मंगलवार, 17 नवंबर 2015

काला शून्य


इस माटी देहात्मा में
मिल गऐ है कितने ही
पश्चाताप के
आत्मग्लानि के
मोक विकार के
स्वधिक्कार के
असीम असुरक्षा के
कितने ही अवयव
घुल गए हैं मेरे
निरन्तर बहते
खारे आंसुओं से
बना लिया है दलदल
इस घुलमिल मित्रता में
जहां मेरे प्राण फंसे है
अनचाहे से देहात्मा से कसे है
जितना भी निकलना चाहूं
उतना गहरे और धंसे है
नहीं पार करती कोइ भी रौशनी
यह जीवन का अन्धेरा दलदल
किसी अध्यात्म की भी आंच
नही सुखा पा रही यह गहराई
बस प्राण संकट में छटपटाते से है
बस प्राणो का ही तो संकट है
सब कुछ तो है जीवन में
और जीवन ही सब कुछ है
फिर कंयू कहीं दूर
एक बड़ा सा काला शून्य
मुझे अपने पास बार बार बुलाता है
और मैं आकर्षित हो
रोज उस ओर बढती हूं
पर छिटपुट रौशनियां
गाहे बगाहे मेरा
रास्ता रोक लेती है
उजालों से जंग लड़ रही हूं
उस शून्य की ओर जाने के लिए
जिससे मुझे हो गया है प्रेम
समा जाना है मुझको तेजी से धूमते शून्य में
निकलना है मुझे असिमित अन्नत यात्रा में
जहां मिलेगें मुझे
मुझसे बिछड़े मेरे टकड़े
और उन संग मैं भी काले शून्य
में बिखर जाऊंगी कण कण हर क्षण क्षण
सदा के लिऐ सदा के लिऐ काला शून्य
by suneeta dhariwal

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