मंगलवार, 17 नवंबर 2015

तिनका तिनका हमसफर


शीर्षक – तिनका हमसफर
सर्घंषों के अथाह सागर मे
मुझकों तो बस तिनके की दरकार थी
तैरते थकते मैने देखे थे
ता है…
कितने तिनके बदहवास
उनको बल समझाने मे
मेरे सब बल निकल गऐ
फिर भी मेरा हठ तो नापिए
तिनके को बना हमसफऱ
जूझने लगी थी मैं
मुझ से सौ कद ऊंचे
ज्वार भाटा के प्रचंड आवेगों से
ताकि आंख मिला सं
कू वक्त के उस सूरज से
जिसने मुझसे नजर मिला धकेल दिया था
अथाह अनजान सागर मे
सागर से भी खारे मेरे आंसूओं और पसीने ने
तब निगल ही लिया था तूफानो को
और शांत लहरो का सफर जारी था
मंजिल की दूरी अनुमान भी था
फिर दिखाई देने लगे किनारे दूर से
तब तिनके ही मुझ को हांकने लगे
न जाने क्यो उसी वक्त छोड दिया तिनको को
न अब मै थी किनारे न वो थे किनारे
अब फिर से किनारे दूर दिखने लगे है
ओझल होने लगे है
बस सफर अपना इतना ही था
यही समझ हम
लहरो पर अपना बोझ ढ़ोने लगे है.
और वक्त का सूरज मुझे रोज तपाता है
मेरी आंखे नजरे चुराती है
पर मेरा अन्तर्मन तो अब भी
सूरज को चुनौतिया देता रहता है

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