गुरुवार, 5 नवंबर 2015

क्यूँ पैर चले आते हैं-लघु कथा


अभी कुछ ही दिनों पहले नये घर में आ कर रहने लगे थे हम ,दोपहर को मेरे सोने का वक्त हुआ नहीं कि आंगन में प्रवासी मजदूरो के बच्चों की धमाचौकड़ी शुरू -बात बात में चिल्लाते ,अश्लीलतम गालीयां निकालते खूब हल्ला मचाते ।और आज तो इतना गुस्सा आया कि डराने के लिए डन्डा ले कर ही बाहर निकली -कितनी बार कहा है यहां मत खेलो समझ नही आता या पिट कर मानोगे ,मेरी आंखों की गुस्साई गरमी से वे सचमुच सहम गऐ ,ऐक बच्चा साहस कर मेरे पास आया और बोला -आन्टी यहां पर इस जमीन पर आज जहां आपका घर है वहां हमारी झुग्गी थी और हम सब स्कूल के बाद यहीं खेलते थे ।मां ने झुग्गी तो दूर बना ली है पर पता नहीं कंयू़ हमारे पैर हर रोज स्कूल के बाद यहीं चले आते हैं । अब आप चाहें तो हम सब को ही पीट लो। मैं निरूत्तर बहुत देर खामोश खड़ी रही उनकी कोमल भावना सालने लगी क्योंकि उनकी जगह उनके साथ मैं ही तो खेलने लगी थी अपनी कल्पनाओं में

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