमे- धीमे से बोलती है
बिना आवाज आसूंओ से गाल भिगोती है।
वह मेरी तरह नही स्वीकारती
मां का दिया कैसा भी
सूट दुपट्टा या फिर दूल्हा
वह पंख पालती है
उड़ान की सीमांए जानती है
अवसर पहचानती है
उसे खुद कैसे जीना है
वो यह भी जानती है
मै तो मां की आंख से डरती थी
वह मेरी आंखो मे आंखे डाल
मनवा लेती है अपनी बात
उससे दब कर जाने कैसे मैं
हलकी हो जाती हूं
चैन सा पा जाती हूं
यह जान कर कि कोई उसे
अब दबा नही पाऐगा
मुझ मे और उसमें
बस थोड़ा फर्क है।
मैनें उसे 25 साल दिए
खुद को जानने समझने के लिए
 और मेरी मां 
 शायद डर गई  थी मेरी सोलह की उम्र से 
और मेरी गुलाबी रंगत से
मेरी शफ्फाक गोरे भरे बदन से
वह क्या घर मे कोई भी न देख पाया शायद 
मेरे जिस्म के भीतर अभी भी 
 गुनगुनाती  एक छोटी सी बच्ची
जो अब भी पापा के कंधो पर
सवारी करना चाहती थी
ठेले पर लटक झूलना चाहती थी
नंगे पैर बाहे फैलाये  तेज दौड़ना चाहती थी 
दीवारों पर पेड़ो पर अब भी चढना चाहती थी
खेलना चाहती थी ऊंच-नीच का पापड़ा
दाई-छप्पा, दाई छप्पा और सब कूद फान्द स्टापू
पर नही मैं तो बस समझना चाहती थी
मेरे शरीर में क्या हुआ है क्यूं बढ़ गया है मेरा कद 
 इस कदर कि मेरी हर पहुंच छोटी हो गई
मैं देखना चाहती थी कॉलेज लाइफ की सुनी सुनाई
चकमक दुनिया – बकझक दुनिया 
संवरती है   बनती है वंहा किस्मत मुनिया
मैं तो उलझी रही थी अगले दस साल
 सवाल दर सवाल हर साल दर साल 
पर मैं उसकी माँ बिल्कुल  डरी नही
उसकी चंचलता से
उसके आकार और विचार से
और पकने दिया तब तक
कि वह मुझे आंख दिखा सके
और तमाम दुनिया से आँख मिला सके
और जी ले अपनी जिंदगी 
उड़ ले और छू ले अपने हिस्से का आसमान 
जब चाहे तब तक उड़े जब चाहे तब सिमटा ले 
अपने पंख पर परवाज का हुनर और अनुभव 
उसकी रगो मे दौड़े बिना किसी भय 
हर तरफ हो बिटिया तुम्हारी जय जय 

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