मंगलवार, 17 नवंबर 2015

जिन्दगी की साँझ कया सच में बाँझ है

जिन्दगी की साँझ कया सच में बाँझ है

जिन्दगी की साँझ कया सच में बाँझ है
खुशफहम सवेरा था मां पिता के लाड में
जो कुछ भी जग में था सब मेरा मेरा था
दोपहर कड़कती में मेहनत की ठन्ठक थी
जो कुछ भी था पाया सब तेरा तेरा था
कभी सांझ कौतुहल थी फिर सुरमई लगती थी
अब सांझ हकीकत है फिर बांझ कयूं लगती है
कयों नही नये सपनो कोई अन्कुर फूट रहे
बरसो जोड़े थे जो घर वह कंयू हैं टूट रहे
कयों रात की आहट भी हर रात डराती है
सूनेपन की भयावहता सपनों मे आती है
नीड़ में बच्चे जितने थे उड़ दूर जा बैठे है
उनके पन्खों मे जादू है यह मान के ऐन्ठे है
जब कभी वो आतें है हर बार ले जाते है
सपन सलोना सा – तिनका मेरे बिछौने का

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