मंगलवार, 17 नवंबर 2015

जो कि सुना था मैंने


जो कि सुना था मैंने
आंधीया मुझे ले गई
झोंको ने क्यूं कुछ न कहा
क्या रिश्ता है उस शहर से मेरा
कैसे मैं कर दूं बयां
वहां सुकून का झोंका बड़ा अच्छा था
चाहे घर मेरा वहां अभी तक कच्चा था
मेरे अपनो ने जो घोंपा था छुरा वो भी सच्चा था
तूफानों से जूझने का मेरा हुनर भी तो अभी बच्चा था
आज भी है उस शहर से मेरा करीबी नाता
जहां मैंने जाना रिश्तों को बनाया हर हाल निभाना
जहां मैंने जाना मेरी ताकत क्या है
अकेली औरत के लिए दुनिया में आफत क्या है
नारी हठ से जो मिलती है जो वो ताकत क्या है
उस शहर मे मैंने शेरों को चुजे बनते देखा है
वक्त बदलते ही चूज़ों की दहाड़ भी सुनी है मैंने
निस्वार्थ प्रेम करते आर्शीवाद देते हजारों हाथ
बेपैन्दे से लुढ़कते रंग बदलते शातिर रंगे सियार
मेरी दिनचर्या के यही तो ये एक दशक तक खेवनहार
अफवाहों के थोक बाज़ार
निशाने पर मैं सदाहबहार
झूठ का परचम उठाते
सच के बड़े ठेकेदार
जाति से ऊपर सोच न पाए
शहर के बड़े सरमाऐदार
भीड़ से घिरी-जिन्दाबाद के नारों के शोर में
क्या कह पाई कभी मैं कि मेरे भीतर की मां
हर रात जार जार रोती है
सीने लगे अपने बच्चों की
भीनी सुगन्ध के लिए तरसती है
मैं चली आई थी वहां
सब आराम छोड़ कर
बडे शहर की चकाचौन्ध
सुविधाओं का अम्बार छोड़ कर
नज़दीक से देखने
जानने और महसूस करने
मेरे देश को
जो कि सुना था मैंने
भारत गांव ,कस्बों और देहात में रहता है
निश्चल, निषकपट ,निषकलंक सा
पर अब तो गांव भी दिवालिया होने लगे है
शहरों की तरह
नफा नुकसान सोचने लगे है रिश्तों की जगह
ये भारत अब भी मिल जाता है मुझे
सोनिया बेटी के विशवास में,
बेटे राजेश और नरेश की आस में
दादा जय सिह में ,ताऊ बलबीर में,
कृषण लाल ,सूरजभान और अमन की तकरीर में
सब भाईयों की आंखों के नीर में ,हर नारी की पीर में
और उन सब अपने सात हजार भाई बहनो में
जिनकी आखें आज भी नम हो जाती हैं मुझे देख कर
जो गाहे बगाहे मेरी बात करते हैं मुझे याद करते हैं
जय हिन्द

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