मंगलवार, 17 नवंबर 2015

तुम थे

शीषक –तुम थे
संदर्भ-यह कविता मेरे दिवंगत पुत्र अंकित धारीवाल की स्मृति मे लिखी थी
बेटा
तुम हरे भरे थे
मैनें देखा तुम्हें
बीज से पौधा बनते
कोमल सा हरा भरा सा
कभी किसी फूलदान का पौधा लगते
कभी किसी छायादार पेड का छोटा पौधा लगते
कभी ताड़ की तरह तन जाते
कभी चीड़ की तरह गुनगुनाते गाते
कभी लताओं की तरह बल खा जाते
तुम हवा थे बहते थे
स्वच्छन्द और कभी मन्द
कभी तूफानी सी गति पकड़ते थे
कभी रचते थे टोरनैडो
कभी झूम कर बहते पुरवाई सा
और कभी पिछुआ बनकर बहते
कभी बहते शीत लहर सा ठिठुर ठिठुर
कभी लू सा आंच- आंच सा ताप- ताप
तुम जल थे
कभी बहता थे झरने की तरह
कभी लहरो से अकड़ते थे
कभी बादल सा यका- यक फटते थे
कभी झील सा गहराते थे
कभी बारिश की रिमझिम सा गाते थे
कभी घटा की फुहार थे
कभी स्त्रोते का फुव्वारा थे
पर तुम कितने बेचारे थे
तुम मेरे अपने ही बच्चे थे
निडर बेखौफ रुआब जमाते थे
अकड़ कर, पकड़ कर, झगड़ कर,
अपना हक जमाते थे
जो चाहे वो हमसे पा जाता थे
फिर मैने देखा
तुम्हे सामाजिक स्वीकार्यता के आईने से
समाज के रचे ढ़ांचे से मिलान कर देखा
तो टोका
तुम्हे हर नई कपोल पर टोका
ऐसे नहीं वैसे उगो बात बात पर रोका
बल मत खाओ बेल सा दिखते हो
नीचे-नीचे मत फैलो झाड़ी सा लगते हो
शूल को मत उगने दो बबूल सा लगते हो
तुम्हें तो बनना है बस एक पेड़
जो तुम्हारे पिता की तरह छाया दे सकें
हर कष्ट सहकर भी फल दे सकें
एकदम मजबूत चुप रहने व सहने वाला
गहराई से जमीन से जुड़ा एक मजबूत पेड़
मेरी हर टोका-टाकी सामाजिक थी
तुम समझ नहीं पाए
और पेड़ के बनने के दबाव में
खुद को बोनसाई बनता देख
सहन नहीं कर पाए
तुम हवा थे मैने फिर टोका
मत बहो ठंडी समीर
की तरह कंप- कंपाते हो
मत बहो बेखौफ
तूफान सा लगते हो
मत बहो बेहतरतीब
चक्रवात सा दिखते हो
तुमहे तो बस पवन होना हैं
मंद- मंद ठंडी ब्यार सी
सुख देना है जीवन देना है भय नही
अब सोचती हूं
हवा के प्राकृतिक स्वभाव के विपरीत मे उसे
क्या सीखाना और समझाना चाहती थी
जो प्रकृति से स्वभाव मे लाया था
उसे बदलना चाहती थी
उसे कैसे बहना है चाल सिखा रही थी
उसे कुछ समझ नही आया।
स्वभाव के विपरीत
उसे बहना न आया वह चला गया
अनन्त की ओर
जहां उसे किसी सामाजिक ढांचे में
फिट नही होना था
मैने फिर उसे देखा निषचल जल
फिर उसे टोका
उसकी हर चाल पे उसे रोका
उस जल को कई रूप बदलने से रोका
कहा बस जीवन दायिनि नदिया बनो
अठखेलिया मत करो
सादे- सादे से बहो
वह फिर समझ नही पाया
नही बह पाया नदियों की तरह
वह जल स्त्रोत ही सूख गया
खुद ही चला गया धरती की कोख में
और मैं खड़ी रह गई ठगी सी
खुद शिल्पी बनने चली थी वो भी प्रकृति बदलने की
क्या मेरे अनुभवों ने सांसारिक ज्ञान ने, जिम्मेदारियों ने
मुझेप्रकृति से छेड़छाड़ का हक दे दिया था
मैनें बार बार तुमहे उसी आईने से देखा
जो मुझे विरासत में मिला था
मेरी मां से मेरी सास से
कि बेटे को ऐसा बनाओ वैसा बनाओ
और फिर तुमहे टोका
बेटा लेना नहीं देना सीख लो
थोड़ा खाने की आदत डालो
तभी तुम्हारे बच्चे सुख से खा पाएंगे
अधिकार मत जमाओ
पहले कमाना सीख लो
पिता के धन पर अकड़ा नहीं करते
मां की प्रतिष्ठा का रौबदाब नहीं जमाते
तुम क्या हो यही साबित करो, सक्षम बनो
जब भी कुछ बनने निकलता हम फिर टोक देते
उसके प्रयास से पहले उसके कर्म का परिणाम बता देते
वह कुछ भी समझ ना पाया
उसकी सोच जवाब दे गई
वह हमारी ही प्रतिष्ठा और अपेक्षाओं की
बोझिल चादर के नीचे दबता चला गया
संस्कारों ने उसे प्रतिवार नहीं सिखाया
मातृ प्रेम ने उसे अनादर नहीं सिखाया
बस वह कुछ समझ नहीं पाया
उसे जीवन से चले जाना आसान लगा
ऐसा जीवन जीने की जगह
ये क्या कर रही थी मैं
किन पचड़ों में पड़ रही थी मैं
समाज के व अपने हिसाब से
उसकी प्रकृति घड़ रही थी मैं
प्रकृति से छेड़छाड़ तो सबको मंहगी पड़ती हैं
सामाजिक ढांचे में ढालने की पुरानी दुकान
आज गली- गली सड़ती है
फिर क्यूं मैं बना रही थी उसे वह
जो वो था ही नहीं
आज वो नहीं हैं मैं रोती हूं जार- जार
महफिल- महफिल भटकती हूं
सच कहूं तो
अपनी ही नजरों में, खटकती हूं
जिस समाज को मैंने खुद कभी कुछ नहीं समझा
मैंने उसी की दुहाई दी,
वह मेरा कहा गहराई से मन पर ले गया
बस अपने संस्कारवान होने का पता मुझे दे गया
अब घर तो उसने बदल लिया है पर पता नहीं दे गया
अपने किए पर धिक्कारती हूं
मरने की आस है पर फिर भी
जीती- जाती हूं जीती- जाती हूं।
बेटा मैं तुम्हारे बिना
न जीती न मरती हूं,
चुपचाप रूदन मैं करती हूं।

लेखिका-सुनीता 

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