मंगलवार, 17 नवंबर 2015

शीषक – बसंत में झड़ी पत्ती


अक्सर पते पत्तीयां पतझड़ में झड़ जाया करते हैं
पेड़ को भी पता है कि झड़ना पतों की नियति है
पुराने झड़ जाएंगे तभी नए आएंगे।
पर मैं तो भरी बहार में बसंत में पेड़ से गिरी पती हूं
जिसमें बहार की नभी अभी बाकी है।
इसलिए सूख भी न पाई हूं
और न ही किसी दावानल में जल पायी हूं।
मेरी यह नमी मेरा पेड़ जरूर पहचानता होगा।
लाख नजरें चुरा ले
मेरी रग-रग नमी वही जानता होगा।
बस इतना बता दे कि गिराया क्यूं-
जान लूंगी तो खुद ही सूख जाऊंगी,
फिर किसी भी आग में आसानी से जल जाऊंगी।
अब तो हर रोज तपती हूं
बिरहा की बरसात में
और नम भी होती हूं
न जीती हूं न मरती हूं
गली-गली कदम- कदम
पैरों तले भटकती हूं
फिर भी नहीं मिटती हूं।
हवा को पकड़ा दी है मैंने अपनी डोर
जिस ओर बहती है उसी ओर लुढ़कती जाती हूं
मेरे पेड़ से जो मेरा प्रश्न है
उसी के उतर की प्रतीक्षा में
अपनी नमी को बचाए रखती हूं
क्योंकि यह नमी ही मेरा जीवन है
जो उस पेड़ से मेरा संबंध जानती है।
मुझे उस हरे-भरे पेड़ का अंश बतलाती है।
मेरे लिए अब बस
इतना ही काफी है जीने के लिए।
लेखिका-सुनीता धारीवाल

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