मन्जिलों को पाटती दुनीया
और बेमकसद सी ठहरी मैं
और बेमकसद सी ठहरी मैं
सपने तो केवल सपने थे
उन में भी उतरी गहरी मैं
उन में भी उतरी गहरी मैं
झूठ बहाये अपनो नें कितने
सुन कर भी बनती बहरी मैं
सुन कर भी बनती बहरी मैं
सँस्कार देहाती छूट न पाऐ
फिर भी कहलाती शहरी मैं
फिर भी कहलाती शहरी मैं
सान्झ सुबह कोई और ही होंगी
हर दम तपती दुपहरी मैं
हर दम तपती दुपहरी मैं
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